Saturday, October 23, 2010

एक ग़ज़ल

बस रश्क, बीमारी, लोगों की दुहाई रखी है,
जिंदगी भर की तूने, ये क्या कमाई रखी है ?!

अब हमें मालूम पड़ा, उसकी परेशानी का सबब,
दूसरों से बहुत उसने , उम्मीदें  लगाईं रखी है !

वो पूछते है हमसे, क्या है बुलंदी का राज ?
दिखा दे फिर अदा वो जो, बनी बनाई रखी है !

जहाँ ये देख हैं चुके , जहन्नुम से क्या डरें ?
वहाँ  भी कौन सी बची, नयी  बुराई रखी है ?!

है खेल तेरा क्या , कौन समझ पाया खुदा ?
जादू में गज़ब की तूने , अपनी सफाई रखी है !

जो मुस्कुरादे आज तू ,  है तेरी क्या 'मजाल'  ?
खुशियों की पंडित ने पहले,  तारीख बताई रखी है !

7 comments:

  1. रचना अच्छी है। मुझे नही लगता ये गज़ल बहर मे है। भाव अच्छे हैं। शुभकामनायें।

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  2. 4/10

    तकनीकी चीजों को किनारे कर दें तो आपने ग़ज़ल पढने लायक बना ही दी. कई शेर ऐसे हैं जिनका भाव बढ़िया लगा. कोशिश कीजियेगा शायद ये ग़ज़ल और भी बेहतर बन जाए.

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  3. निर्मला जी की बात सही है...लेकिन ये निराशा का विषय नहीं क्यूंकि गज़ल में भाव पक्ष का बहुत महत्त्व होता है और आपका भाव पक्ष बहुत शशक्त है...लिखते रहिये...सफलता दूर नहीं...

    नीरज

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  4. चलिये खुशियों के सिलसिले पंडितों के बताने से ही शुरु हों पर हों तो सही :)

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  5. आप सभी का ब्लॉग पर आने और प्रतिक्रियाएं देने के लिए आभार

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  6. अच्छे भावों से संयुक्त एक अच्छी रचना।

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  7. अब हमें मालूम पड़ा, उसकी परेशानी का सबब,
    दूसरों से बहुत उसने , उम्मीदें लगाईं रखी है !

    satya hai, duron se ki gayi umeedein hi dukh ka karan banti hain!

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