बस रश्क, बीमारी, लोगों की दुहाई रखी है,
जिंदगी भर की तूने, ये क्या कमाई रखी है ?!
अब हमें मालूम पड़ा, उसकी परेशानी का सबब,
दूसरों से बहुत उसने , उम्मीदें लगाईं रखी है !
वो पूछते है हमसे, क्या है बुलंदी का राज ?
दिखा दे फिर अदा वो जो, बनी बनाई रखी है !
जहाँ ये देख हैं चुके , जहन्नुम से क्या डरें ?
वहाँ भी कौन सी बची, नयी बुराई रखी है ?!
है खेल तेरा क्या , कौन समझ पाया खुदा ?
जादू में गज़ब की तूने , अपनी सफाई रखी है !
जो मुस्कुरादे आज तू , है तेरी क्या 'मजाल' ?
खुशियों की पंडित ने पहले, तारीख बताई रखी है !
रचना अच्छी है। मुझे नही लगता ये गज़ल बहर मे है। भाव अच्छे हैं। शुभकामनायें।
ReplyDelete4/10
ReplyDeleteतकनीकी चीजों को किनारे कर दें तो आपने ग़ज़ल पढने लायक बना ही दी. कई शेर ऐसे हैं जिनका भाव बढ़िया लगा. कोशिश कीजियेगा शायद ये ग़ज़ल और भी बेहतर बन जाए.
निर्मला जी की बात सही है...लेकिन ये निराशा का विषय नहीं क्यूंकि गज़ल में भाव पक्ष का बहुत महत्त्व होता है और आपका भाव पक्ष बहुत शशक्त है...लिखते रहिये...सफलता दूर नहीं...
ReplyDeleteनीरज
चलिये खुशियों के सिलसिले पंडितों के बताने से ही शुरु हों पर हों तो सही :)
ReplyDeleteआप सभी का ब्लॉग पर आने और प्रतिक्रियाएं देने के लिए आभार
ReplyDeleteअच्छे भावों से संयुक्त एक अच्छी रचना।
ReplyDeleteअब हमें मालूम पड़ा, उसकी परेशानी का सबब,
ReplyDeleteदूसरों से बहुत उसने , उम्मीदें लगाईं रखी है !
satya hai, duron se ki gayi umeedein hi dukh ka karan banti hain!