Thursday, December 23, 2010

हास्य : प्यार, मोहब्बत और शायरी-ए-Fusion ( Shayari - Majaal )

जितना पुराना, उतना divine ,
प्यार है गोया  कोई wine !

जबतक बच्चों को लगे न रोग,
तब तक इश्कबाजी है fine !

प्यार की कीमत पता चली,
blank चेक  पर किया जब sign !

अब तो तू  हो जा मेरी,
उम्र होने को ninety nine !

हसरतों में निकली 'मजाल',
जिंदगी ने कभी दी ना line !

Tuesday, December 21, 2010

शायरी ( Shayari - Majaal )

बस खयालों में ही जिंदगी न गढ़ी जाए,
बातें कुछ तजुर्बे से भी कही जाए !

ये हालत इतने बुरे भी कहाँ यारों,
अखबार-ए-जिंदगी भी कभी पढ़ी जाए !

 औरों की खबर हुज़ूर होगी बाद में,
पहले अपने ईमाँ  से तो जंग लड़ी जाए !

उम्मीद माँगे कहाँ बड़ा सूरमा ?
'मजाल' से ही गिनती शुरू करी जाए !

Sunday, December 19, 2010

फलसफाई, शायरी और चुटकियाँ ( Shayari - Majaal )

ये रिश्ता चलता रहेगा  बढ़िया जाने,
अपनी कहें, हमारा नज़रिया जाने !

गर राज़ रखना है तो खुद में दफ़्न कर,
कहा एक को तो फिर सारी दुनिया जाने !

उनकी  शराफत के किस्से किनसे सुनेंगे ?
रमिया जाने उनको या फिर छमिया जाने !

अहसान लेने की नियत नहीं 'मजाल', 
इन मामलों में हमें कुछ बनिया जाने !

Friday, December 17, 2010

शायरी ( Shayari - Majaal )

आलती पालती बना कर बैठी है,
फुर्सत तबीयत से आ कर बैठी है !

कद्रदान बचे गिने चुने जिंदगी,
और तू हमीं से मुँह फुला कर बैठी है !

मुगालातें टलें  तब तो बरी हो,
सुकूं को कब से दबा कर बैठी है !

कमबख्त पुरानी आदतें न छूटती,
जाने क्या घुट्टी खिला कर बैठी है !

अब कोसती है ग़म को क्यों जनम दिया,
अभी अभी बच्चा सुला कर बैठी है !

'मजाल' आज जेब की फिकर करो,
मोहतर्मा  मुस्कां सजा कर बैठी है !

Sunday, December 12, 2010

विशुद्ध हास्य - आधुनिक कविता ( Hasya Kavita - Majaal )

!
ओं !
सुनो !
मजाल !
इसी तरह से,
बीच बीच में एंटर,
मार कर बन जाता है,
गद्य लेखन पद्य और फिर,
वो मुझे प्यार से कहती है की देखो,
ये है मेरी आधुनिक कविता !
ऊपर से नीचे तक देखता हूँ,
पढ़ता हुआ उसे, मगर,
समझ नहीं पाता ,
तो कह देता हूँ,
डिजाईन ,
अच्छा,
है !
!

Saturday, December 11, 2010

शायरी - यादों की चुस्कियाँ ( Shayari - Majaal )

कुछ घरेलु किस्म की शायरी ;)

मौके बेमौके हो जाते मेहरबान से,
बच कर ही रहिये ऐसे कद्रदान से !
 
जली जुबान दिन भर रखेगी परेशान,
यादों की चुस्कियाँ लीजिये इत्मीनान से !

नज़रंदाज़ कर करके संभाले है रिश्ते,
एक से सुना, निकला दूसरे कान से !

सुलझेगा न मुद्दा, नुमाइश ही होगी,
खबर न बाहर जाने पाए मकान से !

सबकुछ मयस्सर, फिर भी क्या कमी है ?
'मजाल' कभी कभी जिंदगी ताकते हैरान से !

Friday, December 10, 2010

"मैं तुम्हारे बच्चे की माँ बनाने वाली हूँ" - फुटकर हास्य-कविताएँ ( Hasya Kavitaen - Majaal )

कुछ फुटकर हास्य कविताएँ, थोड़े थोड़े दर्शन से साथ ;)

1. "मैं तुम्हारे बच्चे की माँ बनाने वाली हूँ",
    अगर रिश्ता पति पत्नी,
    तो खबर ख़ुशी की,
    अगर लैला मजनू,
    तो लग गयी वाट !
    कभी कभी जिंदगी में,
    घटनाओं से ज्यादा,
    मायने रखते 'मजाल',
    उनके हालत !

2.  दुर्जनों की सौ सौ वाह वाही,
     कर न पाएगी  उम्रभर,
     सज्जनों की दस दुहाई,
     पर कर जाएगी काम,
     सड़े फलों से बेहतर खाना ,
     ताज़ा छिलके  'मजाल',
     खुमानी की तो निकलेगी, गुठली भी बादाम ! 

...... और एक नज़्म : 

 *  जिंदगी की आपाधापी,
    गर्माते मिजाज़ के बीच,
    कहीं से,
    उड़ कर आया,
    यादों  का एक टुकड़ा,

    और कर गया,
    आँखों को.
    जरा जरा सा नम,
    अचानक हुई इस फुहार,
    से हो  गयी,
    जस्बातों की,
    तपती जमीन गीली,
    और,
    माहौल खुशनुमा हो गया !

Thursday, December 9, 2010

फुटकर हास्य कविताएँ और ' मजालिया अढाईपंती '

यूँ तो हास्य होता है फकत हास्य, और उसका लक्ष्य होता सिर्फ मनोरंजन, मगर किसी भी चीज़ को विधा का रूप दे कर उसकी विवेचना करी जा सकती है. जैसे की होने को सिर्फ एक लड़की है, पर जो शायरों  की नज़र पड़ी, तो फिर जुल्फों से ले कर होंठ, कमर से ले कर आँखे, एक एक पर चुन चुन कर जिक्र, और कमबख्त तकरीबन हर अदा पर नाजुक से नाजुक ख्याल को शेरों में बाँध लेतें है ! यही बात हास्य पर भी लागू होती है. हास्य कविता चाहे शुद्ध हास्य कविता हो या दर्शन, व्यंग्य को या  गंभीर काला हास्य, अलग अलग तरीको से उसको निभाया जा सकता है.

अब होता यह है की किसी एक तरीके का दुहराव, आपको  धीरे धीरे उससे उकता देता है, और इसीलिए हर एक  विधा में समय समय पर कुछ नयापन लाना जरूरी है. इसी परंपरा को जारी रखते हुए मियाँ मजाल ने एक नयी हास्य  विधा का इजात करने की सोची है ! इसको हम कहेंगे 'अढाईपंती' ! 

अंग्रेजी में जिसे poor jokes या pj कहते है, इसे उसी  का व्यवस्थित रूप समझिये. इसकी शैली जापानी हाईकू (haiku ) जैसी  है. हाइकू एक छोटी सी  रचना होती है जिसमे तीन लाइनें होती है. इन  तीन लाइनों के कुछ नियम होते है, पर यहाँ हम सिर्फ अढाईपंती के नियमों के बारें में बात करेंगे. तो कुल मिला कर अढाईपंती हास्य विधा वो हुई जिसमे :

१. हाइकू की तीन लाइन की तर्ज़ पर ही ढाई ( दो और आधा ) लाइन का  मीटर हो.
२. पहली दो  पंक्तियाँ या लाइनें तुकबंदी में हो, जो की भूमिका बाँधें  , और तीसरी (आधी लाइन -अढाई )  एक अचानक उटपटांग,   कुछ-तोबी, poor joke  किस्म का ब्रह्म वाक्य (!)  हो, जिससे  की हास्य का सर्जन हो.

उदहारण के लिए :


तुम और मैं, मैं और तुम,
मैं और तुम, तुम और मैं,
एक दूजे के लिए.

ऊपर की रचना को लें, तो उसमे पहली और दूसरी लाइनों  में ६-६ शब्द है, और वो परस्पर तुकबंदी में लग रहे है. तीसरी लाइन में चार शब्द है, ६ के मुकाबले ४ को  तकरीबन आधा मन जा सकता है, तो इस तरह यह हुई अढाई रचना. अब इस रचना में एक भाव है जो की बड़ा स्वाभाविक सा है - हम और  तुम, एक दूजे के लिए. पहली दो  पंक्तियों  के बाद कोई तीसरी पंक्ति पढ़े, तो उसे कोई ख़ास हैरानी नहीं होगी, क्योकि 'हम तुम एक दोजे के लिए' भाव एक बड़ी ही आम सी बात है. अब इस अढाई रचना में कुछ-तोभी-पना, कुछ ऊटपटाँग, कुछ absurd किस्म का रूप अढाई'पंती'  कहलाएगा. जैसे की :

तुम और मैं, मैं और तुम,
मैं और तुम, तुम और मैं,
तुक में है !!!


अब इस रचना में 'तुक में है'  ब्रह्म वाक्य की तरह रचना को पूरी तरह से उल्जहूल बन देता है की यह क्या बात हुई ! आप उम्मीद कर रहे है कुछ रोमांटिक चीज़ की, और कोई आपके मूड की ऐसी तैसी कर दे. तो इस चीज़ पर आप बोल सकते है की - ये क्या अढाईपंती है !

अभी एक किस्त और झेलना बाकी है, उसके लिए आपको कुछ दिनों की महौलत दी जाती है. हम अपना हुनर थोड़ा और मकम्मल कर लें, बाकी की पिक्चर इंटरवेल  के बाद ! 





   

Wednesday, December 8, 2010

ग़ज़ल हो पूरी कैसे, दोपहर होने के पहले, सोच हो जाती रुखसत , बहर होने के पहले ! ( Shayari - Majaal )

ग़ज़ल हो पूरी कैसे, दोपहर होने के पहले ?
सोच हो जाती रुखसत , बहर होने के पहले !

या तो फलसफे ही, कर गए दगाबाजी,
याक़ी  खामोश तूफाँ, कहर होने के पहले !

साँप का काटा, या लत का मारा,
दर्द मजा देता, जहर होने के पहले !

कागज़ी शेर तो खूब कहे  'मजाल',
अँधेरे का क्या करें, सहर होने  के पहले !!

Tuesday, December 7, 2010

शुद्ध हास्य-कविता - बच के कहाँ जाओगी रानी ! ( Hasya Kavita - Majaal )

बच के कहाँ जाओगी रानी !
हमसा कहाँ पाओगी रानी !
इतने दिनों से नज़र है तुझपे,
रोच गच्चा दे जाती है !
आज तो मौका हाथ आया है !
बस तुम हो और,
बस मैं हूँ, बस !
बंद अकेला और कमरा है !
इतने दिनों से सोच रहा हूँ,
अपने अरमां उड़ेल दूँ,
सारे तुझ पर ,
आज तू अच्छी हाथ आई है ! 

करूँगा सारे मंसूबे पूरे !
आज तो चाहे जो हो जाए,
छोड़ूगा नहीं,
ऐ सोच !
तुझे,
कविता बनाए बिना !!!

Monday, December 6, 2010

यहाँ तो हर शेर ही वाह-वा है, ऐसी दाद से हमें तौ-बा है ! ( Shayari - Majaal )

यहाँ तो हर शेर ही वाह-वा है !
ऐसी दाद से,  हमें तौ-बा है !!

जो दौर दोनों तरफ से तारीफों का ,
जो गौर करिएगा, बस एक सौदा है !

गलतफहमियाँ, मुगालतें है पनपी जो,
उखाड़ जड़ करिए, अभी पौंधा है !

शर्मों-हया, बुर्कापरस्त महफ़िल में,
मजाल सा एक कुछ कहीं कौंधा है.

Sunday, December 5, 2010

थोड़ा हास्य, थोड़ा दर्शन : शायरी-ए-Fusion ( Shayari - Majaal )

जिंदगी का भरोसा नहीं,  कब क्या, दिखा दे,
Windows का नया version आया हो गोया !

सवाल-ए-जिंदगी, क्या करें, क्या न करें,
Abort,Retry,Fail ? सामने आया हो गोया !

अचानक हो गया वो यूँ दुनिया से रुखसत,
Ctrl Alt Del  किसी ने  दबाया हो गया !

धीरे धीरे हुए सपने मक्कमल ऐसे,
Inkjet से print out बाहर आया हो गया !

दिल बहला सभी का आगे बढ़ जाते 'मजाल',
फलसफा Fwd Email  का अपनाया हो गोया !

Friday, December 3, 2010

कहानी - लाइसेंस

सौरभ RTO  में बैठा License का फॉर्म भरने में लगा था.
" साले , ये हरामी लोग, बिना पैसे खाए कोई काम नहीं करते", पास बैठा काली शर्ट पहना एक आदमी बडबडा रहा था.
"साला फॉर्म है की क्या.... जाने कैसे भरना है ....? साले ये हरामी लोग ....." वो बडबडाता जा रहा था. सौरभ हँसी दबा गया. सीधा सदा फॉर्म था. नाम , पता, फोटो, कुछ प्रमाण पत्र, ये सब जानकारी तो लगती ही है, " इसमें क्या अजीब है... ?!" उसने मन ही मन सोचा.
सामने खड़े आदमी की उस पर नज़र पड़ी. "साहब, बहुत झंझट है, बहुत चक्कर लगवाते है, बहुत लटकाते है, आप बोलो तो मैं ५०० में बैठे बैठे आपका काम करवा दूँ." 
थोड़ी बात चीत करने के बाद उस एजेंट ने  काली शर्ट वाले से ४०० में सौदा पटा  लिया. काली शर्ट वाला खुश की मोल भाव करके सौ रुपये बचा लिए !
"साहब,आप भी करवा लो.."
"नहीं, मैं खुद कर लूँगा..."
"अरे, बहुत झंझट है साहब...."
उसकी बात नज़रंदाज़ करता हुए सौरभ लाइन में लग गया.
" ये attest नहीं है, करवा ले लाओ" बाबू खडकी पर खड़े एक आदमी से बोल रहा था.
"देखा, साले ये हरामी लोग..." पास बैठे काली शर्ट वाले ने  फिर से दोहराया और सौरभ की तरफ अपनी बात की  सहमती पाने के लिए देखने लगा.
"Attest तो करवाना पड़ता है भाईसाहब, फॉर्म में साफ़ लिखा है,  जो तरीका है, वो है, क्या कर सकते है...." सौरभ के जबाब से उसे निराशा हुई ...!
"साले खांमखां परेशान करते है..."  वो व्यक्ति फॉर्म हाथ में लिए, गुस्से में बडबडाते हुए उन लोगों के सामने से निकला. काली शर्ट वाला अपना समर्थक पाकर खुश हुआ !
सौरभ का नंबर आया. फॉर्म पूरा ठीक से भरा था, सो रसीद कटवाई, और तीन दिन बाद license  ले जाने को कहा.
इसी तरह से उसका learning license भी बना था. अब तीन दिन में उसका परमानेंट भी बन जाएगा. सौरभ ये सोच कर खुश हुआ.
तीन दिन बाद वो license लेने RTO पहुँचा. लाइन में लगा, रसीद दिखाई , license लिया और ख़ुशी ख़ुशी चल दिया. बाहर जाते वक़्त उसे एक आवाज़ सुनाई दी "ये  साले बाबू लोग..." देखा तो एक आदमी फॉर्म भरने में उलझा हुआ था. शर्ट भी काली ! पास से गुज़ारा तो देखा  की वो कोई दूसरा आदमी था.
"कुछ समझ में नहीं आ रहा क्या?" सौरभ ने मदद करनी चाही, वो  अच्छे मूड में था.
"हाँ यार, ये फॉर्म , इतना सारा भरना है.... जाने क्या क्या है...."
"सीधा सा तो है, क्या नहीं आ रहा आपको ?"
"अरे, ये लोग सौ बातें भरवाते है फॉर्म में खांमखां ,परेशान न करे तो इनकी कमाई कैसे हो... खाए बिना  कुछ काम करते नहीं साले   "
"पर मेरे तो कर दिया !! "
"हूँ ...." काले शर्ट वाले ने उसकी बाते अनसुनी कर दी.
शक्ल तो पुराने वाले से नहीं मिल रही थी , पर आदमी ये सौरभ को वहीँ लगा !

Thursday, December 2, 2010

शायरी - तजुर्बा ( Shayari - Majaal )

बहुत ही ऊँचें दाम की निकली,
चीज़ मगर वो काम की निकली !

शुरू किया आज़माना मुश्किल,
ज्यादातर बस नाम की निकली !

मौका मिला तो सरपट भागी,
ख्वाहिशें थी लगाम की निकली !


अँधेरा   देखा उजाले में जब ,
सुबह भी दिखी शाम की निकली !

फ़िज़ूल-ए-फितूर हटा दे गर तो,
बाकी जिंदगी आराम की निकली !

महोब्बत से पाई जन्नत 'मजाल',
झूठी बातें ईमाम की निकली !

Wednesday, December 1, 2010

आशा का दीपक - दर्शन हास्य-कविता

शायद आप लोगों ने भी स्कूल के दिनों रामधारी सिंह 'दिनकर' की इसी नाम से एक कविता पढ़ी हो. इसे उसका मजालिया संस्करण मानें. हालाकि सीधे सीधे तो इसका दिनकर जी की कविता से कोई संबंध नहीं है ...

मियाँ 'मजाल' ने देख रखी,
कई रमिया और छमिया,
पूरी नहीं तो भी,
लगभग आधी दुनिया,
नुस्खे जांचे परखे है ये सारे,
जो तुम आजमाओ,
आशा नहीं, तो हताशा से नहीं,
नताशा से काम चलाओ !
सुबह होने को दीपक बाबू !
कुछ देर और निभाओ !

तुमने आशा से उम्मीद लगाईं,
उसने दिया ठेंगा दिखाई,
लड़कपन में चलता है ये सब,
दिल पर नहीं लेने का भाई.

आशा मुई होती हरजाई,
कभी आए, तो कभी जाए,
पर जाते जाते सहेली किरण को,
भी  पास तुम्हारे छोड़ते जाए,
किरण दिखे छोटी बच्ची सी,
मगर है यह बड़ी अच्छी सी,
आशा नहीं तो न सही,
किरण से ही दिल बहलाओ !
सुबह होने को दीपक बाबू !
कुछ देर और निभाओ !

बहुत मिलता है जीवन में,
और बहुत कुछ खोता है,
चलता रहता खोना पाना,
होना होता,  सो होता है.
निराशा के पल भी प्यारे,
बहुत कुछ सिखला जातें है,
रुकता नहीं कभी भी, कुछ भी ,
ये पल भी बढ़ जातें है.

ख्वाब मिले, उम्मीद मिले,
अवसाद , या धड़कन दीर्घा,
सपना मिले, किरण मिले,
मिले आशा, या प्रतीक्षा,
जो भी मिले बिठालो उसको,
गाडी आगे बढाओ ... !
सुबह होने को दीपक बाबू !
कुछ देर और निभाओ !

मिले प्रेम या मिले  ईर्षा,
मन न कड़वा रखना.
सारी चीज़े है मुसाफिर,
राह में क्या है  अपना ?
सीखते जाओ जीवन से,
अनुभवों को अपने बढ़ाओ,
आशा के जाने से पहले,
एक सपना और पटाओ !

नसीब हुआ जो भी तुमको,
उसी में जश्न मनाओ.
सुबह होने को दीपक बाबू !
कुछ देर और निभाओ !

Tuesday, November 30, 2010

चाचा चौधरी का दिमाग कम्पूटर से भी तेज़ चलता है !

कुछ उन्मुक्त क्षणिकाएँ समझ लीजिये, या बे-बहरिया त्रिवेणी; या फिर फुरसतिया दिमाग की खुराफाती तबीयत का नतीजा मान कर ही झेल जाइए ....
 
1. दुनिया से बेखबर ,
    कुत्ते की तरह सोता मजदूर,
    मेहनत का ईनाम .... आराम !

2.  उलझन,  प्रश्न अनुत्तरित!
    जगत सरल अथवा गूढ़ ?
    किमकर्तव्यविमूढ़ ! 

3. लो हो गया ये भी !
    अब क्या, अब क्या ?
    वक़्त ही वक़्त कमबख्त !

4. पेट भूखा और दिल उदास,
    ग़म को ही खा गए कच्चा चबा कर,
    चाचा चौधरी का दिमाग कम्पूटर से भी तेज़ चलता है !

Monday, November 29, 2010

शायरी - बिल तुम भरो, कभी हम भरें ! ( Shayari - Majaal )

कुछ तुमे भरो, कुछ हम भरे,
तब जा कर ये, जखम  भरें !

हुआ लबालब, छलक जाएगा,
ये आँखें अश्क, कुछ कम भरें !

बच कर ही रहना उससे तुम,
अक्सर वफ़ा का वो दम भरे !

काम पीने के तक न आएगा,
क्यों समंदर-ए-ग़म भरे ?!

रहे दोस्ती ये कायम 'मजाल',
बिल तुम भरो, कभी हम भरें !

Sunday, November 28, 2010

लघुकथा - ग़ालिब आखिर पत्थर निकले काम के ... !

वो घोर नास्तिक था. ईश्वर के न होने के पक्ष ऐसे ऐसे तर्क प्रस्तुत करता था, की प्रसिद्ध था, की यदि साक्षात प्रभु भी उसके तर्क सुन लें, तो वे  स्वयं भी अपने अस्तित्व के प्रति आशंकित हो जाए ! कट्टरपंथियों को उसका यह नजरिया पसंद नहीं आया. कुछ लोग उसे अगुआ  कर दूर रेगिस्तान ले गए, और उस पर पत्थर बरसा कर अधमरी हालत में छोड़ आए, की बाकी सब प्रभु संभाल ही लेंगे !

वो कई घंटों तक अचेतन और अवचेतन के बीच की अवस्था में बड़बड़ाता रहा. कभी लोगों को कोसता, कभी अपने तर्कों को दोहराता, कभी खुद को कोसता, और कभी अपने ही तर्कों पर सवाल करने लगता ! घंटों तक यही सिलसिला चलता रहा. दिन से रात हो गयी. अब उसे भूख की याद आई, प्यास की भी याद आई ! रेगिस्तान में दिन में जितनी भयंकर गर्मी, रात में उतनी ही कातिलाना ठंड ! बड़बड़ाने से ध्यान बँटा , तब ठंड भी उसे अपने तर्कों की ही तरह भेदक मालूम हुई !

अब उसे ईश्वर के अस्तित्व से ज्यादा अपने अस्तित्व की चिंता हुई ! ठण्ड से बचने के लिए कोई सुरक्षित स्थान न दिखा. फिर नज़र उन पत्थरों के ढेर पर गयी जो लोगों ने उस पर फेकें थे. उन्हीं  में से छाँट कर एक काम चलाऊ गुफानुमा ढाँचा बना कर जैसे तैसे रात गुजारी. भूख के बारे में सोचता हुआ बेहोश हो गया.

अगले दिन होश आया तो  खुद को बीच सफ़र में एक गाड़ी के अंदर पाया. जाने कहाँ से उस वीरान जगह से गुजरते वक़्त, कुछ सैलानियों की नज़र उस पर पड़ गयी थी ! खाना भी नसीब हो गया, और पानी भी !रात को अपने प्राण बचाने में उसे कुछ योगदान उस जुगाडिया गुफा का भी लगा ! खाते खाते वो सोच रहा था, कमबख्त कुछ पत्थर तो बड़े काम के निकले ! 

Saturday, November 27, 2010

सूरज दादा गुस्से में : बाल-कविता (हास्य),

सूरज दादा उखड़े से,
आज भरे है गुस्से से,
बोले न छिपूँगा आज,
इस बादल के टुकड़े से !

मेरी कोई कदर नहीं,
हो मेरा तेज अगर नहीं,
कब तक जी बहलाओगे,
इस मुए चाँद के मुखड़े से !

ये भी मुझ पर निर्भर रहता,
मैं ही इसको रोशन करता,
मेरी उधारी खा खा कर ये,
रहता अकड़े अकड़े से !

आज सबक सिखाऊँगा,
जलवा अपना दिखाऊँगा, 
ढलूँगा न मैं, रह जाएगा, 
तू सर अपना  पकड़े से ! 

चाँद बोला मुझे बचाओ,
बिजली दीदी इन्हें मनाओ,
सूरज जीजा कभी कभी,
हो जाते पगले पगले से !

बिजली रानी हुई बवाली,
मेरे भाई को देते गाली,
माफ़ी माँगो, और ढल जाओ,
वखत हुआ है तड़के से.

बादल मौसा भी अब आए ,
लिए सूरज को  वो लपटाए,
बिजली कौंधी घमासान सी,
सब ताके, आँखे जकड़े से !


सूरज ने भी ताप बढाया ,
पूरा माहौल गया गरमाया,
बादल को छूता पसीना,
बिन मौसम वो बरसे से !

थोड़ी देर तक चली लड़ाई,
सूरज को भी समझ फिर आई,
ठंडे पानी में रह कर,
अब सूरज दादा ठंडे से !

ठंडे हो कर सोचा ढंग से,,
ज्यादा गर्मी से सब तंग से,
गुस्सा नहीं है अब वो करते,
दिखते बदले बदले से !

सूरज दिन को , चाँद रात में ,
बिजली , बादल, बरसात में ,
सब  आते है बारी बारी,
बचते है वो झगड़े से ! 

मिल कर रहना अच्छा होता,
सब कुछ मिल जुल के ही होता,
गुस्से को पानी छप छप कर,
 देना भगा धड़ल्ले  से !

Friday, November 26, 2010

शायरी : कुछ इस तरह से हम ये दुनिया समझे, समझा खुदी को, और पूरा जहाँ समझे ! ( Shayari - Majaal )

कुछ इस तरह से हम ये दुनिया समझे,
समझा खुदी को, और पूरा जहाँ समझे !

समझाने वाले समझ गए इशारों में,
जो न समझे, हज़ारों में भी ना समझे !

ना दोस्ती किसी से, ना  की दुश्मनी ही,
सब अपनी तरफ से ना, कभी हाँ समझे !

एक पल में लगा यूँ, समझ लिया सबकुछ,
औए अगले पल लगा, अभी कहाँ समझे ?!

'मजाल' अपनी ख़ुशी अपने हाथों में,  
खुदी से पा कर  दाद जाँहपना समझे !

Thursday, November 25, 2010

कुछ फुटकर हास्य-कविताएँ ( Hasya Kavitaen - Majaal )

कुछ फुटकर हास्य कविताएँ, या फिर कुछ कुछ  मजालिया किस्म की नज्में ही समझिये .....

1. जब,
    पूरी ताकत लगाने पर,
    झटके दे दे कर,
    मुँह  से गर्म करने पर,
    और हजार बार रगड़ने ,
    के बावजूद,
    स्याही नहीं आती,
    ठीक से,
    कागज़ पर,
    तब,
    अन्दर जब्त,
    वो अधपके से जस्बात,
    बनके लफ्ज़,

    चढ़ आतें है ऊपर, 
    और वो आवाज़,
    वो आहट,
    सुनने के बजाए,
    दिखती है,
    चेहरे पर,
    बनके,
  
     झल्लाहट ... !

 2. मियाँ मजाल !
    आपकी सोच में पाई गयी है अनियमता,
     क्यों न उसे निरस्त कर दिया जाए,
     और क्यों न बहाल कर लिया जाए,
     सुकून को, जो है, मुल्तवी,
     सूद के साथ.
     जिंदगी अक्सर,
     तन्हाइयों में,
     भेजती रहती है मुझे,
 
     कारण बताओ नोटिस !

3. जैसे,
    किसी शायर ने,
    जो जो,
    जैसा जैसा,
    जहाँ जहाँ,
    सोच कर कहा था,
    उसे,
    वहाँ वहाँ,
    उन उन,
    जगहों में,
    मिल जाए,
    ठीक,
    वैसी की वैसी,
    दाद.....

    मुराद !!!!!

Wednesday, November 24, 2010

शायरी ( Shayari - Majaal )

यकीनन असर हर एक दुआ निकलेगा,
नतीजा उम्दा हर इम्तिहा निकलेगा !

चुन ले एक जगह, खोदते रह जिंदगी,
कभी न कभी तो वहाँ कुआँ निकलेगा !


शर्मिंदा थोड़े से वो, थोड़े से बेयकीं,
सोचा नहीं था, पहुँचा हुआ निकलेगा !

शामिल न हो आग में,  वो खुद ही बुझेगी,
अपने दम पे आखिर, कितना धुँआ निकलेगा ?!

परवरिश ही तूने ऐसी,  पाई है 'मजाल',
निकलेगा भी तो, कितना मुआ निकलेगा ?!

Tuesday, November 23, 2010

हास्य-कविता - ' मजेदार पहेली ' ( Hasya Kavita - Majaal )

बच्चा सोचे, कब इस बचपन से छुटकारा पाऊँ,
बूढ़े की ख्वाहिश, फिर से जो, बच्चा मैं बन पाऊँ !
गरीब देख ठाट साहब के, अपनी  किस्मत रोए,
साहब सोते देख गरीब को, 'चिंता गायब होवे !'
पौधा तरसे जाए,  कोई उसको डाले पानी,
कैक्टस जो गलती से गीला, याद करे वो  नानी !
औरत मुजरे सी सबको रिझाने वाली अदा चाहे,
मुजरे वाली से पूछो तो, बस एक मरद मिल जाए !
भोगी देख  योगी को सोचे मन काबू हो जाए ,
योगी मन  काबू करने में जीता जी मर जाए !

एक दूसरे को सब ताके, सोच के उनको पूरा ,
बिना ये जाने की दूसरा भी खुद को माने अधूरा !
मियाँ 'मजाल' देख के सबको जरा जरा मुस्काए,
मगर मामला, असल मसला उनके भी ऊपर जाए !
अनबूझी, अनसुलझी सी, लगे शाणी और कभी गेली,
जो भी हो पर है दिलचस्प - जिंदगी मजेदार पहेली !

Monday, November 22, 2010

शायरी : अक्सर गुजरते है हम , तमन्ना-ए-बाज़ार से, हो नसीब तो खरीद के, वर्ना बस दीदार से ! ( Shayari - Majaal )

अक्सर गुजरते है हम , तमन्ना-ए-बाज़ार से,
हो नसीब तो खरीद के, वर्ना बस दीदार से !

या खुदा तेरी आबरू, फिर पड़ी खतरे में है,
दोनों तरफ लोग खड़े, दिखते है तैयार से !

दुनिया रोए तो रोए , गरीब तो खुश बेपनाह,
पक्का घर मिल ही गया, आखिर इस मजार से !

रखते स्वाद समंदर, आँसू को आजमाओं तो,
लेना चाहे तजुर्बा जो, कोई अपनी हार से !

'मजाल' को कबूल,  चाहे जितनी लानत दीजिये ,
बस इतनी सी इल्तिजा , की कहिये जरा प्यार से !

Sunday, November 21, 2010

बाल-कविता (हास्य) : आँकड़ेबाजी ( Bal Hasya Kavita - Majaal )

थोड़ी आँकड़ेबाजी, थोडा हास्य, थोडा दर्शन, और थोड़ा बचपना ....

एक बार की है बात,
छोटू और सच, दोनों साथ.
झूठ ने आ कर किया कबाड़ा,
तीन तिगाड़ा, काम बिगाड़ा !
छोटू बोले झूठे भाई,
आओ बैठो चारपाई.
झूठ बोला नहीं रे यारा,
चाहूँ सुविधा पाँच सितारा !
छोटू सोचा इतना नखरा,
झूठ का अंदाज़ उसको अखरा.
पहले रह गया हक्का बक्का,
फिर छोटू ने मारा छक्का !
भाई तुम मेरा  निभाना,
माँ देती खर्चा बस आठ आना !
ये सुन झूठ ने किया बहाना,
और हो गया वो नौ दो ग्याहरह !
सच छोटू का सच्चा संगी,
झूठ  तो निकला दस नंबरी !
सच और छोटू हमेशा यारा,
और जिंदगी के हुए पौ बारह !

Saturday, November 20, 2010

कुछ तुकबंदी, कुछ शायरी, और कुछ फलसफे ...( Shayari - Majaal )

मिला एक, चाहे दो गया,
हँसता ही चला वो गया !

यादें कुरेद हासिल हो क्या ?
वापिस कब आया, जो गया ?!

मैला सा कुछ मलाल था,
आँसू बहा, और धो गया !

पूरी जिंदगी आगे बची,
ऐसा भी क्या है खो गया ?!

एक उम्र बाद पता चला,
क्या बीज  था वो  बो गया !

देखी जिंदगी,  हुई हैरानगी,
सब खुद ब खुद ही हो गया !

ये सोच चीज़ कातिलाना,
समझ फँसा तू,  तो गया !
 
इलाजे ग़म आसाँ 'मजाल',
भरपेट खाया,  सो गया !

Friday, November 19, 2010

शायरी : रोने पे हँसीं आई ... ! ( Shayari - Majaal )

फैलेगी धीरे धीरे,
खिलेगा पूरा चेहरा,
दिखा रहा होठों के,
एक कोने पे हँसीं आई ... !

किसलिए जिए या,
किसलिए मर जाएँ,
हर वजह की बेवजह,
होने पे हँसीं आई ... !

कम ही किया सचमुच,
बस सोच कर हुए खुश,
ख़यालों ख़्वाबों, गोया,
सोने में हँसीं आई .. ! 

तेज़ हाथ छटपटा  के,
नथुने दोनों फुला के,
कुछ ऐसे रोया बच्चा की,
रोने पे हँसीं आई ...!

जो तबीयत हुई मनमौजी,
उसने तब हर जगह खोजी,
फिर तो सुई में धागा भी,
पिरोने में हँसी आई .. !

अक्ल लगा लगा के,
समझ आखिर में आया,
की दरअसल इस अक्ल के,
खोने पे हँसीं आई .. !

'मजाल' क्या मिट्टी थी,
जाने क्या माली था,
जो भी बोया उसने ,
हर बोने पे हँसीं आई ...

Wednesday, November 17, 2010

काला हास्य - ' म र ण '

बचपन, हमदम
हस, ग़म,
सब समरण,

एक एक कर,
मगर, न लय,
सब उलट  पलट,
सरपट  धड़ धड़  !
न जल हलक
मगर,
बदन,
तर ब तर !
  
सस कम पल पल,
कम दम क्षण क्षण,
च,
तत पशचत,  
ख़तम सब  !
धन, घर, यश,
सब रह गय धर !
मट दफ़न मट !
सब परशन  हल,
पर,
हर जन असफल, 
सकल !

बालगीत : ' पतंगबाजी ! '

जोत उसके बाँध के,
तराजू जैसे नाप के,
सर मोड़ काँफ के,
हवा बहाव नाप के,
एक दे उड़न छी,
एक गट्टा सँभाल के.
ये उड़ी अपनी पतंग,
हवा के साथ संग संग,
हवा तेज़ - साधो सनन ,
हवा कम - ठुमके ठन ठन !

कागज़ की अपनी पतंग,
हवा उड़े सर सर,
पन्नी की छोटी पतंग ,
शोर बड़ा 'सड़ सड़ !' 
डोर खीच हड  बड़ ,
कटे  हाथ घड़ धड़ !

उड़ते हुए खुले जोत,
तो गोते खाए तेज़ से,
फटे तो मरहम लगाओ ,
चावल आटे  लेप से !

कभी उड़े चील सी,
कभी गोतेबाज़ सी,
कभी पेड़ उलझे कभी,
डोर फांसे पक्षी !

बाजू छत मुन्ना,
धोंस दे लफंगा!
मेरे कन्ने डग्गा,
मेरेसे नई  पंगा !
मैंने है करवाया हेगा,
काँच वाला मंझा !

निकालेंगे हम इसकी हेंच,
आ बच्चू , लड़ा ले पेंच !

आसमां में निगाहें,
 जमी सबकी एक सी,
अब होगे फैसला,
जीतेगा बस एक ही,
एक तरफ सांकलतोड़ ,
एक तरफ बरेली !

कान बाज़ , चाँद बाज़
इक दूसरे के आस पास !
भिड़  जाए ऐसे दोनों ,
झपटा मारे जैसे बाज़,
मंझे उलझे मंझे से,
तेज़ हो साँसों के साज़ !
 
" ढील ! ढील ! ढील ! ढील ! "
" खेंच ! खेंच ! खेंच ! खेंच ! "
" ढील ! "
"खेंच ! "
"ढील ! " 
" खेंच ! "
" काटा sssssss है ......  !  "

Tuesday, November 16, 2010

शायरी : ' आखिर का आखिर क्या, इस सोच से शातिर क्या ' (Shayari - Majaal)

आखिर का आखिर क्या ?!
इस सोच से शातिर क्या ?!

अपनी मनमर्जी का करता,
अब खुदा भी काफिर क्या ?!

खाँमखाँ ताउम्र फिकर की,
'जो हो गया, तो फिर क्या' ?!

तलवार या क़त्ल-ए-खंज़र,
अब करे आरज़ू जाहिर क्या ?!

ग़म भी हो ही गया रुख्सत,
उसकी भी करते खातिर क्या ?!

जिंदगी लतीफा है हँस लो,
क्या पैर 'मजाल' सिर क्या ?!

Monday, November 15, 2010

शुद्ध हास्य-कविता - एक बार हुआ यूँ ..( Hasya Kavita - Majaal )

एक बार हुआ यूँ,
की ग़ालिब सोचे,
कुछ यूँ,
क्या हो अगर,
हो यूँ,
और न यूँ !!

अब जब ग़ालिब, 
सोचे यूँ,
तो हुआ यूँ,
की यूँ से मिला यूँ,
कुछ यूँ,
की पता न चला,
ये यूँ, यूँ,
या ये यूँ, यूँ  !!
 
क्योंकिं,
ये यूँ,
ही है,
कुछ यूँ,
की जो सोचने लगो,
यूँ या यूँ,
तो,
यूँ ही यूँ में, 
निकलते जाते,
यूँ पे यूँ !
यूँ पे यूँ !!


ग़ालिब पहले परेशान,
यूँ,
या,
यूँ !
अब नई परेशानी,
की ये यूँ, यूँ,
या ये यूँ, यूँ  !!

चेहरा-ए-ग़ालिब,
कभी यूँ,
और,
कभी यूँ !!

इसलिए कहे 'मजाल',
ग़ालिब,
आप सोचे ही क्यूँ,
 यूँ ? !!!

Sunday, November 14, 2010

शायरी - ' यूँ ही रस्ते मिल जाए कोई, बेवजह रिश्ते निभाए कोई ! ' (Shayari - Majaal)

यूँ ही रस्ते मिल जाए कोई,
बेवजह रिश्ते निभाए कोई !

कईयों को देखा है रोते हुए,
बस इसलिए की हँसाए कोई !

नर्म बिस्तर पर नींद कहाँ ?
माँ जैसी लोरी सुनाए कोई !  

इश्क, रश्क, अश्क, खर्च,
बीमारियों से बचाए कोई !

मस्जिद मंदिर में मिला नहीं,
अबके सही पता बताए कोई !

कैसे मना करोगे 'मजाल',
बच्चो सा मुस्कुराए कोई !

Saturday, November 13, 2010

व्यंग्य-कविता : ' सिद्धि.' ( Hasya Vyangya Kavita - Majaal )

एक पागल था,
कुछ कुछ दिमागी घायल था,
कोई घास न देता था उसे,
पर वो खुदी का कायल था !

एक दिन आ गया,
वो दुनिया से तंग,
सोचा काट दूँ अब,
जिंदगी की पतंग,
निकला चुपचाप घर से,
लेकर ये उमंग,
बाहर मूसधार बारिश,
पर साहब दबंग.

भगवान को भी शायद,
उस पर तरस आया,
उन्होंने भी उस पर,
कुछ नरमी बता दी,
इससे पहले वो कूद के,
दे  दी अपनी जान,
प्रभु ने बीच रास्ते ही,
उस पर बिजली गिरा दी !


पर शायद ऊपरवाले के हिसाब में,
कुछ गड़बड़ी हो गयी,
बिजली तो गिराई थी,
काम तमाम करने के लिए,
पर पगले की उल्टे  चाँदी हो गयी !

बिजली सर पर गिरी,
मगर बच गया पग्गल,
ऊपर से हो गया उसके,
सर पर प्रकट,
एक गोला, वृताकार,
शुद्ध दुग्ध धवल !

बावले को रातों रात,
चाँदी की गोदी मिल गयी,
जो देखे उसे बोले,
"आपको तो बोधि मिल गयी !!!' 

अब सैया पहले ठेट बावरे,
ऊपर लोगों ने पिलादी भाँग !
निर्गुण के गुणों का बखान,
भूखे को जैसे मिल जाए पकवान !
 
" आप परम पूज्य, आप विद्वान,
आप सर्व श्रेष्ट, आप है महान ! "

अब पागलों के लिए तो होती,
ऐसी उलजहूल  बातें,
साक्षात  वरदान !!!
हौसले हो गए फितूरी,
अरमान  खाके  हिचगोले,
पहुँचे  ऊफान !

बकने लगा वो अंट संट,
जो मन आए - अंड बंड,
" मै सर्व ज्ञाता,
मुझे भेजे स्वयं विधाता !  
मेरी शरण आओ,
मैं तुम्हे मुक्ति दिलाता ! "

ऐसे पागलों से बचके रहना भाई,
इन्होनें जाने कितनो की दुर्गति करवाई,
बसी बसाई गृहस्तियों को दिया उजाड़,
अच्छे खासे समझदारों ने इनके पीछे,
अपनी मति गँवाई !

हाए, मन का जटिल विज्ञान !
पाले जाने कै अभिमान,
यथार्थ जगत अनदेखा कर,
पाना चाहे कौन सा ज्ञान ?!

कौन मूढ़, कौन चतुर,
कौन ऊँच , कौन नीच ?
मिटटी दफ़न मिटटी  'मजाल',
हिसाब बराबर, ख़तम दलील !

व्यवहार सरल,पर चिंतन  गिद्ध,
सब स्वीकार , न कुछ निषिद्ध,
जो हर स्तिथि रखे संयम,
सुख हो दुःख, रहे वो सम,
निभाए सब रह इसी जगत,
'मजाल' माने उन्हीं को सिद्ध.

Friday, November 12, 2010

हास्य-व्यंग्य कविता - ' Hindi ko likha jana chaahiye ' इस तरह ' और ना की ' yun ' ! ( Hasya Vyangya Kavita - Majaal )

भाई मेरे !
ये क्या सितम ढाते हो ?
क्यों हिंदी को अंग्रेजी बनाते हो ?
मीठे में क्यों नमकीन मिलाते हो ?
दोनों का स्वाद बर्बाद करके क्या पाते हो ?

हमारी बिनती, सनम्र निवेदन,
बस यही  आरज़ू,
Hindi ko likha jana chaahiye,
' इस तरह '
और ना की ' yun ' ! 



मियाँ 'मजाल' जब दादा बन जाएंगे,
और पोता पूछेगा दददू से,
क्या होती है चवन्नी ?
क्योकि तब तक,
चलन के बाहरहो चुकी होगी,
सारी छोटी मोटी गिन्नी,
तब दददू एक सँभाला हुआ,
घिसा सिक्का उसे दिखाएंगे,
और नाती को वो अपने,
चवन्नी का मतलब समझाएंगे.
अब जो तुम लिखने लगोगे,
हिंदी को अंग्रेजी में बेवजह, 
तो हिंदी भी चवन्नी की तरह,
धीरे धी .... re लुप्त हो जाaegee,
is tarah !   

बार बार दोहराते इसी लिए 'मजाल',
की वक़्त रहते रेंग जाए,
तुम्हारे कानों में जूँ,

Hindi ko likha jana chaahiye,
' इस तरह '
और ना की ' yun ' ! 


Tum to kuch bhi ant sant likh jaate ho,
aur us अंट शंट  ko samajhane mein
हमारी बुद्धि खपवाते  हो  !
जब साधन मौजूद है,
तो क्यों आलस दिखाते हो ?
देवनागरी को क्यों खाँमखाँ,
tum Roman banaate ho ? 


अगर हम तुमसे कहें,
जाओ  Google ट्रांसलिटरेशन में,
बजाए कहने के 'transliteration',
तो असुविधा होगी की नहीं समझने में ?
इसीलिए तो मजाल है कहते,
क्या रखा भाषाओं की ऐसी तैसी करने में ?!

मेहंदी जचेगी न माथे पर,
और न हथेली में बिंदी,
अंग्रेजी रहे अंग्रेजी तो बेहतर,
और हिंदी, हिंदी !


बस इतना कहना चाह रहे हम,
जरिये इस गुफ्तगू,
Hindi ko likha jana chaahiye,
' इस तरह '
और ना की ' yun ' ! 

Thursday, November 11, 2010

शायरी : वो हमसे कुछ ख़ास नहीं मिले, लगता है, अहसास नहीं मिले ! (Shayari - Majaal)

वो हमसे कुछ ख़ास नहीं मिले,
लगता है, अहसास नहीं मिले !

और दिनों मिलते थे जैसे,
वैसे हमसे आज नहीं मिलें !

इंसा और जानवर का फासला,
तबीयत, कभी हालात नहीं मिले !

कोई तलाशे, बादे मौत ज़िन्दगी,
किसी को, आगाज़ नहीं मिले !

सभी ने हाँकी अपने मन से फकत ,
किसी को पर, वो राज़ नहीं मिले !

कितनों में छुपे, मीर ग़ालिब 'मजाल',
बस सोच को, अल्फाज़ नहीं मिले !

Wednesday, November 10, 2010

' कलाकारी !' : हास्य-कविता, ( Hasya Kavita - Majaal )

हमारे मित्र,
देखने प्रदर्शनी चित्र,
दिन रविवार,
सपरिवार.

सामने चित्र,
स्थिति  विचित्र,
मित्र सोचे, 'वाह ! क्या चित्रकारी ! ',
उनकी बीवी सोचे, 'वाह ! क्या साड़ी ! '
छोटा बच्चा सोचे, ' वाह ! क्या गाड़ी ! '
बड़ा वाला सोचे, ' वाह ! क्या नारी !'

एक ही दुनिया में,
मौजूद रंग कितने,
है सबने पाई,
अपनी अलग नज़र, 
अपनी अपनी समझदारी.
बनाने वाले ने खूब बनाई,
तस्वीर-ए-बेमिसाल,
दाद दीजिये 'मजाल',
ऊपरवाले की कलाकारी !

Tuesday, November 9, 2010

शायरी : ' जाने कैसा गुज़रना है साल ये ? अभी से है हजूर के जब हाल ये ! ' (Shayari - Majaal)

जाने कैसा गुज़रना है साल ये ?
अभी से है हजूर के जब हाल ये !

क्या, क्यों, किसलिए, सुलझे तो कैसे ?
जवाबों से ही निकलते  सवाल ये !

दो पागल, और दोनों बराबर !
ख़त्म नहीं होता दिखे बवाल ये !

बात तब बने, जब मकम्मल हो वर्ना,
पल में गायब हो जाते  ख़याल ये !

चार दिन हुए नहीं महफ़िल सजाए,
इनके तेवर तो देखिये,  मजाल ये !

Monday, November 8, 2010

हास्य-कविता : ' पगार ! ' ( Hasya Kavita - Majaal )

अरसे पहले मुंशी प्रेमचंद साहब के किसी उपन्यास (या शायद मानसरोवर) में पगार की ये परिभाषा पढ़ी थी. उसी को कुछ कवितानुमा कर दिया है :

महीने की,
पहली तारीख को,
कितनी अच्छी,
लगती थी तुम,
मेरे हाथ में,
पूरी की पूरी !
गोया,
तुम और मैं,
बने है,
सिर्फ,
एक दूसरे के लिए,
पूरे के पूरे !
एक अनकहा वादा था,
साथ निभाने का,
पूरे महीने भर का !
मगर तुम,
ऐ नाज़नीन !
निकली बेवफा,
उस पूनम के चाँद की तरह,
जो होता चला गया,
कम,
रोज़ ब रोज़,
और गायब हो गयी तुम,
बीच महीने में,
पूरी तरह से,
मेरा साथ छोड़ कर,
चाँद की तरह !
अब मैं बैठा हूँ,
तन्हा !
खाली मलते हुए,
अपने हाथ,
और,
मेरे सामने बचा है,
काटने को,
आधा महीना,
पूरा का पूरा !

Sunday, November 7, 2010

थोड़ा शायराना हुआ जाए ...(Shayari - Majaal)

कमज़ोर हो के ढह  जा,
गुरूर उस ज गह जा !

बदजुबानी से तो अच्छा,
चुप रहके थोड़ा सह जा !

तुझसे बहुत पटती है,
फुर्सत तू संग ही रह जा !

मरज़  करता रुका पानी,
आँसू तू  बेहतर बह जा !

तेरा क्या बुरा मानें ?
उम्दा नीयत है, कह जा !

ख़ुशी और ग़म बराबर,
अरमानों की जो तह जा !

'मजाल' सच कब कड़वा ?
कड़वा होता बस लह जा !

Saturday, November 6, 2010

दर्शन हास्य - " प र व च न ! "

भगवन !
यह जगत भगदड़ !
सब तरफ भगमभग !
" हम परथम ! हम परथम !" सब बस यह रट !
मन व्यथत !
यह जगत,
लगत असत मम !
बस उलझन उलझन !
यह प्रशन, मम समझ पर !
मदद !!!
हल ! भगवन ! हल !

वत्स 'भरम मल' !
जगत सरल !
न प्रशन , न उत्तर, न लक्ष्य !
यह बस यह ; जस तस  !
यह सब भरम, दरअसल,  मन उपज !
जब मन भरमन सतत ,
तब हरदय धक धक !
धड़कन बढ़त - न वजह !
अतह, मत मचल !
धर सबर !

जब  जब मन असमनजस,
तब नयन बन्द,
कर  स्मरण मम !
हम सत्य !

हम अटल !
चरम, हम परम !
हम ब्रह्म !

कर श्रवण वचन मम !
जब मन व्यथत,
कर गरहण, अन्न जल,
हलक भर भर !
ढक  तन,
कर शयन - गहन !
तज सब मम पर !
तवम सब असमनजस, सब भय,
हम लय हर!

रह मस्त,रह मगन !
बस यह - यह बस !
फकत !

जगत सरल !

Friday, November 5, 2010

हास्य : कमेन्ट कर न कर पर कमबख्त, हाज़िरी तो लगाते जा !

अब जब आया ही गया है महफ़िल-ए-ब्लॉग में,
तो कोई निशानी तो छोड़ जा,
कमेन्ट न कर चाहे,
पर कमबख्त,
कम स कम,
हाज़िरी  तो लगा !

पोस्ट-ए-ब्लॉग को,
सींचा  है मेहनत से,
'मजाल' ये वो बाग़ है,
गुल-ए-कमेन्ट की महक से,
होता जो है रोशन ,
टिप्पणियाँ ही करती जिसे आबाद है !
चलेगी मजालिया तुकबंदी और,
सुमन  का 'nice' भी चलेगा,
चलेगी तेरी मर्जी,
हमे कोई  choice भी चलेगा !

कुछ न सूझे तो मुस्कारा के यूँ ( ; )
हौसला अफसाई ही कर दे,
तादाद ही बढ़ा !
जश्न में शरीक न हो न सही,
मगर कमबख्त,
कम स कम, 
ताली तो  बजा !

पसंद आये न आए,
टिकट तो कटवा ही चुका है !
फिल्म तो देख ही ली है पूरी,
पैसे तो गँवा ही चुका है !
किस्सा तो ख़तम होना ही था,
ऐसे या वैसे,
इन्टरनेट में नहीं लगते तो ,
तो कहीं और खर्च होते पैसे !
अब मातम मानने से तो अच्छा है,
फीका ही मुस्कुरा !
फीकी हँसी भी असर करेगी कमबख्त !
तू एक बारी तबीयत तो बना !

अब जब आया ही गया है महफ़िल-ए-ब्लॉग में,
तो कोई निशानी तो छोड़ जा,
कमेन्ट न कर चाहे,
पर कमबख्त,
कम स कम,

हाज़िरी  तो लगा !

Thursday, November 4, 2010

' कविताई ! ' : हास्य-कविता

वो, जिसे कहते है कविताई,
बनाने वाले ने,  ऐसी बनाई,
की सीधे समझ आई तो आई,
और जो न आई, तो  न आई !

जिसको ये न समझ में आई,
न समझा सकती उसे पूरी खुदाई,
चाहे भरकस जोर लो लगाईं, 
हर प्रयास विफल हो जाई,
क्योकि वो कहेगा ' भाई,
हमको एक बात दो समझाई ,
हमरे पिताजी के बस छोटे भाई,
नहीं उनका कोई बड़ा भाई,
तो फिर इसको होना चाही,
कविचाची, और न की कविताई ! '

इसलिए हम कहते है पाई ,
खेल ये दिमागी नहीं है साईं,
इसलिए छोड़ो मगज खपाई, 
न समय  की करों यूँ गवाई,
अगर अब भी बात न समझ आई,
तो छोड़ो मुई को, आगे बढ़ो भाई,
है और भी ग़म, जमाने में भाई ,
 उनको ही  लो आजमाई !

जहां  तक 'मजाल'  का सवाल हाई ,
तो हम वापस देतें  दोहराई ,
की वक़्त ही वक़्त कमबख्त है भाई,
क्या कीजे, गर न कीजे  कविताई ....  !

Wednesday, November 3, 2010

एक ग़ज़ल : किसी ने तेरा बुरा भला कब किया ? किया खुदी का अपना, तूने जब किया ! Shayri - Majaal)

किसी ने  तेरा बुरा भला  कब किया  ?
किया खुदी का अपना, तूने जब किया !

बस थोड़े से में सीखी पूरी जिंदगी,
पूरा किया पर उसे, जो भी जब किया !

जो टालते गए, वो टालते गए,
उसी ने किया, जिसने अब किया !
 
हसीं, प्यार, रश्क, अश्क एक में,
या खुदा ! ये तूने क्या गज़ब किया !

हमको तो कभी मिला जवाब ना,
ताउम्र जिंदगी से है तलब किया !

'मजाल' हँसने की वजह कोई नहीं,
पर रोने का भी बताएँ, सबब किया ?!

Tuesday, November 2, 2010

हास्य-कविता : आप से तू, और फिर तू से गाली में, आ गए आखिर, साहब अपनीवाली में !

आप से तू और फिर,
तू से गाली में,
आ गए आखिर,
साहब अपनीवाली  में !

भेद नहीं करते वो,
साली और घरवाली में,
कितनी ही बार पाए गए,
पी कर टुन्न  नाली में !

सीखे है सारे ऐब,
उन्होंने उम्र बाली में,
छूटे है जेल से,
सरकार  अभी हाली में !

समझ लीजिये लगे हुए है,
कोई काम जाली में,
इतनी जल्दी  नहीं होता ,
सुधार हालत माली में !

क्या इल्म देंगे आप  उन्हें,
हिंदी या बंगाली में,
फर्क ही नहीं जिन्हें,
ग़ज़ल और कव्वाली में !

काटें ही उगने है जनाब,
बबूल की डाली में,
माहौल चाहे  श्राद्ध हो,
या फिर  दिवाली में ?!


बस  चट्टे बट्टे ही नहीं,
भरे है थाली में,
शरीफ भी है बचे हुए,
इस बस्ती मवाली में,
जिमेदारी को अपनी,
समझिए 'मजाल',
चुनाव नहीं होते है,
यूँ ही बस खाली में !

Monday, November 1, 2010

हास्य गीत : अरे ! आज तो पड़ी बड़ी, कड़ाके की ठंड है !

कुछ दिनों से मौसम खुशनुमा हो गया है. सुबह की हवाएँ ठंडक लिए हुई है. एक आद हफ्ते में ठण्ड पूरी तरह से शबाब में आ जानी चाहिए... बहरहाल, एक हास्य गीत ठण्ड पर ....  

अरे ! आज तो पड़ी बड़ी,
कड़ाके की ठंड है !
ठिठुर ठिठुर के भर रही,
दिल में उमंग है !
इनदिनों है काँपता,
फिरे  सारा बदन,
बचाते फिर रहें है हम ,
अपना पूरा तन,
ऊपर से बाहर छाया है ,
कोहरा घुप घन,
घर से बाहर जाने का,
बिलकुल करे न मन !
दुनिया में सबसे हसीं जगह,
आज ये पलंग है !
दुबके रहना रजाई में ही,
आज तो पसंद है !

अरे ! आज तो पड़ी बड़ी,
कड़ाके की ठंड है ! ....

शून्य के करीब,
डोलता है तापमान,
बाल्टी का पानी,
बरफ होने को मेरी जान !
हमाम जाने में,
निकलते है मेरे प्राण !
गीज़र न हो तो,
गैस पर गरम करो श्रीमान!
की मिज़ाज आजकल ,
मौसम का अंड बंड है !
ठंडे पानी की छुअन से ही,
तबीयत होती झंड है !

अरे ! आज तो पड़ी बड़ी,
कड़ाके की ठंड है ! ....

कंपकंपाती आवाज में,
गुनगुनाते मौसम आया !
जेब हाथ सीटी ,
बजाते मौसम आया !
सूत सूत खूब,
खाने का मौसम आया,
फिर से एक बार ,
है हमने ये पाया की ,
पकौड़े  ये जन्दगी के,
बहुत अहम् से अंग है !
स्वर्ग है यहीं पे जो,
चटनी भी अगर संग है !

अरे ! आज तो पड़ी बड़ी,
कड़ाके की ठंड है ! ....

नाक बहती यूँ की,
समंदर कोई उफान !
खाँस खाँस आ गए,
हलक में मेरे प्राण !
टोपी, मफलर, दस्तानों का,
सब तरफ बखान,
स्वेटर, जैकट, जो भी गरम,
है इनदिनों महान !
उफ़! इस ठंड का प्रकोप,
हमें लगे अनंत है !
धैर्य धरो पार्थ !
की आगे आता वसंत है !

अरे ! आज तो पड़ी बड़ी,
कड़ाके की ठंड है !  ....

Sunday, October 31, 2010

हास्य विषय गंभीर !

जब ई मनवा विचलित,
चिंतन होवे अधीर,
पाना चाही सुकुनवा,
जइसन  उड़ती चील !
मति ही मति का ठेंगा,
दिखाईने छोड़त सौ तीर,
उनमे से एक आदि,
निसाना लगत  सटीक !
तब जाकर ई मगजवा,
आवे  बाजन ढीठ   !
आऊर  लगाई ठाहाकवा,
भुलइके  सारी टीस !
ईका  न समझी तुम,
पका पकाया खीर,
कहत 'मजाल' ई ससुरा,
हास्य विसय गंभीर !

राँझा मिलन न हीर ?
फुटवा गया तकदीर ?
काहे शोक मनावत,
जीवन की बाकन रील,
कभी सलमान दबंगवा,
कभी पीटत  हई वीर !
जीवन जइसन अमवा,
चीजन  ई खट मीठ !
जब ई आवत समझवा,
मज़ाक बनत  पेचीद !
तब जाकर ई मनवा,
छोड़त  तनना फीर,  
अऊर  इस तरहवा,
तनाव  पावत  ढील !
कहत 'मजाल' ई ससुरा,
हास्य विसय गंभीर !

Saturday, October 30, 2010

एक गीत - ' जान लेगा कभी ... '

कठिनाई की डगर,
मुश्किलों का सफ़र,
बनके यादें शहद,
देंगी मीठा असर.


जान लेगा कभी,
काम का है सबर.
आप ही कभी खुद, 
करने लगेगा कदर.


आज सोचे जो तू,
है ये सब बेसबब,
जान लेगा कभी,
काम आए हर सबक.

दुनिया में ये जहर,
सब तरफ बस कहर,
दिखता है जो तुझे,
हर पल, हर पहर.
कोई भी ये नज़र,
न बुरी इस कदर,
बात की पूरी जब ,
तुझको होगी खबर.
अपनों के ही लिए,
है ये सारी फिकर,
जान लेगा कभी,
बिन किये ये जिकर...  

खुली हुई नज़र,
से तू देखे अगर,
जान लेगा कभी,
राज़ ये हमसफ़र.
चाहे जितना ग़दर,
चाहे जितना कहर,
दुनिया में है भरा, 
चाहे जितना ज़हर,
प्यार से ही मगर,
बसते सारे नगर,
है जो भी आज तू,
वो बस दुआ का असर

अपनों के ही लिए,
है ये सारी फिकर,
जान लेगा कभी,
बिन किये ये जिकर ....

Friday, October 29, 2010

सारांश

"बिकी हुई दवाई,
नहीं होगी वापस भाई,
न कोई अदल-बदल,
और ना ही,
कोई और दखल !
कृपया दवाई उतनी ही लें,
जिंतनी की चाहिए,
इस तरह अपना मूल्य,
और समय अमूल्य,
दोनों को बचाइये ! "

कहने को एक तख्ती थी लकड़ी की,
जिस पर टंगा था एक विचार,
पर जो इस विचार पर किया जाए विचार,
तो पाइएगा मियाँ 'मजाल',
की छुपा हुआ है इसमें,
कितनें ही सालों का अनुभव,
किसी की जिंदगी का,
पूरा सार !

Thursday, October 28, 2010

शायरी : ना बुरा हुआ, ना बढ़िया हुआ, हुआ वही, जो नज़रिया हुआ ! ( Shayari - Majaal )

ना बुरा हुआ, ना  बढ़िया हुआ,
हुआ वही, जो नज़रिया हुआ !

औरों के लिए, हुई वो मातम,
बीमार तो मरा, और रिहा हुआ !

बच्चा खुश, की सबकुछ है नया ,
बूढ़ा परेशां,  'है सब किया हुआ !'

नाउम्मीदी को सूरज में लगे अँधेरा,
उम्मीद को काफी, एक दिया हुआ ! 

रुकने वाला रुकेगा इंसानियत पर ,
बढ़ने वाला, सुन्नी हुआ, शिया हुआ !

हमें तो मतलब, उम्दा नीयत से,
हुआ बाहमन , या मियाँ हुआ !

रोने से फुर्सत, तब देखे आँखे,
मालिक ने कितना दिया हुआ !

जो हुआ, वो हुआ, की होना वही था,
क्या सोचना 'मजाल', ' ये क्या हुआ' ?!

Wednesday, October 27, 2010

' इश्कियापन्ती ' : हास्य-कविता ( Hasya Kavita - Majaal )

तुझे पाने की हसरत लिए,
हमें एक जमाना हो गया !
नयी नयी शायरी,
करते तेरे पीछे,
देख मैं शायर कितना,
पुराना हो गया !

मुए इस दिल को,
संभालना पड़ता है,
हर वक़्त !
दिल न हुआ गोया,
बिन पजामे का,
नाड़ा हो गया !

मरज में न फरक,
तोहफों में खरच अलग !
इलाज में  खाली सारा,
अपना  खज़ाना हो गया  !

दिल दर्द से भरा,
और जेबें खाली !
ग़म ही इन दिनों,
अपना खाना हो गया !

मुद्दतें हो गयी ,
रोग जाता नहीं दिखता,
अस्पताल ही अब अपना,
ठिकाना हो गया !

तू भी तो बाज़ आ कभी ,
इश्कियापन्ती  से 'मजाल'
पागल भी  देख तुझे,
कब का सयाना हो गया !

Tuesday, October 26, 2010

शायरी - ' कौन पाले ये रोग खाँमखाँ ....' ( Shayari - Majaal )

आधी उम्र  गुज़री, करने में बचत,
बची हुई, करने में उसकी हिफाज़त !

जब मालूम हुआ , तो हुई न हैरानगी,
कटे जिस्म से, पाया गया दिल नदारद !

रिश्तों को निभाने में, सब समझ गयी,
सहीं हों या गलत, बस कीजे वकालत !

हम मालिक एक घर के, हमारी ये गत !
तू मालिक जहाँ का, तेरी क्या हालत !!

'मजाल' पाले खाँमखाँ   ये रोग क्यों ?
ये तख्तो-ताज आपको, बहुत है मुबारक !

Monday, October 25, 2010

भाईसाहब कभी 'नीट' नहीं पीते!

दावा दारु है लिखते संग संग,
राज़ है इसका कुछ कुछ ऐसा,
थोडा मिला कर दिया जाए जो,
 दारु का असर, दवा के जैसा  !

है भेद पर इससे भी कुछ गहरा,
अँधेरी  हद पर बसे सवेरा,
सीधे सीधे समझ न आए,
जिंदगी 'मजाल', खेल है  टेढ़ा !

आए मौसम पतझड़,  सावन,
कई मिले और बिछड़े  साथी,
आए, रुके और बीत गए सब,
पल खुशियों के, या ग़म साथी.

जिंदगी का खेल  पेचीदा ,
उलझन, सुलझन मिल जुल आए,
कभी अपने दे जाएँ  दगा,  और,
कभी बेगाने मदद कर जाए !

सीखा उन्होंने धीरे धीरे,
रम से ग़म,  होता नहीं कम,
पीना  पड़ता, ग़म सीधे ही,
और थोड़े सलीके से सनम.

बदती उम्र ने सिखा दिया सलीका,
बातें  वो, अब दिल पर ले नहीं जीतें,
लेतें है गम, मज़ाक के साथ घोल कर,
कि भाईसाहब कभी 'नीट' नहीं पीते!

Sunday, October 24, 2010

पिता - जिक्र उनका, जो रह जातें है अक्सर बे-जिक्र से ..............

जिक्र उनका लफ़्ज़ों में, जिनसे है सीखे लफ्ज़ ?!
बस खुदा ही समझ लीजिये, इंसान की तरह ...

कुछ इस तरह से देतें, ऊपरवाले को सजदे,
करतें  है अपने काम को, ईमान की तरह !
है छोटा या बड़ा , ये फिकर उनको है नहीं,
लेतें है हर एक चीज़ को, मकाम की तरह ! 
जो कर रहे, उसी को बना लेतें है शगल,
मेहनत बना देतें है , वो आराम की तरह !

मौका हो  चाहे ख़ुशी का, या चाहे मिले ग़म,
कबूलतें सबकुछ, खुदा-फरमान की तरह !
एक जिंदगी का नशा ही, उनके लिए काफी,
पानी भी वो पीतें है, बिलकुल जाम की तरह !


हर कोई चाहे मिलना , माँ के जैसा दुलार,
की गहरा उसका प्यार, कोई खान की तरह,
खुशनसीबियों की  तेरी, इन्तिहाँ नहीं 'मजाल'
की माँ मिली है, बिलकुल अब्बाजान  की तरह !

बारिश से बचाया, कभी किया जाहिर नहीं,
रिश्ता मगर बुनियादी, छत-मकान की तरह !
 पेचीदगी,पोशीदगी, ही है  खूबसूरती ,
हिजाब में छुपी हुई , उस आन की तरह !

बेमिसाली की मिसाल, इससे ज्यादा क्या 'मजाल' ?
जीतें है  जिंदगी वो , बड़ी ही आम की तरह !

Saturday, October 23, 2010

एक ग़ज़ल

बस रश्क, बीमारी, लोगों की दुहाई रखी है,
जिंदगी भर की तूने, ये क्या कमाई रखी है ?!

अब हमें मालूम पड़ा, उसकी परेशानी का सबब,
दूसरों से बहुत उसने , उम्मीदें  लगाईं रखी है !

वो पूछते है हमसे, क्या है बुलंदी का राज ?
दिखा दे फिर अदा वो जो, बनी बनाई रखी है !

जहाँ ये देख हैं चुके , जहन्नुम से क्या डरें ?
वहाँ  भी कौन सी बची, नयी  बुराई रखी है ?!

है खेल तेरा क्या , कौन समझ पाया खुदा ?
जादू में गज़ब की तूने , अपनी सफाई रखी है !

जो मुस्कुरादे आज तू ,  है तेरी क्या 'मजाल'  ?
खुशियों की पंडित ने पहले,  तारीख बताई रखी है !

Friday, October 22, 2010

' लंगोटिया यार ! ' : हास्य-कविता ( Hasya Kavita - Majaal )

एक थे लम्बूद्दीन 'लंब',
हम कहते नहीं है दंभ,
थे वो इस कदर लंबे,
पाँव जैसे खंबे !
हाथ जैसे कानून,
ये लंबे, ये ssss लंबे !

एक थे मोटूराम  'मोटी',
हम देतें नहीं गोटी,
तोंद उनकी ये मोटी,
ये ssss भयंकर  मोटी,
की  साक्षात 'मोटा' शब्द,
उनके समक्ष  लगता था दुबला !
हर तबीयत, हर तंदरुस्ती,
उनके सामने थी खोटी !

'लंब' और 'मोटी' मिले जिस दिन,
ज्ञानी  जन  कहते है की उस दिन,
नक्षत्रों का बना विचित्र योग ,
ऐसा संयोग अत्यंत दूभर,
आंकड़े ऐसे , परे  सब मति,
यदा कदा, सदियों में, होती ऐसी युति.

हुआ लंब और मोटी का मिलन जब ,
धरे के धरे रह गए, सारे तर्क विज्ञान,  सब ज्योतिषी,
व्याकरण रह गया ताकता फटी आँख ,
संधि  के नियमों को पहना दी गयी टोपी ,
'ब' और 'मो' मिलकर  हुआ 'गो'
लंब 'धन' मोटी बन गया 'लंगोटी' !

यारी दोनों  की चढ़ी वो परवान,
की नीचे रह गए सारे वेद कुरान ,
उठी इंसानियत, बन कर सरताज,
नयी दिशा, जीवन का नया आगाज़,
बस प्रेम बना सत्य अंतिम ,
बाकी सब बातें बेकार,
और शुरू प्रचलन नया  मुहावरा,
तू  है मेरा 'लंगोटिया यार' !

Wednesday, October 20, 2010

हास्य-कविता : ' उर्दू शायरी की तरह तुम, प्रिय ! ' ( Hasya Kavita - Majaal )

क्लिष्ट !
गूढ़ !
उलझी हुई !
मुश्किल !
पेचीदा !
मगर दिलचस्प !
उर्दू शायरी की तरह तुम, प्रिय !
समझ में तो,
कम ही आती हो,
मगर,
पढ़ने  में तुम्हें ,
मज़ा बहुत आता है !
कुल मिला कर,
कुछ खास,
पल्ले तो नहीं पड़ता,
मगर,
कोशिशों में,
समझने के,
प्रयासों में तुम्हें,
वक़्त तुम्हारे साथ,
अपना  खूब कट जाता है !

उर्दू शायरी की तरह तुम,
प्रिय !

Tuesday, October 19, 2010

' शोक न कर, खेद न कर ! ' : हास्य-कविता ( Hasya Kavita - Majaal )

जो हो गया, सो हो गया,
शोक न कर, खेद न कर,
क्या ?क्यों ? कैसे ? सोच कर,
दिमाग की संधि विच्छेद न कर !

टीना नहीं, मीना सहीं,
मीना नहीं, लीना सही,
जो मिल गया, वो मिल गया,
जो ना मिला, वो ना सहीं !
सम्मान कर तू रूप का,
यौवन में कोई भेद न कर !
शोक न कर, खेद न कर ...

जिंदगी में वैसे ही बहुत,
ग़मों का लगा अंबार है,
दुखों से पहले ही बहुत,
भरा  हुआ संसार है,
पहले से फटी जिंदगी,
फटें में तू और छेद न कर !
शोक न कर, खेद न कर ...

ग़म को न दे तवज्जो तू ,
ख़ुशी से न तू फूल जा,
बस ले मज़ा हर  पल का एक,
जीवन है झूला, झूल जा !
यादों को याद कर कर के,
क्या भला तू पाएगा ?
बढेगा बस दुख ही तेरा,
बस सोच कर थक जाएगा.
इसलिए मियां 'मजाल',
विचारों  की परेड न कर !
शोक न कर खेद न कर ...

माना की हर कदम इसके,
मुसीबतें और आफत है,
मगर प्यारे, जहाँ जिन्दा,
अपनी जाँ जब तक सलामत है !
अभी सजी हुई बाज़ी,
अभी तो तू न हारा है,
बीच में यूँ छोड़ना,
'मजाल' न गवाँरा है,
बाकी अभी फिल्म बहुत,
'interval ' में ही 'the end ' न कर  !
शोक न कर, खेद न कर ....

Monday, October 18, 2010

' काण्ड !' : हास्य-कविता ( Hasya Kavita - Majaal )

'आपकी रचना की तिथि अगस्त ,
और मेरी  वाली की,
महीना जुलाई है,
परवाना  होता है,
 शमा में भस्म,
ये बात मैंने आपसे,
पूरे एक महीना पहले,
पता लगाई है...'

मैंने देखा,
जनाब सामने खड़े थे,
सेहत सींकिया ,
पर तेवर पहलवानी,
चहरे पे छाया था,
मातम नाकामयाबी,
कारण भी साफ़ सा,
दीखता था आसानी,
की हुनर फुटपाथिया,
पर ख्वाब आसमानी !
लड़ने का मूड है,
जता चुके थे,
समझ कितनी रखते खुद की,
खबर कितनी दुनिया की,
परवाने का उदाहरण देकर,
बता चुके थे !
'ये  खूब रही की आपकी,
और हमारी सोच मिल पाई,
नहीं तो इसने कब,
किसी से लम्बी निभाई ?
कभी आपके पास गयी,
कभी हमारे पास आई,
सोच चीज़ ही तवायफ,
किसकी सच्ची लुगाई ?!
अब मिलें है किस्मत से हम,
तो खुशियाँ मनाइए,
लगिए गले,  कीजिये ख़त्म ,
बात क्यों आगे बढ़ाइए ? ..'

 'बात को यूँ,
 हलके में न लीजिये,
गर चोरी करने की,
 रखते है 'मजाल',
तो कबूल करने के,
हौसले भी साथ रखिये ,
आप तो बात से,
साफ़ मुकर जातें है,
ऊपर से सोच की,
खिल्ली उड़ातें   है,
नहीं सीखा क्या आपने,
कदर-ए-हुनर करना,
माँ-बाप से क्या,
यहीं संस्कार पातें है .. ?'

अब यूँ तो 'मजाल',
सीधा-सच्चा प्राणी,
न छुए शराब,
न ताके नारी,
पर जो बात पहुँच जाए खानदानी,
फिर तमीज गयी तेल लेने,
शरम भरने पानी !
भूल जाए मियाँ  'मजाल' तब सब कुछ,
और दिखा  दें फिर जात,
 शायराना अपनीवाली   !

' भाई हम तो बजा ही फरमा  रहे है,
तेवर तो आप ही  दिखा रहे है,
अब  खानदान का जिक्र,
कर दिया तो सुनिए,
'मजाल' आपको,
पूरी कहानी सुना रहे है'

'माँ-बाप ने तो बताया,
हमने बस इतना,
की बेटा 'मजाल',
आदमी चीज़ है अदना,
खुदा ने पूरी दुनिया,
चुपचाप बनाई,
बिना जिक्र छेड़े,
बिना दिए दुहाई,
पर आदमी की हजूर,
क्या कहिये तबीयत !
जरा कुछ हुआ नहीं,
की बात तेरे-मेरे पर आई !
जो ऊपर वाला किसी दिन,
आ गया हिसाब मांगने  पे,
तो लूट जाएगी पूरी सल्तनत
निभाने में,
रस्मों मूंह दिखाई !
इसलिए मेरे भाई,
छोड़ो  ये खांमखां  की लड़ाई,
बनाया उपरवाले ने सब कुछ ,
न लगी आपकी कुछ ,
न मेरी कमाई !'

'व्यर्थ की बातें न बनाइये,
ऊपर वाले को बीच में न लाइए,
इलज़ाम लगा है आप पर,
बात को उससे आगे न बदाइए
सीधे कबूलें चोरी तो बेहतर,
नहीं तो हमसे,
कानूनी नोटिस पाइए '


'हद करतें है साहब !
क्या कहना चाहतें है आप ?
क्या ब्रम्हा  ने ये रचना,
सबसे पहले क्या,
 कानों में आ कर सुनाई थी ?
आपको क्या लगता है,
पहले प्रेम की बाती,
क्या आपने जलाई थी ?
आपसे पहले किसी को सूझी नहीं ?
परवाने की शहादत परंपरा,
अपने घर से  शुरू करवाई थी ?!
सदियों से चल रही है ये बात,
हज़ारों बार हो चुका है ,
इस्तेमाल हर जज़्बात,
मौलिक तभी तक चीज़ कोई ,
जब तक की उसका,
स्रोत न हो ज्ञात !
अभी भी कोई भरम है,
तो मुगालातें दूर करवाता हूँ,
थोड़ी महोलत  दीजिये नाचीज़ को,
अभी दो मिनट में अंकल गूगल से ,
आपकी बाकी सारी रचनाओं की,
'प्रेरणाओं' का भी पता लगाता हूँ !'

' अरे अरे !
कहाँ चले ?!
कानूनी नोटिस तो देतें जाइए !
हमें  भी तो चले पता,
आखिर क्या होती है सख्ती !
सहीं कहते है आप जनाब,
चुराई  ही होगी,
क्यों आप जैसों से,
अपनी सोच तो,
यकीनन  नहीं मिल सकती .. ! '

Saturday, October 16, 2010

' गुब्बारा ! ' : हास्य-कविता ! ( Hasya Kavita - Majaal )

टीवी पर क्रिकेट मैच,
बीच विज्ञापन आया,
सामने सुन्दर बाला,
'अरे वाह ! पटाखा !',
'गदगदा बदन,
जैसे गुदा हुआ आटा  !
सूरत इसकी काफी,
मिलती जुलती 'ज्योति',
उन दिनों जो हम ,
दिखा देतें थोड़ी हिम्मत ,
कमबख्त आज,
वो शायाद  अपनी होती !'

'अरे, ये किचन में,
आवाज़ कैसी  आई ?
ओ तेरी  ! फिर भूला,
लाना चूहा दवाई !
दवाइयों की कीमत,
है आसमान छूती,
पगार वहीँ पुरानी,
कैसे कटेगी  रोटी ?!
और बेटी की भी शादी,
करनी है कुछ बरस में,
जिंदगी है बीती ,
खरच ही खरच में !

जिंदगी भी देखो,
क्या चीज़ ये अजब है,
कोई बिज़ी बिज़ी बस,
कोई जीता बेसबब है!
कोई साहिल किनारे,
कोई लगता गोता,
कौन क्या है पाता,
जाने कौन क्या है खोता ?
हम भी कर लेते कुछ तो,
जो मिल जाता एक मौका,
अरे हो गया मैच  शुरू,
ये लगाया चौका !

एक मिनट की मौहलत ,
आधी दुनिया घूम आया यारा,
बची भी नाप देगा,
जो  छोड़ दोगे उसे दोब्बारा ,
अंट संट जाएगा,
जो बिन बांधे छोड़ा,
मन कमबख्त 'मजाल' ,
है एक ऐसा गुब्बारा !

हास्य-व्यंग्य कविता : 'अनूठे लाल' फकत, 'अजीब अली' हो गए ! ( Hasya Vyangya Kavita - Majaal )

अनूठे लाल नाम से ही नहीं,
काम से भी अनूठे,
सब कुछ चखें जीवन में,
ताज़ा या झूठे.
शराब, शबाब, कबाब,
मिला बेहिसाब,
फिर भी जितना खाए साहब,
रह जाए भूखे  !

एक दिन एक बाह्ममन से,
पड़ गया पाला.
उसने लाल साहब पर,
मौका देख जाल डाला.
' यजमान, थोड़ा करिए संकोच,
कुछ तो शर्माइये,
इस उम्र में यह हरकते,
देती नहीं शोभा,
अंतिम पड़ाव निकट है,
अब तो सुधर जाइए.
थोड़ा दान पुण्य करें,
तो बात बने.
करम दुरुस्त हो आपके,
जो थोड़ा व्रत धरें.
नारी को एक ही द्रष्टि से,
देखना करेगा व्यथित,
मुंहबोली  ही बना लें जो,
एक बहिन, तो उचित ...'

अनूठे लाल को पंडित की,
बात कुछ जमी.
सोचा ससुरा पण्डवा ,
बोलता तो बात सहीं.
इस जिंदगी के दिनों का तो ,
गिना चुना ही बचा दर्जा,
आगे की व्यवस्था भी, जो कर लें,
तो क्या हर्जा  ?!

अनूठे लाल के मिजाज़,
अब कुछ यूँ पाए जातें है.
गुरूवार हनुमान जी के लिए निर्धारित है,
इसीलिए, बुधवार को थोड़ा,
ज्यादा कबाब खा जातें है !
' उपवास रखा है आज ! ' ,
आधी दुनिया को बतातें  है.
रोजाना जितना अन्न,
नहीं खाते जनाब,
उपवास के दिन वो ,
उससे ज्यादा भाव खा जातें है !
मुहबोली बहिन से तो,
रखते है दूरी पर,
साथ साथ,
उसकी पड़ोसन से,
अनामी संबंध भी,
श्रद्धानुसार निभातें है !
पंडित दोष न निकले,
इसीलिए उन्हें भी,
उचित दक्षिणा दे,
अपना  स्वर्ग सुनिश्चित करातें है !

कमबख्त तबीयत !
फिर वही कहानी दुहराती.
ढाक के निकलते ,
आखिर में वहीँ तीन पाती !
कुछ भी कर लो,
जुगाड़ मेरे यार,
पुरानी आदतें  मगर,
'मजाल' नहीं जाती !


नीयत  न हुई सही,
तबीयत वहीँ की वहीँ,
किस्से साहब के गली गली,
मशहूर हो गए.
लोग कहते है ,
क्या खूब बदले हजूर-ए-आला !
'अनूठे लाल' फकत,
'अजीब अली' हो गए !

Friday, October 15, 2010

जिंदगी - दे दिए इम्तिहाँ सारे पढ़ाई समझ के .. !

ख़ुशी मिली, तो खा गए, मिठाई समझ के,
जो ग़म मिला, तो खा गए, दवाई समझ के !

किया दोस्तों को माफ़, बवाफ़ाई समझ के,
दुश्मनों को भी दी माफ़ी , छोटा भाई समझ के !

अच्छा वक़्त काटा, हुनर नाई समझ के,
बुरे वक़्त को भी काट दिया, कसाई समझ के !

सारी मौजों को निभा गए, शहनाई समझ के,
मुसीबतों को भी निभा गए, बूढ़ी माई समझ के !

मिली दाद, तो भुला दिया बढ़ाई समझ के,
जो तोहमत लगी, भुला दिया लड़ाई समझ के !

जिंदगी को चख़ लिया  मलाई समझ के,
मौत को भी चख लिया रिहाई समझ के !

बेशक़ वाकिफ थे, नतीजा-ए-जिंदगी 'मजाल',
पर सारे इम्तिहाँ दिए , पढ़ाई समझ के !

Thursday, October 14, 2010

' च न क ट ! ' - हास्य-कविता ( Hasya Kavita - Majaal )

उफ़ !
वह समय !
जब तवम,
यह जगत,
उपसथत !

तवम परम जड़ मत !
सब यतन-जतन,
सब  गरह,
तवम समक्ष,
असफल !
' यह मम रच ?! '
सवयम भगवन अचरज ! 

यह बड़ कद कठ,
न कम धम करत ,
बस धन खरच,
खपत खपत फकत !
हमर नक दम,
जब तब !

कमबखत !
करम जल !
हम गय पक ! 
समझ यह  हद !
अब जल सर चढ़ !
हमर सबर ख़तम !

अगर अब करत उलट पलट !
तवम पठ, हमर लठ !
बक बक न कर,
हम धर, 
एक चनकट !

Wednesday, October 13, 2010

एक कविता मौत पर - ' मृत्यु दर्शन'

खुद से, दूसरों से, 
कभी जिंदगी से लड़ते है,
जाने या अनजाने, 

अन्दर इक तैयारी करते है.
जानते की अंजाम बुरा, 

सुनते मगर कब है?
कोई जल्दी, कोई देर से, 

थकते मगर सब है.
दमा, दिल का दौरा, 

लकवा, गुर्दे ख़राब,
लफ्ज लगते है जुदा, 

सबका मगर एक हिसाब.
सुझानी हकीम को कोई वजह,

तो कहता, 'की इसलिए',
बात दरअसल ये थी,

'जियें तो जियें किसलिए ?!'
अपने अपने ढंग से सब,

मौत की ओर सरकते है,
कौन मरता कुदरतन 'मजाल',

सब खुदखुशी ही करते है!

Tuesday, October 12, 2010

' माल-ए-मुफ्त, दिल-ए-बेरहम ! ' : हास्य-कविता ( Hasya Kavita - Majaal )

वाह साहिब !
क्या मुश्किल आपकी !
क्या विकट स्तिथि, क्या भरम ?!
शुरू करें मीठे से,
या चखे  पहले खमण !

रसगुल्ला न गटका,
तो क्या दावत उड़ाई ?!
डाईबटीस जाए भाड़ में,
थोड़ी सी रसमलाई  !

मियां 'मजाल' रह रह कर,
दिमागी अटकलों में उलझ जाएँ ,
शाही पनीर आजमाए,
या कोरमे पर शौक फरमाए  ! 

 न छोड़ी नान,
और तंदूरी रोटी भी खाई,
पेट ने डकार मार दिया संदेसा,
पर थे अपनी धुन में भाई !

इमरती नरम,
गुलाब जामुन,
गरमा गरम !
माल-ए-मुफ्त,
दिल-ए-बेरहम !
सूते जाईये  'मजाल',
समझ के, खुदा का करम !

कॉफ़ी  की भी मारी चुस्कियाँ,
कोका कोला  भी पेट में उड़ोला  !
ठंडे , गरम का न किया लिहाज़,
भाई ने किसो को नहीं छोड़ा !

समापन समारोह में भी,
तबीयत कब शरमाई ?!
पान भी चबा गए कई,
शिकंगी भी खूब भराई !

सोचा था हजूर ने,
मौका है न गवाओं,
एक सौ एक का,
लिफ़ाफ़ा  थमाया है,
कम से कम दौ सौ का तो,
माल उड़ाओ!

पर किस्मत  ने करी चोट,
तबीवत ने दिखाई  चतुराई !
अगले दिन सुबह सुबह ,
पेट ने दी दुहाई !

पार्टी में वसूली का,
नुस्खा न काम आया,
डाक्टर ने अलग से,
घुसेड़ा  इंजेक्शन,  
दवा ने अलग,
अपने वास्ते ,
पाँच  सौ एक का,
शगुन लगवाया !

Monday, October 11, 2010

' परम !!! ' : हास्य-कविता ( Hasya Kavita - Majaal )

'मजाल' का ख़याल,
खुद के बारे में बेमिसाल !
हम में दम !
हम है बम !
कौन हम सम ?!
हम है हम !!
 
निकले मियाँ घर से,
सीना फूला अकड़ के,
अपनी ही धुन में,
हजूर-ए-दबंग !

सामने दिखा एक,
खेलता हुआ बच्चा,
उसी पे लगे,
उड़ेलने अपना रंग !

' सुन ऐ बच्चे,
 अक्ल के कच्चे,
तू  क्या समझेगा,
जिंदगी के माथा पच्चे !
बाकी सब है फर्जी,
बस हम है सच्चे !

हम रूस की तोप !
हम इटली के पोप !
हम कहते है गहरी,
हमारी बातें गोप !

हम हम,
हम हम,
बस,
हम ही हम !

क्या आख्ने तकता है ?
शायरी समझता है ?
हम है शायरे आज़म !
क्यों नहीं सलाम करता है ?! '

' इतने सारे हम,
फिर भी  पड़ जाए कम ?!
अंकल, ऐसे हम से बेहतर ,
जितना बचे हम !
आपको बहुत मुबारक,
आपके रंग ढंग,
हमें खेलने दीजिये ,
न करिए तंग !'  

' अरे नादान,
हमसे गुसाखी करता है ?
क्या पता नहीं तुझे,
कवि क्रान्ति गढ़ता  है !
हमारी सोच जिस दिन ,
दुनिया अपनाएगी,
ये धरती जन्नत,
तब से बन जाएगी.
पर जैसे टुच्चे लोग,
वैसी  ही सोच तुच्छ ,
क्या समझेंगे वो,
हमारे विचार उच्य  !
हमारी सोच की क़द्र नहीं,
दुनिया पे गिरे गाज !
सुनाता कौन है आखिर,
नक्कारखाने  में तूती की आवाज़ ! '

' समझ गए अंकल हम,
आप है महान !
क्यों खामखाँ यहाँ करते,
अपना अमूल्य ज्ञान कुर्बान ?!
हमारे है बस दो,
आपके चार कान !
फिर भी कम पड़ जाता,
जितना करो गुणगान !

हम आप के पाँव की जूती,
हम नक्कारखाना , आप तूती !
ढूंढें  नहीं मिलेंगे, आप जैसे निराले,
आप अद्वितीय ! आप बिराले !
बखूबी समझ गए हम ,
की आप न है समझने वाले,
तूतिये  है आप 'मजाल' ,
और वो भी बड़ेवाले !'

जो बच्चे ने दी सीख ,
तब हुए तेवर  नरम,
सीख गए अब हजूर ,
खुद को करना हज़म !
मुगालतों  से निकलिए,
छोड़िए पालना भरम,
वर्ना मियां 'मजाल',
कहलाइएगा   ' परम !!! '

Sunday, October 10, 2010

कट्टी पुच्ची : बाल-कविता ( Bal Kavita - Majaal )

जितना हो सके, उत्ती कर लें,
झूठी नहीं, सच्ची मुच्ची कर लें,
ग़म से कर ले, हम कुट्टी ,
और खुशियों से , पुच्ची  कर लें !

ग़म होती है, गन्दी चिज्जी,
ख़ुशी होती, चिज्जी अच्छी,
अच्छी  अच्छी,  करें पक्की,
गन्दी को, हम 'छी छी' कर दें !


मिल जुल कर रहे सदा हम,
न लड़े, न हो खफा हम,
गुस्सा आए, तो उसे हम ,
माँ जैसी प्यारी, थप्पी  कर दें !

हँसता चेहरा सबको जँचता,
लगता सबको अच्छा अच्छा,
जैसे गोलू मोलू बच्चा,
सबको लगता - पप्पी कर दें !

Saturday, October 9, 2010

' धत !!! ' : हास्य-कविता ( Hasya Kavita - Majaal )

' धत !!!'  - कलात्मक हास्य (बिना मात्रा )

' तब कब ? '
' कल ! '

'तवम न अवगत,
वह कहवत -  न टल कर पर, कर अब ! 
तवम इक इक हरकत,
हमर प्रण हर !
तवम अधर - रस रस !
सब इनदरय तड़पत फड़ फड़ !
न बन हरदय पतथर !
बस एक,
एक बस !
लब पर लब सपरश ! '

'यह समय ?
न प्रशन !'

' तब कब ? रत बखत ? '

' धत  !!! '

Friday, October 8, 2010

' कुछ तोबी ! ' : हास्य-कविता ( Hasya Kavita - Majaal )

बचपन में खेलते थे, हम एक 'खेल',
खेल था 'मजेदार', पर था बेमेल,
मजेदार क्यों था, ये तो न 'पता',
पता जाए भाड़ में, 'मज़ा' तो उसमें था !
मज़ा यूँ बनता था, की लो एक 'वाक्य',
वाक्य से एक छांट शब्द, 'खीचो' उसे आप,
खीचो उसे  आप, 'मतलब' निकले या नहीं,
मतलब जब  'हवा' , आखिर तभी निकले हसीं !
हवा के कारण जीवन, नहीं तो हम 'मरते',
'मरते क्या न करते', हिंदी मुहावरे 'अच्छे '!
अच्छे तो  वो है, पर है वो 'बच्चे',
बच्चे, कच्छे जैसे शब्द  'तुकबंदी' जचतें !
तुकबंदी का मतलब, एक जैसे 'स्वर',
स्वर 'कोकिला' होती है, लता मंगेशकर !
 कोकिला है गर वो, तो क्यों न रहती 'जंगल' ?
'जंगल में 'मंगल'' थी पिक्चर भयंकर !
मंगल ग्रह में सुना है, 'बस्ता' है जीवन,
बस्ता भारी है, ये कहता है 'मोहन' !
मोहन प्यारे जागो, की 'सुबह' हो गयी नंदलाला,
सुबह का भूला लौटे शाम, 'भूला' नहीं कहलाता !
भूला मैं ख़ुशी, अब बस याद 'ग़म',
ग़म से चिपकता नहीं , टूटा 'ह्रदय' सनम !
हृदय की बीमारी, का आज 'कल' प्रकोप,
कल कल करती है नदी, देती मुझको 'होप' !
होप अंग्रेजी शब्द, मतलब जिसका 'आशा',
आशा मेरे कॉलेज में, थी वो आइटम 'खासा' !
खासा क्यों तू , कहीं तू ग्रसित तो न 'टीबी' ?
टीबी तो नहीं, पर 'भाई', मैं पीड़ित बीवी ! 
भाई की मेरन गयी सटक, 'कहत'  वह गाजर को गोभी,
कहत 'मजाल' - 'ससुरा ई  जिंदगी ही चीज़ कुछ तोबी !'

Thursday, October 7, 2010

'ग़ोश्त' - काला हास्य (डार्क ह्यूमर / ब्लैक कॉमेडी )

'छिनाल है, पर माल है !',
ऐसा लोगों का, उसके बारे में,
ख्याल है.

हमने तो जितना देखा,
ठीक ही लगती है हमें,
लोगों को जाने क्यों,
उससे इतना ऐतराज है ?
  
'आपकी तो निकल पड़ी 'मजाल',
उसका संदेसा आया है,
हमें तो कमबख्त ने कभी,
दिन में भी नहीं पूछा,
आपको बड़ा रात को,
खाने में बुलाया है !
सुना है,
बहुतों को खुश कर चुकी है,
आप भी आजमाइए,
और अगले दिन, रात की कहानी,
हमें भी विस्तार से सुनाइए !'

रात का वक़्त था, उसका घर था,
हम थे अन्दर, बाहर अँधेरा,
एक छोटा सा, गोलमटोल बच्चा था उसका,
और निपट अकेली, वो थी बेवा.

बातें करते करते,
वो जरा कभी मुस्कुराए,
हमारा सोचना शुरू,
सोच कुलबुलाए, 
'क्या  मंसूबे बना रहीं है ?
पानी पिला रही  है,
तो क्यों पिला रही है ?!
चाहती क्या है आखिर ?
अन्दर क्या पका रही है ?'

उलझन भी यूँ बड़ी,
अजीब थी दोस्त,
एक तरफ कवि ह्रदय,
एक तरफ ग़ोश्त !
बदन में खरोच के निशाँ,
पर व्यवहार निर्दोष !
कमर में कुदरती लोच,
तो आँखों में भी संकोच !
'मजाल' बांधे मंसूबे,
या करें उन पर कोफ़्त !

पर अब 'मजाल' भी,
खोपड़ी शायराना,
कब तक आखिर सोच,
उधार की खाए ?
सामने थी वो,
हकीकत सी जाहिर,
कब तक फन्ने खाँ,
ख्याली घोड़े दौडाए ?

सोच चीज़ कुत्ती, वो भी पूरी पागल,
बच के रहिएगा,चोट कर जाएगी ,
खुद तो मरेगी ही काट कर आपको,
आपको भी मगर, पागल कर जाएगी !

जो जैसा है, वो है वैसा क्यों ?
छोड़िये जनाब, क्यों अक्ल  लड़ाइए ?
सामने बैठा था, गोलमटोल बच्चा,
चलिए, इसी से खेल कर,
अपना दिल बहलाइए !

जेब में रखी थी, हमने कुछ टॉफी,
उसको दी, और फिर दिल खो गया.
लगे फिर हम उसको कहानी सुनाने,
उसने सुनी ऐसे, की सुचमुच हो गया ! 
रखिये समझ को , बच्चो सा सरल 'मजाल',
टॉफी मिली, और बच्चा खुश हो गया !

अब हमने फिर से बेवा को देखा,
अब कुछ बैचनी न थी मगर,
अब बस करार था.
जिस्म में उसके, अब भी वही उभार था,
पर शायद नदारद,
अब हमारा विकार था ?!

अन्दर पनपी थी, एक सोच  कमीनी ,
खामखा वो हमें खा रही थी,
'ग़ोश्त' तल रहा था,
कोई हमारे ही अन्दर,
जो बदबू थी पकने की,
वहीँ से आ रही थी...

' तो मियां 'मजाल', कैसी रात बिताई ?
हुई कुछ वारदातें, कोई हाथापाई ?!
हमें भी किस्से रात के,
तबीयत से सुनाइये !'

'बोलने को तो जनाब, हमारे पास बहुत है,
पर क्यों इस तरह, वक़्त को गवाइएँ ? 
छोड़िये खुराफाती सोच को दौड़ाना,
लीजिये, खाइए टॉफी, और खुश हो जाइये   !'

Tuesday, October 5, 2010

मौत - ब्लैक कॉमेडी (काला हास्य)

पड़ा वक़्त का कोड़ा,
सरपट दौड़ा घोड़ा,
कभी धीरे मरोड़ा,
कभी अचानक हथौड़ा,
सब एक झटके में तोड़ा,
काम न आया जोड़ा,
फुन्सी बनी फोड़ा,
सयाना हुआ निगोड़ा,
कोई नब्बे, कोई सोला,
हो शर्मा या अरोड़ा,
करके थोडा थोडा,
पूरा पूरा निचोड़ा,
मौत ने ऐ 'मजाल',
कहाँ किसी को छोड़ा...

Monday, October 4, 2010

मोटूराम ! बाल कविता (हास्य) ( Bal Hasya Kavita - Majaal )

मोटूराम ! मोटूराम !
दिन भर खाते जाए जाम,
पेट को न दे जरा आराम,
मोटूराम ! मोटूराम !

स्कूल जो जाए मोटूराम,
दोस्त सताए खुलेआम,
मोटू, तू है तोंदूराम  !
हमारी  कमर, तेरा  गोदाम !

तैश में आएँ मोटूराम !
भागे पीछे सरेआम,
पर बाकी सब पतलूराम !
पीछे रह जाएँ मोटूराम !

रोते घर आएँ मोटूराम,
सर उठा लें पूरा धाम,
माँ पुचकारे छोटूराम,
मत रो बेटा , खा ले आम !

जब जब रोतें मोटूराम,
तब तब सूते जाए आम,
और करें कुछ, काम न धाम,
मुटियाते जाएँ मोटूराम !

एक दिन पेट में उठा संग्राम !
डाक्टर के पास मोटूराम,
सुई लगी, चिल्लाए ' राम' !
' राम, राम ! हाए राम !'

तब जाने  सेहत के दाम,
अब हर रोज़ करें व्यायाम,
धीरे धीरे घटा वज़न,
पतले हो गए मोटूराम !

Sunday, October 3, 2010

वक़्त ही वक़्त, जिंदगी कमबख्त ! ( Shayari - Majaal )

वक़्त ही वक़्त है,
जिंदगी बड़ी कमबख्त है !

मिलना हो सुकूँ, तो मिले आज,
पड़ी जरूरत सख्त है !

ख़ुशी क्या ?  ग़म है क्या ?
बस ख़याल हीं तो फक्त  है !

नाम नवाब , और काम गुलाम,
मामला पेचीदा, ताजो-तख़्त है !

और क्या ढूंढें 'मजाल' ?
बस खुदी की शिनख्त है !

Saturday, October 2, 2010

लाल बत्ती, हरी बत्ती - हास्य कविता ( Hasya Kavita - Majaal )

लाल बत्ती पर हमारी गाड़ी रुकी हुई थी,
सामने थी एक हसीना,
नज़रे उसी पर गढ़ी हुई थी,
थोड़ी महोलत थी, तो निभा रहे थे,
अधूरे ही सही, दिल में मंसूबे बना रहे थे !

तभी पीछे से एक स्कूटी वाला आया,
कट मारा ऐसा,
खुदा ने ही  बाल बाल बचाया,
हमने देखा आसमान की तरफ,
तो मानो सूरज मुस्काया,
"क्यों बच्चू, और टापेगा? अब मज़ा आया ?!"

पट्ठे को शायद, कुछ ज्यादा ही जल्दी थी,
जरूरत से ज्यादा जोश दिखाया.
न देखा आव, न ताव ,
पूरी रफ्त्तार में स्कूटी  भगाया,
आगे बत्ती  पर रुका था एक पहलवान मुस्टंडा,
उसको टकराके, गिराते हुए,
स्कूटी  वाला  भाई, आगे निकल आया !

पहलवान भाई पहले संभाला, फिर गुर्राया,
"ओं तेरी की ! रूक !", पूरी रफ़्तार से,
अपनी फटफटिया को, स्कूटी के पीछे दौड़ाया,
पीछा कर उसको दबोचा, और जड़ दिया घूँसा,
स्कूटी  वाले जनाब को, उनके  हेलमेट  ने,
जहाँ तक संभव हो सका, बचाया !

बाईक  पटकी एक तरफ फिर,
और गालियों का ताँताँ  लगाया,
एक से बढ़  के एक चुनिन्दा सुनाई,
गोया मस्तराम ने ग़ालिबाना अंदाज़ पाया !

अब एक तरफ सीकिये की सिफारिश ,
दूसरी तरफ पहलवान की बदले की रट,
एक तरफ पिद्धि स्कूटी,
दूसरी तरफ भयंकर बुललल्लट !
हमने सोचा, आज तो लग गयी,
स्कूटी वाले भैया की नैया  तट !

सब लोगों की उत्सुकता भी बढ़ गयी थी,
मुफ्त की फिल्म थी, सबने  टिकट कटवाया !
पर बेचोरों का मज़ा किरकिरा हो गया,
जोहीं स्कूटी वाले ने अपना हेल्मट हटाया,
" ओए  बिट्टू तू !!! ", स्कूटी वाला चिल्लाया !
कमबख्त   किस्मत हो तो ऐसी,
बुलटिया पहलवान सींकिया का,
पुराना लंगोटिया निकल आया !

अब तो नजारा ही बदला हुआ था,
प्यार की प्यार उमड़ रहा था,
पहलवान का चेहरा ख़ुशी और शर्मिंदगी के,
विचित्र मिश्रण से चमक रहा था !

शर्मिंदगी कुछ ज्यादा पनपती दिखी,
शायद सोच रहा था,
भाई पे खांमखां हाथ उठाया,
जो कर लेता थोडा इंतज़ार,
तो बला खुद ब खुद टल जाती,
कितनी देर टिकती आखिर,
गुस्से की लाल बत्ती,
थोडा सब्र करते 'मजाल' ,
तबीयत और बत्ती,
दोनों अपने आप हरी हो जाती !

जिंदगी के अन्दर एक अजीब सी  बेकरारी है,
अन्दर घुटती है, बेकाबू हो जाती है,
जो लगता प्यार,  और कभी दिखता  है फसाद,
वो दरअसल है,
फ़क्त,
दबी हुई खवाहिशें जिस्म की ,
जो बाहर आना चाहती हैं,
जीना चाहती है खुद को,
थोड़ी ताज़ी हवा खाना चाहती है   ....

इसलिए कहते है जनाब,
जिंदगी को जरा करीब से आजमाइए,
हर पहलवान में, छुपा है एक 'बिट्टू',
उसको जरा उभार कर लाइए !
गोली मारनी है तो, मारिये  फसाद को,
और सुकूँ की ताउम्र कैद का लुत्फ़ उठाइये !

तो सौ बात की एक बात,
जब हो अरमानों की तादाद,
और तय न कर पाएँ आप,
बीच प्यार या फसाद,
तो गले मिलिए हजूर,
कीजिये खाक रंजिश को,
नतीजा 'मजाल',
सोचते रहिएगा बाद !

Friday, October 1, 2010

'यूँ बेहतर ! यूँ बेहतर !' - हास्य कविता ( Hasya Kavita - Majaal )

ज्यादा खाने से तो,
थोड़ा कम बेहतर,
खाना कम बेहतर,
की हज़म बेहतर !
कभी कभी खाना,
भी ग़म बेहतर,
ग़म बेहतर पर,
न हरदम बेहतर!

है वो बेहतर,
या मैं बेहतर ?
वो भी अच्छा,
पर हम बेहतर !
बेहतर-ए-बेहतरीन से,
भरी है महफ़िल,
तुकबंदी में मगर,
हम भी न कम बेहतर !

पहले अच्छा और,
फिर उससे बेहतर,
धीरे धीरे ही बनते,
सबसे बेहतर.
अब सबसे बेहतर भी,
यूँ तो क्या बेहतर (?)
की जो सोचने लगे,
'अब क्या इससे बेहतर ?!' 

जो हम बेहतर,
तो है बेहतर,
जो  वो बेहतर,
तो क्यूँ  बेहतर ?!
जिंदगी और शायरी  की,
एक सी हालत 'मजाल',
नज़र पड़ी जो आज,
' कि यूँ बेहतर ! कि यूँ बेहतर ! ' 

Thursday, September 30, 2010

बुरे फँसें 'मजाल' आ कर जन्नत में - हास्य कविता

जो थोड़ा  हेर फेर हो जाए कागजों में,
सभी अपने कर्म दुरुस्त करवा रहे है,
की उनकी भी पक्की हो जाए जन्नत,
चित्रगुप्त  को सभी पटा रहे है !

अंदर इन्द्र देव भाईलोगों से अपने,
आज का चढ़ावा गिनवा रहे है,
हफ्ता न पहुंचे  जब तक  सेवकों  का,
प्रभु कहाँ  बारिश करवा रहे है ?!

आगे सब नेताओं की टोली इकट्ठी,
मानो परम बोधी ही पा  रहे है,
'की यूँ नहीं यूँ, ये दरअसल यूँ',
नारद मुनि सबको सुलगा रहे है !

नीचे सिखाते थे तो जो 'नेति, नेति',
अप्सराओं को देख कह रहे 'देती क्या ? देती ?'
आँखें गर करती है, हाल-ए-दिल बयाँ तो ,
सब संत बड़े खूँखार नजर आ रहे है !

ये भी खूब रहीं मियाँ 'मजाल',
हाल यहाँ के  तो है कमाल,
ऊपर से तुर्रा  ये, की जो भी मरें,
कमबख्त सब स्वर्ग  ही जा रहे है !

गौर  करें कोई हमारा भी तर्क,
कब तक बचा रह पाएगा ये स्वर्ग ?
की धुरंधर सारे, सभी महानुभावी,
तो यहीं का टिकट  कटवा रहे है !

दूर से देखने पर तो यही लगता था,
'वाह ! वहाँ क्या मज़ा होता होगा !'
बुरे फँसें 'मजाल', आ कर जन्नत में,
हमने तो सोचा था, कुछ नया  होता होगा !

Wednesday, September 29, 2010

ऐसे करतें है तुकबंदी - बाल कविता (हास्य), ( Bal Hasya Kavita - Majaal )

एक दिन लाल हमारा  चंदी,
पुछा हमसे बात एक चंगी,
पापा, हमको भी समझाओ,
कैसे करते है तुकबंदी ?

 " सबसे पहले जोड़ी बनती,
एक जैसे शब्दों की फंदी,
जैसे की समझ लो बेटा,
चंदी, मंदी, बंदी, झंडी.

फिर है करतें कोशिशें हम,
चिपका दे उनको, जैसे की गम,
जुड़े ऐसे, की बात लगे दम,
मतलब निकले, गुदगुद हरदम,

चंदी ने देखे दिन मंदी,
सोचा की लगा ले  बंदी,
राहत मिली, जब लेनदारों ने,
दिखा  दी उसको, हरी झंडी,
ऐसे करतें है तुकबंदी ! "

" ये तो पापा बड़ा झमेला,
इतने सब शब्दों का मेला,
लगता मुझे बड़ा मुश्किल ये,
कैसे कर पाऊंगा अकेला ? "

" विचार भी होते थोड़े सनकी,
सोच न उठती जैसे नंदी,
तुम भी ज्यादा न अक्ल  भिड़ना,
की गाय नंदी, या बैल नंदी !
धीरी धीरे आदत पड़ती,
चलना सीखे नंदी पगडंडी,
फिर न पीटना पड़े है इसको,
बस काफी, कि देखा दो डंडी,
खुद ही उठ चल पड़ती नंदी !
ऐसे बनती है तुकबंदी ! "

" अच्छा पापा मैंने समझी,
अब मैं कोशिश करता तुकबंदी,
चंदी, मंदी, झंडी जैसा,
एक और शब्द भी होता - रंडी ! "

" ना ना मेरे बच्चे  चंदी,
न करते बातें गंदी गंदी !
ऐसे न करते तुकबंदी ! "

Tuesday, September 28, 2010

ग़ज़ल : ग़म को ही ओढ़ सो गए रजाई की तरह ! ( Shayari - Majaal )

बस इसलिए की, जयका-ए-जिंदगी  पता चले,
चखते  है  ग़म जरूर, पर हलवाई की तरह !
नहीं देतें है पनाह, ज्यादा देर हम ग़म को ,
वाकिफ है, ये  टिक जाता घरजमाई की तरह !

इक बार कर गया  जो घर, ये ग़म  अन्दर,
ताउम्र  सहना पड़ सकता, लुगाई की तरह !
कड़क वक़्त, कड़क जेब, कड़क ठण्ड थी 'मजाल',
ग़म को ही  ओढ़ सो गए रजाई की तरह !

Monday, September 27, 2010

'अब मज चख ! ' - बिना मात्रा की हास्य कविता !

यह मन चनचल !
भगत इधर उधर,
सब तरफ,
हर वखत !

रत जग जग,
करत सब करतब,
उपदरव ,
बस न पढ़त  !

हम कहत कहत थक,
मगर  यह,
समझत कब ?
 
समभल  !
अब पल सनकत !
बच सक बच !
हमर ब्रह्म अस्त्र !
कल प्रशन पत्र !

अचरज ?
अब हतभरत ?!
नटखट !
अब मज चख !   

Sunday, September 26, 2010

व्यंग्य कविता - फ़सादियों से बच कर रहना 'मजाल', अकारण आक्रांत हो जाओगे !,

वक़्त रहते शांत हो जाओ वर्ना,
रक्त बहते शांत हो जाओगे !
फ़सादियों से बच कर रहना 'मजाल',
अकारण आक्रांत हो जाओगे !

सोच हो जाएगी  इतनी छोटी,
खुद में भी समां न पाओगे,
होगे दुनिया से देश और फिर,
देश से प्रांत हो जाओगे !

कैसे दोगे दिशा स्वयं को,
मत से जो  भ्रांत हो जाओगे ?
फ़सादियों से बच कर रहना 'मजाल',
अकारण आक्रांत हो जाओगे !

बह जाओगे जो भावनाओं में,
तुम्हारी मारी जाएगी मति,
मारी गयी  मति एक बार ,
तो  समझो समीप  दुर्गति !
करेंगे खता बस कुछ लम्हों,
पर  भुगतेगी पूरी सदी,
और तुम जीवन-पथ-मध्य में ही,
आजीवन दुखांत हो जाओगे !
फ़सादियों से बच कर रहना 'मजाल',
अकारण आक्रांत हो जाओगे !

साँप का बच जाए एक बारी,
न बचे कोई इनका काटा,
इस दुनिया को जन्न्हुम  कर ,
जन्नत उस दुनिया का वादा !
बेतुके दावों  पर करके अमल,
क्या  ज्ञाता   वेदांत हो जाओगो ?!
फ़सादियों से बच कर रहना 'मजाल',
अकारण आक्रांत हो जाओगे !

खुदा को न देखा किसी ने,
और न ही देखेगा कोई,
कितने मरे नाम पे उसके,
क्या गिनती है कोई ?
देख हाल ये  मनुष्यता का,
नयन ये कितना रोई.
अजात की खोज में हाय री !
ज्ञात   की क्या गत होई !
नैतिकता का चीर हरण कर,
खूब सभ्रांत कहलाओगे !
फ़सादियों से बच कर रहना 'मजाल',
अकारण आक्रांत हो जाओगे !

Saturday, September 25, 2010

' यूँ ! ' - शायरी करने का नुस्ख़ा (हास्य कविता) ! ( Hasya Kavita - Majaal )

वो पूछते है हमसे,
शायरी करने का नुस्ख़ा,
वाकिफ तो हम मगर,
उन्हें समझाएँ  कैसे,
" कि ' यूँ ' ! "

लफ़्ज़ों से ज्यादा,
मायने रखता है लहज़ा,
कि आप कहे " ऐसे ",
और हम कहें,
" कि ' यूँ ' ! "

कभी कभी एक बात के,
मतलब निकले कई,
कि हमने कहा " वैसे "
और वो समझें,
" कि 'यूँ' ! " 

हो खुदा भी परेशान,
कमबख्त क्या कह गया ?!
ऐसी शायरी भला,
जनाब करें क्यूँ ?

बाद हफ्ते देखो और,
सोचो  ' लिखा ही क्यों ? '
'मजाल' लिखिए जरूर,
मगर न लिखिए ' यूँ ! '  

Friday, September 24, 2010

'बंटी की बज गयी घंटी !' बाल कविता (हास्य) ( Bal Hasya Kavita - Majaal )

एक दिन बंटी,
खेल रहा था अंटी,
पिताजी ने देखा,
मार दी डंडी,
बंटी की बज गयी घंटी,
अब न खेलेगा अंटी !

एक दिन बंटी,
जाता था पगडंडी,
पगडंडी में बंटी को,
दिख गयी फंटी,
बंटी की बज गयी घंटी,
अब रोज जाता पगडंडी !

बंटी गया मंडी,
ख्यालों में थी फंटी,
चवन्नी की चीज़,
खरीद ली अठन्नी,
माताजी को बताया,
पड़ गयी चमटी,
बंटी की बज गयी घंटी,
अब न मंडी, न फंटी !

एक दिन बंटी,
लेने तेल अरंडी,
दाम न चुकाए,
दुकानदार बना  चंडी,
बंटी की बज गयी घंटी,
अब न करता बेमंटी  !

एक दिन बंटी,
पीने गया शिकंजी,
आईने में देखा,
समझा खुद को  तोप  तमंची,
पहलवान से भिड़  गया,
उसने दो तीन जड़ दी,
बंटी की बज गयी घंटी,
अब न बनता घमंडी !

एक दिन बंटी,
खेलता था धुलंडी,
रंग गया आँख  में,
दो दिन तक अंधी,
बंटी की बज गयी घंटी,
अब न रंग, न धुलंडी !

बड़ा हुआ बंटी,
अब रहा न सनकी,
सबका  प्यारा बंटी,
राज दुलारा बंटी,
समय रहते उसकी,
अब बज जाती है घंटी,
इसलिए अब बंटी,
न करता कुछ अंड बंडी !

Thursday, September 23, 2010

हास्य - बिना मात्रा की कविता ! ( अगर न अब, तब कब ?! )

बिना मात्रा की कविता - २

वह कहत,
अधरम बढ़त जब-जब,
हम परकट !

अखयन  कम ?
नयन ख़तम ?
यह वकत  सखत,
तवम न अवगत ?!
चल हट!
तवम असत!
न करत,
बस कहत,
फकत !

हरपल, हरदम,
ग़म बस गम ! 
हर जगह छल कपट,
लगत यह - सब जन,
मत गय मरत ! 

धन कम पर,
न कम खपत !
समधन, हमदम,
सब गयत भग!
नयन बनत  जल तट !
सनशय, सनशय, सब तरफ ! 
मन भय - परलय कब ?!

कम यह सबब ?
भगवन !
अब यह हद !

अगर,
अब न परकट,
तब कब ?

वद ! वद !

Wednesday, September 22, 2010

हास्य कविता - मिज़ाज रंगीन,मामला संगीन ! ( Hasya Kavita - Majaal )

एक थी परवीन,
बला सी हसीन,
कुदरत-ए-हूर,
 बेहतर-ए-बेहतरीन !

एक थे मियाँ 'मजाल',
उमर नब्बे के पार,
थी जवानी ख़याल,
पर तबीयत शौक़ीन !

एक दिन मियाँ 'मजाल'
को दिख गयी परवीन,
मिज़ाज रंगीन,
तो मामला संगीन !

' सुन ए नाज़नीन,
तू हमें लगे नमकीन,
जो मुस्कुरादे तू,
तो क्या तेरी तौहीन ?
न कर हमसे नज़रे चार,
पर कम से कम दो-तीन !'

'कर लेती नज़रे चार,
ज़रा होते जो नवीन !
करें उमर का  लिहाज़,
बस शतक से कम दो तीन !
जो चाहें मेरा प्यार,
तो हम अब भी है तैयार,
बन जाइए अब्बाजान,
की हम है यतींम !'

तब से मियाँ मजाल का,
रूमानी ग़ायब  ख़याल,
अब बस गीता कुरान,
में करतें हैं यकीन !

दिल में ज़खम अब भी,
पर है ताज़े और तरीन,
जो पूछ ले कोई,
'क्या लेंगें कुछ नमकीन ?'
घबरा के कह देतें,
' ना जी नाज़नीन,
की आज कल तबीयत,
डाइबीटीस के अधीन !!! '

Tuesday, September 21, 2010

हास्य कविता - अंड बंड : मेरी वो, तेरी वो, कौन वो ! ( Hasya Kavita - Majaal )

दिन का, शाम का रातों का,
ख़ुशी का ग़म का, जस्बातों का,
मतलब क्या होता सब बातों का ?
'मजाल' मतलब वही, जो तुम निकाल लो !

एक था चीनी,
नाम था 'क्वान  वोह'
गया वो अमेरिका,
पाने कुछ काम वो !

काम न मिला,
मिली गर्मी दोपहरी,
पीछे पड़ गयी दो बहने
टैरी  और मैरी !

भाग के आ गया 'वोह' 
अमेरिका से भारत,
पीछे आई दोनों बहनें,
शुरू हो गयी महाभारत!

कैसे निभाता वोह,
परिस्थिति अब ऐसी,
दो दो बीवी उसकी,
टैरी  और मैरी ! 

कोई पूछे, कह देता,
अब जो है, सो है,
ये  'टैरी वोह' है,
और ये 'मैरी वोह' है !

दुनिया आफत का जंगल सही,
बिन बातों का बतंगड़ सही,
दंगल को मान मंगल  सही,
लड़ाई में भी मज़ा निकाल लो !

अब बहनों की सोच,
थी बच्चो के माफिक,
शहरों  की गलियों से,
थी वो ना वाकिफ,

भूल   जाती थी, 
रास्ता आए दिन,
मुसीबत वोह की,
आती थी बुलाए बिन !

" 'मैरी वोह' खो गयी !"
' हैं  ! तेरी 'वो' खो गयी  !'
" 'टैरी वो' नहीं खोई, 
'मैरी वोह' खो गयी ! "

'हाँ हाँ,  समझ गए,
खो गयी है तेरी 'वो'   !'
'ना जी, खोई तो  है 'मैरी वोह',
'मैरी वोह'  और न की टैरी वोह' !'
'हैं... ?! '

कभी खो जाती थी 'टैरी वोह',
कभी गुम जाती थी 'मैरी वोह',
हालत जैसे चाहे, जो भी हों,
मुफ्त मर जाता  था 'क्वान  वोह'  !

" 'टैरी वोह' खो गयी !"
' हैं  ! मेरी 'वो'  कहाँ खोई ?'
'' 'मैरी वोह'  नहीं खोई, 
'टैरी वो'  खो गयी !

" कहीं नहीं खोई 'मेरी वो' , 
मौजूं है मेरे ही  घर में 'वो' .."
पर  अभी तो मेरे घर  में थी !'
''मेरी 'वो' तेरे घर क्या करती ?!'

'वो सब छोड़ो  ,
पहले 'टैरी वोह' को ढूँढो  !'
'अरे, जब खोई ही नहीं,
 तो क्या ढूँढो ?! "
"अरे, खो गयी है  'टैरी वो' "
कहा ना,  है मेरे घर में 'वो'
'अभी तो कहा  था,
 घर में है 'मेरी वोह' !'
'है .. ?! '

अपना लो जो भी हथकंडा  है,
नतीजा जीवन का बस अंडा है,
इसलिए  भाई का सीधा सा फंडा है,
जहाँ  मिले मौका, हँसी निकाल लो ! 

Monday, September 20, 2010

हास्य कविता - 'मजाल' की खुजाल ! ( Hasya Kavita - Majaal )

एक दिन 'मजाल',
को लगी खुजाल,
कि लिखे कुछ धमाल,
ते मच जाए बवाल !

बहुत सोचा 'मजाल',
की बहुत पड़ताल,
ढूँढा   लेके मशाल,
पर दिखा न ख़याल,
थी सोच की हड़ताल,
हुआ बहुत बेहाल,
पर मिला न  निकाल !
तब सोचा 'मजाल',
है बेवजह  मलाल,
इंसा की क्या मिसाल ?
बस खुदा कर सके  निहाल.
खैर, बहरहाल,
जो हुआ वक़्त हलाल,
खुदी मिटी  खुजाल,
खुद-ब-खुद ख़ुशी बहाल !

तो कहो मियाँ  'मजाल',
है ना जिंदगी कमाल ! 
इतना काफी फिलहाल ....

Saturday, September 18, 2010

हास्य कविता - 'ग़ालिब दरअसल हिन्दू थे !' ( Hasya Kavita - Majaal )

न देखे माहौल,
रमज़ान है या ईद,
भाई तो था बस,
तुकबंदी का मुरीद !
अटका हुआ था बहुत देर से,
'वहाँ पर्वत सिन्धु थे'
कुछ न सूझा  तो जोड़ दिया,
'ग़ालिब दरअसल हिन्दू थे !'

बिना ये सोचे समझे,
क्या हो सकते इसके माने,
भेज दी भाई ने अपनी रचना,
संपादक को छपवाने !
संपादक भी अपने किस्म  के,
अनूठे उदाहरण  थे,
चिंतन शैली ही अलग थी उनकी,
 न जाने किस कारण से !

'कवि रहस्यवादी लगता है,
जरूर कहा कुछ गूढ़ है! '
भिड़ा दी पूरी अक्ल उन्होंने,
समझाने में उद्देश्य  कि,
इस  कथन के पीछे,
कवि का क्या मूल है !

चढ़ा खुराफात को फितूर,
फिर क्या धरती, क्या गगन !
अब जब लगी ऐसी लगन,
तो फिर क्या कर लेंगे छगन!

सनकियों को क्या फिकर,
कि मोच है की लोच,
बस नोच खाने  की आदत,
है बाल की भी खाल रे!
बेलगाम सोच,
करके  खरोंच पे खरोंच,
खोद खोद सीधी बात के भी,
सौ मतलब निकाल लें !

अब थी खुदा की मर्जी,
की दुनिया ही फर्जी,
या लोगों की पसंद ही,
कुछ हो गयी है चरखी,
जो भी हो,
भाई का तो काम हो गया,
कहते हैं की लोग फँसते,
जब मुसीबत आती,
अपना तो पर उल्टे,
नाम हो गया !

छपी जो रचना अखबार में,
तो भूचाल आ गया,
उधर  छाया बवाल,
 इधर 'मजाल' छा गया !
'वाह वाह क्या बात है !
आपकी लेखनी कमाल है,
पहली ही रचना में,
आपने कर दिया धमाल है !'
चर्चा हुई मंच पर,
प्रपंच हिल गया !
संसद में पहुंची बात,
और युद्ध छिढ़   गया,
फुर्सतियों ने पढ़ा तो,
उनका चेहरा खिल गया,
बेमतलबी को और एक,
मकसद मिल गया !
अखबार से निकली तो
टीवी की बन गयी,
हफ्ते  भर तक खबर,
यूँ ही सुर्खी  में रही !

सबसे लिए मज़े,
अपने अपने ढंग से,
असल मुद्दा जाने कब,
फरार हो गया,
ढूँढने वाले ढूँढ़ते रह गए,
ग़ालिब हिन्दू थे की नहीं,
'मजाल' का दस लाख सालाना,
करार हो गया !

Wednesday, September 15, 2010

बिना मात्रा की कविता .. !

नयन जल भरत,
टपक टपक बहत,
हरदय करत दरद,
अनवरत !

सब कहत,
वह बस - अप गरज,
पर,
यह मन,
न सहमत !

करत नटखट वह,
हम फसत !

हम कहत कहत थकत,
यह मगर, हठ करत,
बस खट -पट , खट- पट,
सतत !

हर बखत,
बस यह रट,
"दरसन ! दरसन !"

बस एक झलक,
फकत,
कमबखत !

Saturday, September 11, 2010

मस्का मार के ! ( Hasya Kavita - Majaal )

आप सिकंदर, हम पोरस,
आप Solo, हम Chorus !
आप संगीत मधुर, हम Music Loud,
आप Pressure में Century, हम No Ball में Run Out !

आप जुबान पक्की, हम टूटा वादा,
आप Iodine युक्त, हम नमक सादा !
आप Confirm Ticket, हम in Waiting List,
आप payment एकमुश्त, हम परेशान किश्त !

आप मकसद, हम बेवजह,
आप कहीं-कहीं, हम जगह-जगह!
आप राजा भोज, हम गंगू तेली,
आप अलबर्ट आइन्स्टाइन, हम गैलिलियो गैलिली !

आप नसीब-ए-कुदरत, हम बुरा वक्त,
आप स्पष्ट बहुमत, हम जमानत जब्त !
आप गलत भी सही, हम सही भी तुक्का,
आप Imported Cigar, हम देसी हुक्का !

आप हस्ती मुक्कमल , हम महज ख़याल ,
आप नपी-तुली कूटनीति , हम ऐरे-गैरे 'मजाल' !

Tuesday, September 7, 2010

Bure Fase Majaal ! ( Hasya Kavita - Majaal )

दो घंटे खड़ा कराने के बाद कहतीं हैं,
'दुकान में आप हड़बड़ी कर देतें है!'

'चलो फ़ोन रखती हूँ' कहने का मतलब,
आधा घंटा और मसखरी कर लेतें है!

जिस दिन है होती उनसे बहस,
शरबत को वो कढ़ी कर देतें है!

फुर्सत गज़ब, तरकीबें अजब,
फिर से कपडे घड़ी कर लेतें है !
 
ख़ुशी की बची न कोई गुंजाईश,
सारे ग्रहों को वो शनि कर देतें हैं!

उलझ के उनसे कौन शामत बुलाए,
वो जैसा कहें, हम वहीँ कर देतें है!

बस देतें है धमकी जाने की माइके,
हसरत कहाँ हमारी पूरी कर देतें है!

यूँ करते है दूध में किफ़ायत वो  'मजाल',
सीधे दिमाग का ही वो दही कर देते हैं!
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