Wednesday, October 13, 2010

एक कविता मौत पर - ' मृत्यु दर्शन'

खुद से, दूसरों से, 
कभी जिंदगी से लड़ते है,
जाने या अनजाने, 

अन्दर इक तैयारी करते है.
जानते की अंजाम बुरा, 

सुनते मगर कब है?
कोई जल्दी, कोई देर से, 

थकते मगर सब है.
दमा, दिल का दौरा, 

लकवा, गुर्दे ख़राब,
लफ्ज लगते है जुदा, 

सबका मगर एक हिसाब.
सुझानी हकीम को कोई वजह,

तो कहता, 'की इसलिए',
बात दरअसल ये थी,

'जियें तो जियें किसलिए ?!'
अपने अपने ढंग से सब,

मौत की ओर सरकते है,
कौन मरता कुदरतन 'मजाल',

सब खुदखुशी ही करते है!

8 comments:

  1. 2/10


    रचनात्मकता का अभाव

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  2. अपने अपने ढंग से सब,
    मौत की ओर सरकते है,
    कौन मरता कुदरतन 'मजाल',
    सब खुदखुशी ही करते है!
    Kitni kushaltaa se ye sachhai bayan kar dee aapne!

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  3. bahut bahut hi behatreen prastutikaran .

    बात दरअसल ये थी,
    'जियें तो जियें किसलिए ?!'
    अपने अपने ढंग से सब,
    मौत की ओर सरकते है,
    कौन मरता कुदरतन 'मजाल',
    सब खुदखुशी ही करते है!
    aabhaar
    poonam

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  4. कौन मरता कुदरतन 'मजाल',
    सब खुदखुशी ही करते है!
    सही फर्माया आपने। अच्छी लगी रचना। बधाई।

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  5. achhi rachna

    www.deepti09sharma.blogspot.com

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