Sunday, March 17, 2019

हास्य नाटक - 'कचौड़ी योग'



 प्रस्तावना
 
नमस्ते| आप सभी का स्वागत है| अब हम लोग आपके सामने जो नाटक पेश करने जा रहे हैं
 उसका शीर्षक है  - “कचौड़ी योग! आप सभी लोगों ने  नाटक के शीर्षक से यह अंदाजा लगा 
ही लिया होगा किए एक हास्य रस प्रधान नाटक है|  पहले हम लोग  थोड़ी उलझन में थे की 
योग के मंच में हास्य रस प्रधान नाटक का मंचन उचित होगा  या नहीं परंतु जैसा कि बड़े बड़े
 कलाकार यह एक मत रखते हैं किहास्य एक बहुत ही गंभीर विषय है”, इसलिए हमने इसी 
विचार को आधार बनाकर योग जैसे गंभीर विषय को हल्के फुल्के तरीके से पेश करने 
का प्रयास किया है|
इस नाटक की प्रस्तुति के पीछे मनोरंजन की भावना तो है ही, पर साथ ही साथ हम यह भी 
चाहते हैं कि योग जैसे गंभीर समझे जाने वाले विषय को एक सरल और मनोरंजक तरीके से 
पेश किया जाए ताकि वह ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंच पाए और उन्हें लाभान्वित कर पाए|
अंत में एक छोटी सी कविता के साथ हम नाटक का आरंभ करने की अनुमति चाहते हैं |
कविता का शीर्षक हैहास्य विषय गंभीर
जब ई मनवा विचलित,
चिंतन होवे अधीर,
पाना चाही सुकुनवा,
जइसन  उड़ती चील !
तब मन ही मन का  छलने,
छोड़त सौ सौ तीर,
उनमे से एक आदि,
निसाना लगत  सटीक !
तब जाकर ई मनवा,
आवे  बाजन ढीठ   !
आऊर  लगाई ठाहाकवा,
भुलइके  सारी टीस !
ईका  न समझी तुम,
पका पकाया खीर,
कहत 'कबीर' ई ससुरा,
हास्य विसय गंभीर !
तो लीजिए पेश है आपके सामने योग रत्न बैच के स्टूडेंट के द्वारा रचित नाटक -कचौड़ी योग

दृश्य - 1
( इंदौरी लाल की एंट्री )
आज पोहे में सेव था कम,
जलेबी में भी लगा ना दम,
मिल जाए जो चटपटी कचौड़ी,
हो जाए दिन अपना बम बम बम बम … ! “
( इंदौरी लालकचौड़ी - कचौड़ीकहते हुए इधर-उधर भटकता है और दुकानें तलाशता 
हैं |  सारी दुकानें बंद है |मन ही मन    बड़बड़ता है , “ आज अपना कचोरी खाने का योग 
बनता नहीं दिखता…|”
इंदौरी लालकचौड़ी - कचौड़ीकहता हुआ इधर-उधर भटकता हुआ एक और चला जाता है ….. )
[ दृश्य 1 की समाप्ति ]



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                (दृश्य – 2)
{सिद्धेश्वर महाराज पेड़ के नीचे समाधि लगाए बैठे हैं |आसपास उनके कुछ चेले हैं}
चेला 1 : “ ना जाने सिद्धेश्वर  महाराज की तपस्या कब पूरी होगी? कितने वर्षों से उन्हें 
यूं ही ध्यान लगाए समाधि में बैठे देखा है| क्या लगता है, तब तक पूरी हो पाएगी 
महाराज की समाधि?
चेला 2 : “क्या कह सकते हैं भैया…? कहते है - ज्ञान योग तो प्रभु कृपा होने पर ही सिद्ध
 होता है…. योग न आए, तो चाहे बरसों माथा रगड़ों - कुछ हाथ ना लगे और जो 
उचित योग आ जाए, तो ज्ञान मिल जाए - इसी क्षण.. ! सब प्रभु कृपा पर ही निर्भर है…”
चेला ३ : बड़ा नाम सुना है, क्या होती है येप्रभु कृपा’ ?”
चेला 4 : अब क्या कह सकते है भैया - मध्य प्रदेश के वोटरों की मूड की ही तरह प्रभु 
कृपा भी कब, किसपे और क्यों हो जाए, ये  कोई नहीं  बता सकता…!”
{इसी क्षण   सिद्धेश्वर महाराज अपनी आँखें खोलते है औरे समाधि छोड़ कर खड़े हो जाते है… }
सिद्धेश्वर महाराज: आज का दिन होगा प्रसिद्ध,
शेर सुनेगा, सुनेगा गिद्ध,
यम, नियम, ध्यान साध कर,
मेरी समाधि आज हुई है सिद्ध …|
छोड़ा घर, छोड़े सपने,
उन सबको छोड़ा, जो थे अपने,
मुक्ति - मोक्ष का मार्ग कठिन है,
पल-पल मन हरि दर्शन तरसे  ... |
ज्ञान का पूरा पिया है घूँट,
अनुभूति अन्दर अदभुत,
मिले मेरे ज्ञान का लाभ सभी को,
अब सिद्धेश्वर की बस यह सुध ... |”
(खबर फैल जाती है सिद्धेश्वर महाराज की समाधि पूर्ण हो गई है और उन्हें  सिद्धि प्राप्त 
हो गई है लोग एक-एक करके उनके दर्शन करने और अपनी समस्या बताने आने ल
गते हैं| पहले एक को  कुबड़ी धीरे धीरे उनके पास आती है|)
कुबड़ी :बाबा जी को शत शत प्रणाम| हमसे तो ना चलते बनता है और ना ही ठीक से  
 खड़ा हुआ जाता है| अब  आप ही कुछ करिए बाबा ….”
(बाबा जी मंत्र पढ़ते हुए उसकी कमर पर हाथ फेरते हैं )
ह्राम , ह्रीम, ह्रौम,
भ्रांम, भ्रींम, भ्रौम,
श्राम, श्रीम, श्रोम, ….. ठांय… !”
(कुबड़ी स्वस्थ हो जाती है और  जय हो बाबा बाबा! आप महान हैं! बाबा जी की जय हो…” करते-करते खुशी से चली जाती है)
सिद्धेश्वर :कल्याण हो! सबका साथ, सबका विकास! कल्याण हो…. !”
( एक व्यक्ति लगड़ाते हुए धीरे-धीरे बाबा की तरफ आता है)
लंगड़ा:  “मैं चाहता हूं एक कदम स्वच्छता की ओर,
मगर मेरे कदम ही है बड़े  बेडौल,
बाबाजी करो कृपा मुझ पर,
बन जाए मेरे पैर सुडोल”  
(बाबा जी उसके पैर पर मंत्र पढ़ते हुए हाथ फेरते हैं )
ह्राम , ह्रीम, ह्रौम,
भ्रांम, भ्रींम, भ्रौम,
श्राम, श्रीम, श्रोम, ….. ठांय… !”
(लंगड़ा भी स्वस्थ हो जाता  है और जय हो बाबा बाबा! आप महान हैं! बाबा जी की जय 
हो…” करते-करते खुशी से  चला जाता है)
सिद्धेश्वर:मेरा नहीं, सब प्रभु का है, सब कुछ  प्रभु कृपा का ही कमाल है … “
(गीत शुरू)
मेरा आपकी कृपा से, सब काम हो रहा है
मेरा आपकी कृपा से, सब काम हो रहा है,
करते हो प्रभु तुम सब, मेरा नाम हो रहा है!
प्रभु आपकी कृपा से यह कमाल हो रहा है!
मेरा आपकी कृपा से, सब काम हो रहा है |
पतवार के बिना ही, मेरी नाव चल रही है,
बिना मांगे ही ए मौला,  हर चीज मिल रही है,
अब क्या बताएं भगवन… - आराम हो रहा है..!
मेरा आपकी कृपा से, सब काम हो रहा है,
करते हो प्रभु तुम सब, मेरा नाम हो रहा है
प्रभु आपकी कृपा से यह कमाल हो रहा है,
मेरा आपकी कृपा से सब काम हो रहा है….. |
( गीत समाप्त )
चेले :अब बाबा जी के विश्राम का समय हो गया है |आप सभी अपनी अपनी समस्याएं 
लेकर कल पधारें.. जय हो बाबा जी की जय हो..|”
{सभी लोग धीरे धीरे चले जाते हैं और बाबा जी भी  एक छोटी सी कुटिया में विश्राम 
करने चले जाते हैं | दृश्य 2 की समाप्ति | }


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                                              ( दृश्य -३ )
( सिद्धेश्वर महाराज एकांत में विश्राम कर रहें हैं | उनका आत्मा चिंतन चल रहा है |
 गीत  शुरू ... )
“कोई उम्मीद बर नहीं आती,
कोई सूरत नजर नहीं आती|
हम वहां हैं जहां से हमको भी,
खुद अपनी खबर नहीं आती|
पहले आती हाले दिल पर हंसी,
अब किसी बात पर नहीं आती|
हमने  कोशिशें कर ली है लाखों,
दिल की बेकरारी नहीं जाती |
कोई उम्मीद बर नहीं आती,
कोई सूरत नजर नहीं आती ...|”
(गीत समाप्त | सिद्धेश्वर खुद से बात करते हुए ..)
परम ज्ञान की जिज्ञासा थी, जब से मन में ठानी,
जाने कितनी पोथी पलटी, सब गुरुओं की मानी,
मिली सिद्धि, है मिली समाधि,  और मिला है ज्ञान,
फिर भी मन क्यों होता संशित, है कुछ और महान ?
लड़ा जगत से, लड़ा हूं खुद से, सोच सोच के हारा,
हाय! इन जिज्ञासाओं का है क्या कोई किनारा?
ब्रह्मांड जगत, तू है अदभुत, तेरे बहु बहु आयाम,
हे सनातन! हे अज्ञात! तुझ को मेरा प्रणाम !
प्रभु कृपा हो मिल जाए मेरे जीवन का निचोड़,
सब कुछ तूने छोड़ा है रे, अब इस हठ को भी छोड़ … |” (surrenders)
(एक लम्बा शंखनाद….  ‘अच्युतम केशवं’ गीत शुरू और उसके के साथ  इंदौरी लाल और
 कोरस का प्रवेश|
अच्युतम केशवं कृष्ण दामोदरं, राम नारायणं जानकी वल्लभं || -2
कौन कहता है भगवान आते नहीं, तुम मीरा के जैसे बुलाते नहीं |
अच्युतम केशवं कृष्ण दामोदरं, राम नारायणं जानकी वल्लभं ||
कौन कहता है भगवान खाते नहीं, बेर शबरी के जैसे खिलते नहीं |
अच्युतम केशवं कृष्ण दामोदरं, राम नारायणं जानकी वल्लभं ||
याद आएगी मेरी कभी ना कभी प्रभु दर्शन तो देंगे कभी ना कभी
अच्युतम केशवं कृष्ण दामोदरं, राम नारायणं जानकी वल्लभं ||
(सिद्धेश्वर महाराज गीत की धुन में मस्त होकर रम जाते हैं और नाचने लगते हैं 
नाचते-नाचते इंदौरी लाल से टकराते हैं)
सिद्धेश्वर :  “कौन हैं ?”
इंदौरी लाल : “इंदौरी लाल, तू कौन है?”
( सिद्धेश्वर महाराज को अचानक हड़बड़ा जाते हैं और वापस गंभीर मुद्रा में आ जाते हैं)
सिद्धेश्वर: तू मुझे ना पहचानता,
मैं शास्त्र वेदों का ज्ञाता,
समस्त भूत भविष्य का दर्शी,  
मैं परम सिद्ध,  मैं त्रिकालदर्शी
साधे योग के अंग हैं अष्ट,
साधना तप से हुआ हूँ हष्ट प्रष्ट
दूर करूंगा दुख तेरे बच्चा
बता मुझे तुझे क्या है कष्ट?”
इंदौरी लाल :  पणभू!
अहो भाग मेरे  कि मिले हैं आप,
मगर मेरा है वर्तमान का संताप,
ना भूत ना भविष्य का लोभ,
बस आप बता दो  मुझको इतना,
क्या आज बनताहै मेरा कचौड़ी योग?”
सिद्धेश्वर: अरे मूर्ख अरे अज्ञानी
अभी तक तू जिव्हा का दासी ?
जागो जागो साधो मन को,
यह सब लक्षण प्रलय के अधिकारी …|”
इंदौरी लाल : कैसे साधूँ मन को पणभू …. (गीत शुरू )
मन चनचल
मन चनचल
मन चनचल
मन बड़ चनचल
रत जग जग, करत हरकत,
भटक इधर-उधर सब तरफ,
खटर पटर, चटर पटर सतत
मन चनचल
मन चनचल
मन चनचल
मन बड़ चनचल
हम कहत कहत थकत, मगर यह
समझत कब ?
समझत कब?
समझत कब…. ?
मन चनचल
मन चनचल
मन चनचल
मन बड़ चनचल |”
सिद्धेश्वर: समभल! समभल! पल सनकत
परलय परलय पल सनकत
पल सनकत अब पल सनकत
परलय परलय पल सनकत
बच सक बच अब पल सनकत
मन चनचल - अब बच सक बच
अचरज अचरज मन चनचल?
अब हतभरत हतभरत  मन चनचल?
नटखत नटखट मन चनचल
अब मज चख
अब मज चख
अब मज चख अर मन चनचल |”
इंदौरी लाल : मन चनचल
मन चनचल
मन चनचल
मन बड़ चनचल |”
सिद्धेश्वर: अब मज चख
अब मज चख
अब मज चख अर मन चनचल!

(इंदौरी लाल के पेट में जोरों से दर्द होता है और वो मूर्छित हो कर गिर जाता है |)

सिद्धेश्वर: “ और खा कचौड़ी इंदौरी लाल !   
   बिना योग के भोग, कराएगा तेरा दुःख से ही संयोग ...|”
(स्वयं से बडबडाता है )
“ वैसे पेट तो मेरा भी दुख रहा है – हँस हँस कर .... आनंद से .. ! और ये वो आनंद 
नहीं है, जो मैंने किताबों में पढ़ा है, ये कुछ वास्तविक और आतंरिक अनुभूति है...... ये
 इंदौरी लाल अज्ञानी जरूर है, मगर स्वाभिक, मनमौजी और सरल व्यक्ति है | 
अज्ञानियों में इससे बेहतर पात्र ढूँढना संभव नहीं लगता ...| पर
 ‘योग के बिना भोग, देगा तुमको केवल दुःख और रोग,
  हालत हो जाये बद से बदतर, इससे पहले संभालो सब लोग .. ‘
  जीवन-रस का भी स्वाद जरूरी, कराया इंदौरी ने यह अहसास,
  प्रसन्न हुआ मैं इसके सरल दर्शन से, मिल गया गुरु को शिष्य सुपात्र..|
  अब योग-भोग का fusion होगा, गूंजेगा चारों ओर ये नाद,
  ज्ञान मेरा इंदौरी को अर्पित, करता हूँ मैं इस पर शक्तिपात... !”
(सिद्धेश्वर शक्तिपात कर के इंदौरी को ज्ञान देता है, इंदौरी लाल धीरे-धीरे मूर्छा से 
उठता है .... )
इंदौरी लाल : गरम कचौड़ी चबाने को रहे सलामत दाँत,
और उसे पचाने को, रहे सलामत आँत !
खाऊँ, पियूँ, मस्त रहूँ, करूँ योग व भोग,
प्रभु कृपा से बना रहे मेरा - कचौड़ी योग !
सिद्धेश्वर : (Surrenders ) पणभू!
 
{ ‘श्रीमन  नारायण’ भजन गीत और आसनों 

के साथ दृश्य एवं नाटक की समाप्ति }

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