Sunday, October 31, 2010

हास्य विषय गंभीर !

जब ई मनवा विचलित,
चिंतन होवे अधीर,
पाना चाही सुकुनवा,
जइसन  उड़ती चील !
मति ही मति का ठेंगा,
दिखाईने छोड़त सौ तीर,
उनमे से एक आदि,
निसाना लगत  सटीक !
तब जाकर ई मगजवा,
आवे  बाजन ढीठ   !
आऊर  लगाई ठाहाकवा,
भुलइके  सारी टीस !
ईका  न समझी तुम,
पका पकाया खीर,
कहत 'मजाल' ई ससुरा,
हास्य विसय गंभीर !

राँझा मिलन न हीर ?
फुटवा गया तकदीर ?
काहे शोक मनावत,
जीवन की बाकन रील,
कभी सलमान दबंगवा,
कभी पीटत  हई वीर !
जीवन जइसन अमवा,
चीजन  ई खट मीठ !
जब ई आवत समझवा,
मज़ाक बनत  पेचीद !
तब जाकर ई मनवा,
छोड़त  तनना फीर,  
अऊर  इस तरहवा,
तनाव  पावत  ढील !
कहत 'मजाल' ई ससुरा,
हास्य विसय गंभीर !

Saturday, October 30, 2010

एक गीत - ' जान लेगा कभी ... '

कठिनाई की डगर,
मुश्किलों का सफ़र,
बनके यादें शहद,
देंगी मीठा असर.


जान लेगा कभी,
काम का है सबर.
आप ही कभी खुद, 
करने लगेगा कदर.


आज सोचे जो तू,
है ये सब बेसबब,
जान लेगा कभी,
काम आए हर सबक.

दुनिया में ये जहर,
सब तरफ बस कहर,
दिखता है जो तुझे,
हर पल, हर पहर.
कोई भी ये नज़र,
न बुरी इस कदर,
बात की पूरी जब ,
तुझको होगी खबर.
अपनों के ही लिए,
है ये सारी फिकर,
जान लेगा कभी,
बिन किये ये जिकर...  

खुली हुई नज़र,
से तू देखे अगर,
जान लेगा कभी,
राज़ ये हमसफ़र.
चाहे जितना ग़दर,
चाहे जितना कहर,
दुनिया में है भरा, 
चाहे जितना ज़हर,
प्यार से ही मगर,
बसते सारे नगर,
है जो भी आज तू,
वो बस दुआ का असर

अपनों के ही लिए,
है ये सारी फिकर,
जान लेगा कभी,
बिन किये ये जिकर ....

Friday, October 29, 2010

सारांश

"बिकी हुई दवाई,
नहीं होगी वापस भाई,
न कोई अदल-बदल,
और ना ही,
कोई और दखल !
कृपया दवाई उतनी ही लें,
जिंतनी की चाहिए,
इस तरह अपना मूल्य,
और समय अमूल्य,
दोनों को बचाइये ! "

कहने को एक तख्ती थी लकड़ी की,
जिस पर टंगा था एक विचार,
पर जो इस विचार पर किया जाए विचार,
तो पाइएगा मियाँ 'मजाल',
की छुपा हुआ है इसमें,
कितनें ही सालों का अनुभव,
किसी की जिंदगी का,
पूरा सार !

Thursday, October 28, 2010

शायरी : ना बुरा हुआ, ना बढ़िया हुआ, हुआ वही, जो नज़रिया हुआ ! ( Shayari - Majaal )

ना बुरा हुआ, ना  बढ़िया हुआ,
हुआ वही, जो नज़रिया हुआ !

औरों के लिए, हुई वो मातम,
बीमार तो मरा, और रिहा हुआ !

बच्चा खुश, की सबकुछ है नया ,
बूढ़ा परेशां,  'है सब किया हुआ !'

नाउम्मीदी को सूरज में लगे अँधेरा,
उम्मीद को काफी, एक दिया हुआ ! 

रुकने वाला रुकेगा इंसानियत पर ,
बढ़ने वाला, सुन्नी हुआ, शिया हुआ !

हमें तो मतलब, उम्दा नीयत से,
हुआ बाहमन , या मियाँ हुआ !

रोने से फुर्सत, तब देखे आँखे,
मालिक ने कितना दिया हुआ !

जो हुआ, वो हुआ, की होना वही था,
क्या सोचना 'मजाल', ' ये क्या हुआ' ?!

Wednesday, October 27, 2010

' इश्कियापन्ती ' : हास्य-कविता ( Hasya Kavita - Majaal )

तुझे पाने की हसरत लिए,
हमें एक जमाना हो गया !
नयी नयी शायरी,
करते तेरे पीछे,
देख मैं शायर कितना,
पुराना हो गया !

मुए इस दिल को,
संभालना पड़ता है,
हर वक़्त !
दिल न हुआ गोया,
बिन पजामे का,
नाड़ा हो गया !

मरज में न फरक,
तोहफों में खरच अलग !
इलाज में  खाली सारा,
अपना  खज़ाना हो गया  !

दिल दर्द से भरा,
और जेबें खाली !
ग़म ही इन दिनों,
अपना खाना हो गया !

मुद्दतें हो गयी ,
रोग जाता नहीं दिखता,
अस्पताल ही अब अपना,
ठिकाना हो गया !

तू भी तो बाज़ आ कभी ,
इश्कियापन्ती  से 'मजाल'
पागल भी  देख तुझे,
कब का सयाना हो गया !

Tuesday, October 26, 2010

शायरी - ' कौन पाले ये रोग खाँमखाँ ....' ( Shayari - Majaal )

आधी उम्र  गुज़री, करने में बचत,
बची हुई, करने में उसकी हिफाज़त !

जब मालूम हुआ , तो हुई न हैरानगी,
कटे जिस्म से, पाया गया दिल नदारद !

रिश्तों को निभाने में, सब समझ गयी,
सहीं हों या गलत, बस कीजे वकालत !

हम मालिक एक घर के, हमारी ये गत !
तू मालिक जहाँ का, तेरी क्या हालत !!

'मजाल' पाले खाँमखाँ   ये रोग क्यों ?
ये तख्तो-ताज आपको, बहुत है मुबारक !

Monday, October 25, 2010

भाईसाहब कभी 'नीट' नहीं पीते!

दावा दारु है लिखते संग संग,
राज़ है इसका कुछ कुछ ऐसा,
थोडा मिला कर दिया जाए जो,
 दारु का असर, दवा के जैसा  !

है भेद पर इससे भी कुछ गहरा,
अँधेरी  हद पर बसे सवेरा,
सीधे सीधे समझ न आए,
जिंदगी 'मजाल', खेल है  टेढ़ा !

आए मौसम पतझड़,  सावन,
कई मिले और बिछड़े  साथी,
आए, रुके और बीत गए सब,
पल खुशियों के, या ग़म साथी.

जिंदगी का खेल  पेचीदा ,
उलझन, सुलझन मिल जुल आए,
कभी अपने दे जाएँ  दगा,  और,
कभी बेगाने मदद कर जाए !

सीखा उन्होंने धीरे धीरे,
रम से ग़म,  होता नहीं कम,
पीना  पड़ता, ग़म सीधे ही,
और थोड़े सलीके से सनम.

बदती उम्र ने सिखा दिया सलीका,
बातें  वो, अब दिल पर ले नहीं जीतें,
लेतें है गम, मज़ाक के साथ घोल कर,
कि भाईसाहब कभी 'नीट' नहीं पीते!

Sunday, October 24, 2010

पिता - जिक्र उनका, जो रह जातें है अक्सर बे-जिक्र से ..............

जिक्र उनका लफ़्ज़ों में, जिनसे है सीखे लफ्ज़ ?!
बस खुदा ही समझ लीजिये, इंसान की तरह ...

कुछ इस तरह से देतें, ऊपरवाले को सजदे,
करतें  है अपने काम को, ईमान की तरह !
है छोटा या बड़ा , ये फिकर उनको है नहीं,
लेतें है हर एक चीज़ को, मकाम की तरह ! 
जो कर रहे, उसी को बना लेतें है शगल,
मेहनत बना देतें है , वो आराम की तरह !

मौका हो  चाहे ख़ुशी का, या चाहे मिले ग़म,
कबूलतें सबकुछ, खुदा-फरमान की तरह !
एक जिंदगी का नशा ही, उनके लिए काफी,
पानी भी वो पीतें है, बिलकुल जाम की तरह !


हर कोई चाहे मिलना , माँ के जैसा दुलार,
की गहरा उसका प्यार, कोई खान की तरह,
खुशनसीबियों की  तेरी, इन्तिहाँ नहीं 'मजाल'
की माँ मिली है, बिलकुल अब्बाजान  की तरह !

बारिश से बचाया, कभी किया जाहिर नहीं,
रिश्ता मगर बुनियादी, छत-मकान की तरह !
 पेचीदगी,पोशीदगी, ही है  खूबसूरती ,
हिजाब में छुपी हुई , उस आन की तरह !

बेमिसाली की मिसाल, इससे ज्यादा क्या 'मजाल' ?
जीतें है  जिंदगी वो , बड़ी ही आम की तरह !

Saturday, October 23, 2010

एक ग़ज़ल

बस रश्क, बीमारी, लोगों की दुहाई रखी है,
जिंदगी भर की तूने, ये क्या कमाई रखी है ?!

अब हमें मालूम पड़ा, उसकी परेशानी का सबब,
दूसरों से बहुत उसने , उम्मीदें  लगाईं रखी है !

वो पूछते है हमसे, क्या है बुलंदी का राज ?
दिखा दे फिर अदा वो जो, बनी बनाई रखी है !

जहाँ ये देख हैं चुके , जहन्नुम से क्या डरें ?
वहाँ  भी कौन सी बची, नयी  बुराई रखी है ?!

है खेल तेरा क्या , कौन समझ पाया खुदा ?
जादू में गज़ब की तूने , अपनी सफाई रखी है !

जो मुस्कुरादे आज तू ,  है तेरी क्या 'मजाल'  ?
खुशियों की पंडित ने पहले,  तारीख बताई रखी है !

Friday, October 22, 2010

' लंगोटिया यार ! ' : हास्य-कविता ( Hasya Kavita - Majaal )

एक थे लम्बूद्दीन 'लंब',
हम कहते नहीं है दंभ,
थे वो इस कदर लंबे,
पाँव जैसे खंबे !
हाथ जैसे कानून,
ये लंबे, ये ssss लंबे !

एक थे मोटूराम  'मोटी',
हम देतें नहीं गोटी,
तोंद उनकी ये मोटी,
ये ssss भयंकर  मोटी,
की  साक्षात 'मोटा' शब्द,
उनके समक्ष  लगता था दुबला !
हर तबीयत, हर तंदरुस्ती,
उनके सामने थी खोटी !

'लंब' और 'मोटी' मिले जिस दिन,
ज्ञानी  जन  कहते है की उस दिन,
नक्षत्रों का बना विचित्र योग ,
ऐसा संयोग अत्यंत दूभर,
आंकड़े ऐसे , परे  सब मति,
यदा कदा, सदियों में, होती ऐसी युति.

हुआ लंब और मोटी का मिलन जब ,
धरे के धरे रह गए, सारे तर्क विज्ञान,  सब ज्योतिषी,
व्याकरण रह गया ताकता फटी आँख ,
संधि  के नियमों को पहना दी गयी टोपी ,
'ब' और 'मो' मिलकर  हुआ 'गो'
लंब 'धन' मोटी बन गया 'लंगोटी' !

यारी दोनों  की चढ़ी वो परवान,
की नीचे रह गए सारे वेद कुरान ,
उठी इंसानियत, बन कर सरताज,
नयी दिशा, जीवन का नया आगाज़,
बस प्रेम बना सत्य अंतिम ,
बाकी सब बातें बेकार,
और शुरू प्रचलन नया  मुहावरा,
तू  है मेरा 'लंगोटिया यार' !

Wednesday, October 20, 2010

हास्य-कविता : ' उर्दू शायरी की तरह तुम, प्रिय ! ' ( Hasya Kavita - Majaal )

क्लिष्ट !
गूढ़ !
उलझी हुई !
मुश्किल !
पेचीदा !
मगर दिलचस्प !
उर्दू शायरी की तरह तुम, प्रिय !
समझ में तो,
कम ही आती हो,
मगर,
पढ़ने  में तुम्हें ,
मज़ा बहुत आता है !
कुल मिला कर,
कुछ खास,
पल्ले तो नहीं पड़ता,
मगर,
कोशिशों में,
समझने के,
प्रयासों में तुम्हें,
वक़्त तुम्हारे साथ,
अपना  खूब कट जाता है !

उर्दू शायरी की तरह तुम,
प्रिय !

Tuesday, October 19, 2010

' शोक न कर, खेद न कर ! ' : हास्य-कविता ( Hasya Kavita - Majaal )

जो हो गया, सो हो गया,
शोक न कर, खेद न कर,
क्या ?क्यों ? कैसे ? सोच कर,
दिमाग की संधि विच्छेद न कर !

टीना नहीं, मीना सहीं,
मीना नहीं, लीना सही,
जो मिल गया, वो मिल गया,
जो ना मिला, वो ना सहीं !
सम्मान कर तू रूप का,
यौवन में कोई भेद न कर !
शोक न कर, खेद न कर ...

जिंदगी में वैसे ही बहुत,
ग़मों का लगा अंबार है,
दुखों से पहले ही बहुत,
भरा  हुआ संसार है,
पहले से फटी जिंदगी,
फटें में तू और छेद न कर !
शोक न कर, खेद न कर ...

ग़म को न दे तवज्जो तू ,
ख़ुशी से न तू फूल जा,
बस ले मज़ा हर  पल का एक,
जीवन है झूला, झूल जा !
यादों को याद कर कर के,
क्या भला तू पाएगा ?
बढेगा बस दुख ही तेरा,
बस सोच कर थक जाएगा.
इसलिए मियां 'मजाल',
विचारों  की परेड न कर !
शोक न कर खेद न कर ...

माना की हर कदम इसके,
मुसीबतें और आफत है,
मगर प्यारे, जहाँ जिन्दा,
अपनी जाँ जब तक सलामत है !
अभी सजी हुई बाज़ी,
अभी तो तू न हारा है,
बीच में यूँ छोड़ना,
'मजाल' न गवाँरा है,
बाकी अभी फिल्म बहुत,
'interval ' में ही 'the end ' न कर  !
शोक न कर, खेद न कर ....

Monday, October 18, 2010

' काण्ड !' : हास्य-कविता ( Hasya Kavita - Majaal )

'आपकी रचना की तिथि अगस्त ,
और मेरी  वाली की,
महीना जुलाई है,
परवाना  होता है,
 शमा में भस्म,
ये बात मैंने आपसे,
पूरे एक महीना पहले,
पता लगाई है...'

मैंने देखा,
जनाब सामने खड़े थे,
सेहत सींकिया ,
पर तेवर पहलवानी,
चहरे पे छाया था,
मातम नाकामयाबी,
कारण भी साफ़ सा,
दीखता था आसानी,
की हुनर फुटपाथिया,
पर ख्वाब आसमानी !
लड़ने का मूड है,
जता चुके थे,
समझ कितनी रखते खुद की,
खबर कितनी दुनिया की,
परवाने का उदाहरण देकर,
बता चुके थे !
'ये  खूब रही की आपकी,
और हमारी सोच मिल पाई,
नहीं तो इसने कब,
किसी से लम्बी निभाई ?
कभी आपके पास गयी,
कभी हमारे पास आई,
सोच चीज़ ही तवायफ,
किसकी सच्ची लुगाई ?!
अब मिलें है किस्मत से हम,
तो खुशियाँ मनाइए,
लगिए गले,  कीजिये ख़त्म ,
बात क्यों आगे बढ़ाइए ? ..'

 'बात को यूँ,
 हलके में न लीजिये,
गर चोरी करने की,
 रखते है 'मजाल',
तो कबूल करने के,
हौसले भी साथ रखिये ,
आप तो बात से,
साफ़ मुकर जातें है,
ऊपर से सोच की,
खिल्ली उड़ातें   है,
नहीं सीखा क्या आपने,
कदर-ए-हुनर करना,
माँ-बाप से क्या,
यहीं संस्कार पातें है .. ?'

अब यूँ तो 'मजाल',
सीधा-सच्चा प्राणी,
न छुए शराब,
न ताके नारी,
पर जो बात पहुँच जाए खानदानी,
फिर तमीज गयी तेल लेने,
शरम भरने पानी !
भूल जाए मियाँ  'मजाल' तब सब कुछ,
और दिखा  दें फिर जात,
 शायराना अपनीवाली   !

' भाई हम तो बजा ही फरमा  रहे है,
तेवर तो आप ही  दिखा रहे है,
अब  खानदान का जिक्र,
कर दिया तो सुनिए,
'मजाल' आपको,
पूरी कहानी सुना रहे है'

'माँ-बाप ने तो बताया,
हमने बस इतना,
की बेटा 'मजाल',
आदमी चीज़ है अदना,
खुदा ने पूरी दुनिया,
चुपचाप बनाई,
बिना जिक्र छेड़े,
बिना दिए दुहाई,
पर आदमी की हजूर,
क्या कहिये तबीयत !
जरा कुछ हुआ नहीं,
की बात तेरे-मेरे पर आई !
जो ऊपर वाला किसी दिन,
आ गया हिसाब मांगने  पे,
तो लूट जाएगी पूरी सल्तनत
निभाने में,
रस्मों मूंह दिखाई !
इसलिए मेरे भाई,
छोड़ो  ये खांमखां  की लड़ाई,
बनाया उपरवाले ने सब कुछ ,
न लगी आपकी कुछ ,
न मेरी कमाई !'

'व्यर्थ की बातें न बनाइये,
ऊपर वाले को बीच में न लाइए,
इलज़ाम लगा है आप पर,
बात को उससे आगे न बदाइए
सीधे कबूलें चोरी तो बेहतर,
नहीं तो हमसे,
कानूनी नोटिस पाइए '


'हद करतें है साहब !
क्या कहना चाहतें है आप ?
क्या ब्रम्हा  ने ये रचना,
सबसे पहले क्या,
 कानों में आ कर सुनाई थी ?
आपको क्या लगता है,
पहले प्रेम की बाती,
क्या आपने जलाई थी ?
आपसे पहले किसी को सूझी नहीं ?
परवाने की शहादत परंपरा,
अपने घर से  शुरू करवाई थी ?!
सदियों से चल रही है ये बात,
हज़ारों बार हो चुका है ,
इस्तेमाल हर जज़्बात,
मौलिक तभी तक चीज़ कोई ,
जब तक की उसका,
स्रोत न हो ज्ञात !
अभी भी कोई भरम है,
तो मुगालातें दूर करवाता हूँ,
थोड़ी महोलत  दीजिये नाचीज़ को,
अभी दो मिनट में अंकल गूगल से ,
आपकी बाकी सारी रचनाओं की,
'प्रेरणाओं' का भी पता लगाता हूँ !'

' अरे अरे !
कहाँ चले ?!
कानूनी नोटिस तो देतें जाइए !
हमें  भी तो चले पता,
आखिर क्या होती है सख्ती !
सहीं कहते है आप जनाब,
चुराई  ही होगी,
क्यों आप जैसों से,
अपनी सोच तो,
यकीनन  नहीं मिल सकती .. ! '

Saturday, October 16, 2010

' गुब्बारा ! ' : हास्य-कविता ! ( Hasya Kavita - Majaal )

टीवी पर क्रिकेट मैच,
बीच विज्ञापन आया,
सामने सुन्दर बाला,
'अरे वाह ! पटाखा !',
'गदगदा बदन,
जैसे गुदा हुआ आटा  !
सूरत इसकी काफी,
मिलती जुलती 'ज्योति',
उन दिनों जो हम ,
दिखा देतें थोड़ी हिम्मत ,
कमबख्त आज,
वो शायाद  अपनी होती !'

'अरे, ये किचन में,
आवाज़ कैसी  आई ?
ओ तेरी  ! फिर भूला,
लाना चूहा दवाई !
दवाइयों की कीमत,
है आसमान छूती,
पगार वहीँ पुरानी,
कैसे कटेगी  रोटी ?!
और बेटी की भी शादी,
करनी है कुछ बरस में,
जिंदगी है बीती ,
खरच ही खरच में !

जिंदगी भी देखो,
क्या चीज़ ये अजब है,
कोई बिज़ी बिज़ी बस,
कोई जीता बेसबब है!
कोई साहिल किनारे,
कोई लगता गोता,
कौन क्या है पाता,
जाने कौन क्या है खोता ?
हम भी कर लेते कुछ तो,
जो मिल जाता एक मौका,
अरे हो गया मैच  शुरू,
ये लगाया चौका !

एक मिनट की मौहलत ,
आधी दुनिया घूम आया यारा,
बची भी नाप देगा,
जो  छोड़ दोगे उसे दोब्बारा ,
अंट संट जाएगा,
जो बिन बांधे छोड़ा,
मन कमबख्त 'मजाल' ,
है एक ऐसा गुब्बारा !

हास्य-व्यंग्य कविता : 'अनूठे लाल' फकत, 'अजीब अली' हो गए ! ( Hasya Vyangya Kavita - Majaal )

अनूठे लाल नाम से ही नहीं,
काम से भी अनूठे,
सब कुछ चखें जीवन में,
ताज़ा या झूठे.
शराब, शबाब, कबाब,
मिला बेहिसाब,
फिर भी जितना खाए साहब,
रह जाए भूखे  !

एक दिन एक बाह्ममन से,
पड़ गया पाला.
उसने लाल साहब पर,
मौका देख जाल डाला.
' यजमान, थोड़ा करिए संकोच,
कुछ तो शर्माइये,
इस उम्र में यह हरकते,
देती नहीं शोभा,
अंतिम पड़ाव निकट है,
अब तो सुधर जाइए.
थोड़ा दान पुण्य करें,
तो बात बने.
करम दुरुस्त हो आपके,
जो थोड़ा व्रत धरें.
नारी को एक ही द्रष्टि से,
देखना करेगा व्यथित,
मुंहबोली  ही बना लें जो,
एक बहिन, तो उचित ...'

अनूठे लाल को पंडित की,
बात कुछ जमी.
सोचा ससुरा पण्डवा ,
बोलता तो बात सहीं.
इस जिंदगी के दिनों का तो ,
गिना चुना ही बचा दर्जा,
आगे की व्यवस्था भी, जो कर लें,
तो क्या हर्जा  ?!

अनूठे लाल के मिजाज़,
अब कुछ यूँ पाए जातें है.
गुरूवार हनुमान जी के लिए निर्धारित है,
इसीलिए, बुधवार को थोड़ा,
ज्यादा कबाब खा जातें है !
' उपवास रखा है आज ! ' ,
आधी दुनिया को बतातें  है.
रोजाना जितना अन्न,
नहीं खाते जनाब,
उपवास के दिन वो ,
उससे ज्यादा भाव खा जातें है !
मुहबोली बहिन से तो,
रखते है दूरी पर,
साथ साथ,
उसकी पड़ोसन से,
अनामी संबंध भी,
श्रद्धानुसार निभातें है !
पंडित दोष न निकले,
इसीलिए उन्हें भी,
उचित दक्षिणा दे,
अपना  स्वर्ग सुनिश्चित करातें है !

कमबख्त तबीयत !
फिर वही कहानी दुहराती.
ढाक के निकलते ,
आखिर में वहीँ तीन पाती !
कुछ भी कर लो,
जुगाड़ मेरे यार,
पुरानी आदतें  मगर,
'मजाल' नहीं जाती !


नीयत  न हुई सही,
तबीयत वहीँ की वहीँ,
किस्से साहब के गली गली,
मशहूर हो गए.
लोग कहते है ,
क्या खूब बदले हजूर-ए-आला !
'अनूठे लाल' फकत,
'अजीब अली' हो गए !

Friday, October 15, 2010

जिंदगी - दे दिए इम्तिहाँ सारे पढ़ाई समझ के .. !

ख़ुशी मिली, तो खा गए, मिठाई समझ के,
जो ग़म मिला, तो खा गए, दवाई समझ के !

किया दोस्तों को माफ़, बवाफ़ाई समझ के,
दुश्मनों को भी दी माफ़ी , छोटा भाई समझ के !

अच्छा वक़्त काटा, हुनर नाई समझ के,
बुरे वक़्त को भी काट दिया, कसाई समझ के !

सारी मौजों को निभा गए, शहनाई समझ के,
मुसीबतों को भी निभा गए, बूढ़ी माई समझ के !

मिली दाद, तो भुला दिया बढ़ाई समझ के,
जो तोहमत लगी, भुला दिया लड़ाई समझ के !

जिंदगी को चख़ लिया  मलाई समझ के,
मौत को भी चख लिया रिहाई समझ के !

बेशक़ वाकिफ थे, नतीजा-ए-जिंदगी 'मजाल',
पर सारे इम्तिहाँ दिए , पढ़ाई समझ के !

Thursday, October 14, 2010

' च न क ट ! ' - हास्य-कविता ( Hasya Kavita - Majaal )

उफ़ !
वह समय !
जब तवम,
यह जगत,
उपसथत !

तवम परम जड़ मत !
सब यतन-जतन,
सब  गरह,
तवम समक्ष,
असफल !
' यह मम रच ?! '
सवयम भगवन अचरज ! 

यह बड़ कद कठ,
न कम धम करत ,
बस धन खरच,
खपत खपत फकत !
हमर नक दम,
जब तब !

कमबखत !
करम जल !
हम गय पक ! 
समझ यह  हद !
अब जल सर चढ़ !
हमर सबर ख़तम !

अगर अब करत उलट पलट !
तवम पठ, हमर लठ !
बक बक न कर,
हम धर, 
एक चनकट !

Wednesday, October 13, 2010

एक कविता मौत पर - ' मृत्यु दर्शन'

खुद से, दूसरों से, 
कभी जिंदगी से लड़ते है,
जाने या अनजाने, 

अन्दर इक तैयारी करते है.
जानते की अंजाम बुरा, 

सुनते मगर कब है?
कोई जल्दी, कोई देर से, 

थकते मगर सब है.
दमा, दिल का दौरा, 

लकवा, गुर्दे ख़राब,
लफ्ज लगते है जुदा, 

सबका मगर एक हिसाब.
सुझानी हकीम को कोई वजह,

तो कहता, 'की इसलिए',
बात दरअसल ये थी,

'जियें तो जियें किसलिए ?!'
अपने अपने ढंग से सब,

मौत की ओर सरकते है,
कौन मरता कुदरतन 'मजाल',

सब खुदखुशी ही करते है!

Tuesday, October 12, 2010

' माल-ए-मुफ्त, दिल-ए-बेरहम ! ' : हास्य-कविता ( Hasya Kavita - Majaal )

वाह साहिब !
क्या मुश्किल आपकी !
क्या विकट स्तिथि, क्या भरम ?!
शुरू करें मीठे से,
या चखे  पहले खमण !

रसगुल्ला न गटका,
तो क्या दावत उड़ाई ?!
डाईबटीस जाए भाड़ में,
थोड़ी सी रसमलाई  !

मियां 'मजाल' रह रह कर,
दिमागी अटकलों में उलझ जाएँ ,
शाही पनीर आजमाए,
या कोरमे पर शौक फरमाए  ! 

 न छोड़ी नान,
और तंदूरी रोटी भी खाई,
पेट ने डकार मार दिया संदेसा,
पर थे अपनी धुन में भाई !

इमरती नरम,
गुलाब जामुन,
गरमा गरम !
माल-ए-मुफ्त,
दिल-ए-बेरहम !
सूते जाईये  'मजाल',
समझ के, खुदा का करम !

कॉफ़ी  की भी मारी चुस्कियाँ,
कोका कोला  भी पेट में उड़ोला  !
ठंडे , गरम का न किया लिहाज़,
भाई ने किसो को नहीं छोड़ा !

समापन समारोह में भी,
तबीयत कब शरमाई ?!
पान भी चबा गए कई,
शिकंगी भी खूब भराई !

सोचा था हजूर ने,
मौका है न गवाओं,
एक सौ एक का,
लिफ़ाफ़ा  थमाया है,
कम से कम दौ सौ का तो,
माल उड़ाओ!

पर किस्मत  ने करी चोट,
तबीवत ने दिखाई  चतुराई !
अगले दिन सुबह सुबह ,
पेट ने दी दुहाई !

पार्टी में वसूली का,
नुस्खा न काम आया,
डाक्टर ने अलग से,
घुसेड़ा  इंजेक्शन,  
दवा ने अलग,
अपने वास्ते ,
पाँच  सौ एक का,
शगुन लगवाया !

Monday, October 11, 2010

' परम !!! ' : हास्य-कविता ( Hasya Kavita - Majaal )

'मजाल' का ख़याल,
खुद के बारे में बेमिसाल !
हम में दम !
हम है बम !
कौन हम सम ?!
हम है हम !!
 
निकले मियाँ घर से,
सीना फूला अकड़ के,
अपनी ही धुन में,
हजूर-ए-दबंग !

सामने दिखा एक,
खेलता हुआ बच्चा,
उसी पे लगे,
उड़ेलने अपना रंग !

' सुन ऐ बच्चे,
 अक्ल के कच्चे,
तू  क्या समझेगा,
जिंदगी के माथा पच्चे !
बाकी सब है फर्जी,
बस हम है सच्चे !

हम रूस की तोप !
हम इटली के पोप !
हम कहते है गहरी,
हमारी बातें गोप !

हम हम,
हम हम,
बस,
हम ही हम !

क्या आख्ने तकता है ?
शायरी समझता है ?
हम है शायरे आज़म !
क्यों नहीं सलाम करता है ?! '

' इतने सारे हम,
फिर भी  पड़ जाए कम ?!
अंकल, ऐसे हम से बेहतर ,
जितना बचे हम !
आपको बहुत मुबारक,
आपके रंग ढंग,
हमें खेलने दीजिये ,
न करिए तंग !'  

' अरे नादान,
हमसे गुसाखी करता है ?
क्या पता नहीं तुझे,
कवि क्रान्ति गढ़ता  है !
हमारी सोच जिस दिन ,
दुनिया अपनाएगी,
ये धरती जन्नत,
तब से बन जाएगी.
पर जैसे टुच्चे लोग,
वैसी  ही सोच तुच्छ ,
क्या समझेंगे वो,
हमारे विचार उच्य  !
हमारी सोच की क़द्र नहीं,
दुनिया पे गिरे गाज !
सुनाता कौन है आखिर,
नक्कारखाने  में तूती की आवाज़ ! '

' समझ गए अंकल हम,
आप है महान !
क्यों खामखाँ यहाँ करते,
अपना अमूल्य ज्ञान कुर्बान ?!
हमारे है बस दो,
आपके चार कान !
फिर भी कम पड़ जाता,
जितना करो गुणगान !

हम आप के पाँव की जूती,
हम नक्कारखाना , आप तूती !
ढूंढें  नहीं मिलेंगे, आप जैसे निराले,
आप अद्वितीय ! आप बिराले !
बखूबी समझ गए हम ,
की आप न है समझने वाले,
तूतिये  है आप 'मजाल' ,
और वो भी बड़ेवाले !'

जो बच्चे ने दी सीख ,
तब हुए तेवर  नरम,
सीख गए अब हजूर ,
खुद को करना हज़म !
मुगालतों  से निकलिए,
छोड़िए पालना भरम,
वर्ना मियां 'मजाल',
कहलाइएगा   ' परम !!! '

Sunday, October 10, 2010

कट्टी पुच्ची : बाल-कविता ( Bal Kavita - Majaal )

जितना हो सके, उत्ती कर लें,
झूठी नहीं, सच्ची मुच्ची कर लें,
ग़म से कर ले, हम कुट्टी ,
और खुशियों से , पुच्ची  कर लें !

ग़म होती है, गन्दी चिज्जी,
ख़ुशी होती, चिज्जी अच्छी,
अच्छी  अच्छी,  करें पक्की,
गन्दी को, हम 'छी छी' कर दें !


मिल जुल कर रहे सदा हम,
न लड़े, न हो खफा हम,
गुस्सा आए, तो उसे हम ,
माँ जैसी प्यारी, थप्पी  कर दें !

हँसता चेहरा सबको जँचता,
लगता सबको अच्छा अच्छा,
जैसे गोलू मोलू बच्चा,
सबको लगता - पप्पी कर दें !

Saturday, October 9, 2010

' धत !!! ' : हास्य-कविता ( Hasya Kavita - Majaal )

' धत !!!'  - कलात्मक हास्य (बिना मात्रा )

' तब कब ? '
' कल ! '

'तवम न अवगत,
वह कहवत -  न टल कर पर, कर अब ! 
तवम इक इक हरकत,
हमर प्रण हर !
तवम अधर - रस रस !
सब इनदरय तड़पत फड़ फड़ !
न बन हरदय पतथर !
बस एक,
एक बस !
लब पर लब सपरश ! '

'यह समय ?
न प्रशन !'

' तब कब ? रत बखत ? '

' धत  !!! '

Friday, October 8, 2010

' कुछ तोबी ! ' : हास्य-कविता ( Hasya Kavita - Majaal )

बचपन में खेलते थे, हम एक 'खेल',
खेल था 'मजेदार', पर था बेमेल,
मजेदार क्यों था, ये तो न 'पता',
पता जाए भाड़ में, 'मज़ा' तो उसमें था !
मज़ा यूँ बनता था, की लो एक 'वाक्य',
वाक्य से एक छांट शब्द, 'खीचो' उसे आप,
खीचो उसे  आप, 'मतलब' निकले या नहीं,
मतलब जब  'हवा' , आखिर तभी निकले हसीं !
हवा के कारण जीवन, नहीं तो हम 'मरते',
'मरते क्या न करते', हिंदी मुहावरे 'अच्छे '!
अच्छे तो  वो है, पर है वो 'बच्चे',
बच्चे, कच्छे जैसे शब्द  'तुकबंदी' जचतें !
तुकबंदी का मतलब, एक जैसे 'स्वर',
स्वर 'कोकिला' होती है, लता मंगेशकर !
 कोकिला है गर वो, तो क्यों न रहती 'जंगल' ?
'जंगल में 'मंगल'' थी पिक्चर भयंकर !
मंगल ग्रह में सुना है, 'बस्ता' है जीवन,
बस्ता भारी है, ये कहता है 'मोहन' !
मोहन प्यारे जागो, की 'सुबह' हो गयी नंदलाला,
सुबह का भूला लौटे शाम, 'भूला' नहीं कहलाता !
भूला मैं ख़ुशी, अब बस याद 'ग़म',
ग़म से चिपकता नहीं , टूटा 'ह्रदय' सनम !
हृदय की बीमारी, का आज 'कल' प्रकोप,
कल कल करती है नदी, देती मुझको 'होप' !
होप अंग्रेजी शब्द, मतलब जिसका 'आशा',
आशा मेरे कॉलेज में, थी वो आइटम 'खासा' !
खासा क्यों तू , कहीं तू ग्रसित तो न 'टीबी' ?
टीबी तो नहीं, पर 'भाई', मैं पीड़ित बीवी ! 
भाई की मेरन गयी सटक, 'कहत'  वह गाजर को गोभी,
कहत 'मजाल' - 'ससुरा ई  जिंदगी ही चीज़ कुछ तोबी !'

Thursday, October 7, 2010

'ग़ोश्त' - काला हास्य (डार्क ह्यूमर / ब्लैक कॉमेडी )

'छिनाल है, पर माल है !',
ऐसा लोगों का, उसके बारे में,
ख्याल है.

हमने तो जितना देखा,
ठीक ही लगती है हमें,
लोगों को जाने क्यों,
उससे इतना ऐतराज है ?
  
'आपकी तो निकल पड़ी 'मजाल',
उसका संदेसा आया है,
हमें तो कमबख्त ने कभी,
दिन में भी नहीं पूछा,
आपको बड़ा रात को,
खाने में बुलाया है !
सुना है,
बहुतों को खुश कर चुकी है,
आप भी आजमाइए,
और अगले दिन, रात की कहानी,
हमें भी विस्तार से सुनाइए !'

रात का वक़्त था, उसका घर था,
हम थे अन्दर, बाहर अँधेरा,
एक छोटा सा, गोलमटोल बच्चा था उसका,
और निपट अकेली, वो थी बेवा.

बातें करते करते,
वो जरा कभी मुस्कुराए,
हमारा सोचना शुरू,
सोच कुलबुलाए, 
'क्या  मंसूबे बना रहीं है ?
पानी पिला रही  है,
तो क्यों पिला रही है ?!
चाहती क्या है आखिर ?
अन्दर क्या पका रही है ?'

उलझन भी यूँ बड़ी,
अजीब थी दोस्त,
एक तरफ कवि ह्रदय,
एक तरफ ग़ोश्त !
बदन में खरोच के निशाँ,
पर व्यवहार निर्दोष !
कमर में कुदरती लोच,
तो आँखों में भी संकोच !
'मजाल' बांधे मंसूबे,
या करें उन पर कोफ़्त !

पर अब 'मजाल' भी,
खोपड़ी शायराना,
कब तक आखिर सोच,
उधार की खाए ?
सामने थी वो,
हकीकत सी जाहिर,
कब तक फन्ने खाँ,
ख्याली घोड़े दौडाए ?

सोच चीज़ कुत्ती, वो भी पूरी पागल,
बच के रहिएगा,चोट कर जाएगी ,
खुद तो मरेगी ही काट कर आपको,
आपको भी मगर, पागल कर जाएगी !

जो जैसा है, वो है वैसा क्यों ?
छोड़िये जनाब, क्यों अक्ल  लड़ाइए ?
सामने बैठा था, गोलमटोल बच्चा,
चलिए, इसी से खेल कर,
अपना दिल बहलाइए !

जेब में रखी थी, हमने कुछ टॉफी,
उसको दी, और फिर दिल खो गया.
लगे फिर हम उसको कहानी सुनाने,
उसने सुनी ऐसे, की सुचमुच हो गया ! 
रखिये समझ को , बच्चो सा सरल 'मजाल',
टॉफी मिली, और बच्चा खुश हो गया !

अब हमने फिर से बेवा को देखा,
अब कुछ बैचनी न थी मगर,
अब बस करार था.
जिस्म में उसके, अब भी वही उभार था,
पर शायद नदारद,
अब हमारा विकार था ?!

अन्दर पनपी थी, एक सोच  कमीनी ,
खामखा वो हमें खा रही थी,
'ग़ोश्त' तल रहा था,
कोई हमारे ही अन्दर,
जो बदबू थी पकने की,
वहीँ से आ रही थी...

' तो मियां 'मजाल', कैसी रात बिताई ?
हुई कुछ वारदातें, कोई हाथापाई ?!
हमें भी किस्से रात के,
तबीयत से सुनाइये !'

'बोलने को तो जनाब, हमारे पास बहुत है,
पर क्यों इस तरह, वक़्त को गवाइएँ ? 
छोड़िये खुराफाती सोच को दौड़ाना,
लीजिये, खाइए टॉफी, और खुश हो जाइये   !'

Tuesday, October 5, 2010

मौत - ब्लैक कॉमेडी (काला हास्य)

पड़ा वक़्त का कोड़ा,
सरपट दौड़ा घोड़ा,
कभी धीरे मरोड़ा,
कभी अचानक हथौड़ा,
सब एक झटके में तोड़ा,
काम न आया जोड़ा,
फुन्सी बनी फोड़ा,
सयाना हुआ निगोड़ा,
कोई नब्बे, कोई सोला,
हो शर्मा या अरोड़ा,
करके थोडा थोडा,
पूरा पूरा निचोड़ा,
मौत ने ऐ 'मजाल',
कहाँ किसी को छोड़ा...

Monday, October 4, 2010

मोटूराम ! बाल कविता (हास्य) ( Bal Hasya Kavita - Majaal )

मोटूराम ! मोटूराम !
दिन भर खाते जाए जाम,
पेट को न दे जरा आराम,
मोटूराम ! मोटूराम !

स्कूल जो जाए मोटूराम,
दोस्त सताए खुलेआम,
मोटू, तू है तोंदूराम  !
हमारी  कमर, तेरा  गोदाम !

तैश में आएँ मोटूराम !
भागे पीछे सरेआम,
पर बाकी सब पतलूराम !
पीछे रह जाएँ मोटूराम !

रोते घर आएँ मोटूराम,
सर उठा लें पूरा धाम,
माँ पुचकारे छोटूराम,
मत रो बेटा , खा ले आम !

जब जब रोतें मोटूराम,
तब तब सूते जाए आम,
और करें कुछ, काम न धाम,
मुटियाते जाएँ मोटूराम !

एक दिन पेट में उठा संग्राम !
डाक्टर के पास मोटूराम,
सुई लगी, चिल्लाए ' राम' !
' राम, राम ! हाए राम !'

तब जाने  सेहत के दाम,
अब हर रोज़ करें व्यायाम,
धीरे धीरे घटा वज़न,
पतले हो गए मोटूराम !

Sunday, October 3, 2010

वक़्त ही वक़्त, जिंदगी कमबख्त ! ( Shayari - Majaal )

वक़्त ही वक़्त है,
जिंदगी बड़ी कमबख्त है !

मिलना हो सुकूँ, तो मिले आज,
पड़ी जरूरत सख्त है !

ख़ुशी क्या ?  ग़म है क्या ?
बस ख़याल हीं तो फक्त  है !

नाम नवाब , और काम गुलाम,
मामला पेचीदा, ताजो-तख़्त है !

और क्या ढूंढें 'मजाल' ?
बस खुदी की शिनख्त है !

Saturday, October 2, 2010

लाल बत्ती, हरी बत्ती - हास्य कविता ( Hasya Kavita - Majaal )

लाल बत्ती पर हमारी गाड़ी रुकी हुई थी,
सामने थी एक हसीना,
नज़रे उसी पर गढ़ी हुई थी,
थोड़ी महोलत थी, तो निभा रहे थे,
अधूरे ही सही, दिल में मंसूबे बना रहे थे !

तभी पीछे से एक स्कूटी वाला आया,
कट मारा ऐसा,
खुदा ने ही  बाल बाल बचाया,
हमने देखा आसमान की तरफ,
तो मानो सूरज मुस्काया,
"क्यों बच्चू, और टापेगा? अब मज़ा आया ?!"

पट्ठे को शायद, कुछ ज्यादा ही जल्दी थी,
जरूरत से ज्यादा जोश दिखाया.
न देखा आव, न ताव ,
पूरी रफ्त्तार में स्कूटी  भगाया,
आगे बत्ती  पर रुका था एक पहलवान मुस्टंडा,
उसको टकराके, गिराते हुए,
स्कूटी  वाला  भाई, आगे निकल आया !

पहलवान भाई पहले संभाला, फिर गुर्राया,
"ओं तेरी की ! रूक !", पूरी रफ़्तार से,
अपनी फटफटिया को, स्कूटी के पीछे दौड़ाया,
पीछा कर उसको दबोचा, और जड़ दिया घूँसा,
स्कूटी  वाले जनाब को, उनके  हेलमेट  ने,
जहाँ तक संभव हो सका, बचाया !

बाईक  पटकी एक तरफ फिर,
और गालियों का ताँताँ  लगाया,
एक से बढ़  के एक चुनिन्दा सुनाई,
गोया मस्तराम ने ग़ालिबाना अंदाज़ पाया !

अब एक तरफ सीकिये की सिफारिश ,
दूसरी तरफ पहलवान की बदले की रट,
एक तरफ पिद्धि स्कूटी,
दूसरी तरफ भयंकर बुललल्लट !
हमने सोचा, आज तो लग गयी,
स्कूटी वाले भैया की नैया  तट !

सब लोगों की उत्सुकता भी बढ़ गयी थी,
मुफ्त की फिल्म थी, सबने  टिकट कटवाया !
पर बेचोरों का मज़ा किरकिरा हो गया,
जोहीं स्कूटी वाले ने अपना हेल्मट हटाया,
" ओए  बिट्टू तू !!! ", स्कूटी वाला चिल्लाया !
कमबख्त   किस्मत हो तो ऐसी,
बुलटिया पहलवान सींकिया का,
पुराना लंगोटिया निकल आया !

अब तो नजारा ही बदला हुआ था,
प्यार की प्यार उमड़ रहा था,
पहलवान का चेहरा ख़ुशी और शर्मिंदगी के,
विचित्र मिश्रण से चमक रहा था !

शर्मिंदगी कुछ ज्यादा पनपती दिखी,
शायद सोच रहा था,
भाई पे खांमखां हाथ उठाया,
जो कर लेता थोडा इंतज़ार,
तो बला खुद ब खुद टल जाती,
कितनी देर टिकती आखिर,
गुस्से की लाल बत्ती,
थोडा सब्र करते 'मजाल' ,
तबीयत और बत्ती,
दोनों अपने आप हरी हो जाती !

जिंदगी के अन्दर एक अजीब सी  बेकरारी है,
अन्दर घुटती है, बेकाबू हो जाती है,
जो लगता प्यार,  और कभी दिखता  है फसाद,
वो दरअसल है,
फ़क्त,
दबी हुई खवाहिशें जिस्म की ,
जो बाहर आना चाहती हैं,
जीना चाहती है खुद को,
थोड़ी ताज़ी हवा खाना चाहती है   ....

इसलिए कहते है जनाब,
जिंदगी को जरा करीब से आजमाइए,
हर पहलवान में, छुपा है एक 'बिट्टू',
उसको जरा उभार कर लाइए !
गोली मारनी है तो, मारिये  फसाद को,
और सुकूँ की ताउम्र कैद का लुत्फ़ उठाइये !

तो सौ बात की एक बात,
जब हो अरमानों की तादाद,
और तय न कर पाएँ आप,
बीच प्यार या फसाद,
तो गले मिलिए हजूर,
कीजिये खाक रंजिश को,
नतीजा 'मजाल',
सोचते रहिएगा बाद !

Friday, October 1, 2010

'यूँ बेहतर ! यूँ बेहतर !' - हास्य कविता ( Hasya Kavita - Majaal )

ज्यादा खाने से तो,
थोड़ा कम बेहतर,
खाना कम बेहतर,
की हज़म बेहतर !
कभी कभी खाना,
भी ग़म बेहतर,
ग़म बेहतर पर,
न हरदम बेहतर!

है वो बेहतर,
या मैं बेहतर ?
वो भी अच्छा,
पर हम बेहतर !
बेहतर-ए-बेहतरीन से,
भरी है महफ़िल,
तुकबंदी में मगर,
हम भी न कम बेहतर !

पहले अच्छा और,
फिर उससे बेहतर,
धीरे धीरे ही बनते,
सबसे बेहतर.
अब सबसे बेहतर भी,
यूँ तो क्या बेहतर (?)
की जो सोचने लगे,
'अब क्या इससे बेहतर ?!' 

जो हम बेहतर,
तो है बेहतर,
जो  वो बेहतर,
तो क्यूँ  बेहतर ?!
जिंदगी और शायरी  की,
एक सी हालत 'मजाल',
नज़र पड़ी जो आज,
' कि यूँ बेहतर ! कि यूँ बेहतर ! ' 
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