Saturday, September 18, 2010

हास्य कविता - 'ग़ालिब दरअसल हिन्दू थे !' ( Hasya Kavita - Majaal )

न देखे माहौल,
रमज़ान है या ईद,
भाई तो था बस,
तुकबंदी का मुरीद !
अटका हुआ था बहुत देर से,
'वहाँ पर्वत सिन्धु थे'
कुछ न सूझा  तो जोड़ दिया,
'ग़ालिब दरअसल हिन्दू थे !'

बिना ये सोचे समझे,
क्या हो सकते इसके माने,
भेज दी भाई ने अपनी रचना,
संपादक को छपवाने !
संपादक भी अपने किस्म  के,
अनूठे उदाहरण  थे,
चिंतन शैली ही अलग थी उनकी,
 न जाने किस कारण से !

'कवि रहस्यवादी लगता है,
जरूर कहा कुछ गूढ़ है! '
भिड़ा दी पूरी अक्ल उन्होंने,
समझाने में उद्देश्य  कि,
इस  कथन के पीछे,
कवि का क्या मूल है !

चढ़ा खुराफात को फितूर,
फिर क्या धरती, क्या गगन !
अब जब लगी ऐसी लगन,
तो फिर क्या कर लेंगे छगन!

सनकियों को क्या फिकर,
कि मोच है की लोच,
बस नोच खाने  की आदत,
है बाल की भी खाल रे!
बेलगाम सोच,
करके  खरोंच पे खरोंच,
खोद खोद सीधी बात के भी,
सौ मतलब निकाल लें !

अब थी खुदा की मर्जी,
की दुनिया ही फर्जी,
या लोगों की पसंद ही,
कुछ हो गयी है चरखी,
जो भी हो,
भाई का तो काम हो गया,
कहते हैं की लोग फँसते,
जब मुसीबत आती,
अपना तो पर उल्टे,
नाम हो गया !

छपी जो रचना अखबार में,
तो भूचाल आ गया,
उधर  छाया बवाल,
 इधर 'मजाल' छा गया !
'वाह वाह क्या बात है !
आपकी लेखनी कमाल है,
पहली ही रचना में,
आपने कर दिया धमाल है !'
चर्चा हुई मंच पर,
प्रपंच हिल गया !
संसद में पहुंची बात,
और युद्ध छिढ़   गया,
फुर्सतियों ने पढ़ा तो,
उनका चेहरा खिल गया,
बेमतलबी को और एक,
मकसद मिल गया !
अखबार से निकली तो
टीवी की बन गयी,
हफ्ते  भर तक खबर,
यूँ ही सुर्खी  में रही !

सबसे लिए मज़े,
अपने अपने ढंग से,
असल मुद्दा जाने कब,
फरार हो गया,
ढूँढने वाले ढूँढ़ते रह गए,
ग़ालिब हिन्दू थे की नहीं,
'मजाल' का दस लाख सालाना,
करार हो गया !

25 comments:

  1. मज़ाल साहब,
    पहुंचे हुये हो। समां बांध दिया, मज़ा बांध दिया(नोटों की बोरी भी बांध ली वैसे तो) :))
    चचा की उस बात के तो हम मुरीद ही हैं,
    "मेरा तरीका-ए-मज़हब, क्या पूछती हो मुन्नी,
    शियों के साथ शिया, सुन्नी के साथ सुन्नी"
    ऐसे माहिरों को हम कौम, मुल्क से बांध कर अन्याय ही करते हैं वैसे, ये तो समाज के सांझे होते हैं।
    पोस्ट बांधू हैओ एकदम, हमारा आभार स्वीकार करें।

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  2. वर्ड वैरिफ़िकेशन संबंधी हमारी फ़रमायश मानने का अलग से आभार।

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  3. मजाल साहब बहुत अच्छा लिखा है मजा आ गया

    http://www.jakhira.blogspot.com

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  4. बहुत सुंदर और सटीक

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  5. कमाल की रचना है, क्या सिर्फ ये शब्द काफी होगा ??? बेहतरीन!

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  6. बहुत ही खूबसूरत हास्य कविता हैँ...........लाजबाव हैँ इसमे हास्य का पुट। बधाई! - : VISIT MY BLOG :- जिसको तुम अपना कहते हो...........कविता को पढ़कर अपने अमूल्य विचार व्यक्त करने के लिए आप सादर आमंत्रित हैँ। आप इस लिँक पर क्लिक कर सकते हैँ।

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  7. बहुत अच्छा लिखा है|

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  8. ग़ालिब दरअसल सरदार थे
    उर्दू शायिरी के पगड़ीदार थे.
    अलफ़ाज़ की कमर से लटकती कटार थे.
    ग़ालिब दरअसल सरदार थे.
    मतला और मकता के वफादार थे.
    काफिया-हमकाफिया के गुरुद्वार थे.
    ग़ालिब दरअसल सरदार थे.

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  9. आपकी कविता एक स्वस्थ हास्य है. बेहद पसंद आयी.

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  10. एक बेहतरीन हास्य रचना.....सचमुच आनन्द आया पढकर.
    आभार्!

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  11. अटका हुआ था बहुत देर से,
    'वहाँ पर्वत सिन्धु थे'
    कुछ न सूझा तो जोड़ दिया,
    'ग़ालिब दरअसल हिन्दू थे !'


    -हा हा!! आनन्द आ गया जनाब!!

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  12. उधर छाया बवाल,
    इधर 'मजाल' छा गया !
    'वाह वाह क्या बात है !
    आपकी लेखनी कमाल है,
    सच मे ही कमाल है भाई। बधाई।

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  13. संसद में पहुंची बात,
    और युद्ध छिढ़ गया,
    फुर्सतियों ने पढ़ा तो,
    उनका चेहरा खिल गया,
    बेमतलबी को और एक,
    मकसद मिल गया !
    अखबार से निकली तो
    टीवी की बन गयी,
    हफ्ते भर तक खबर,
    यूँ ही सुर्खी में रही !

    अच्छी कविता ........

    इसे भी पढ़कर कुछ कहे :-
    (आपने भी कभी तो जीवन में बनाये होंगे नियम ??)
    http://oshotheone.blogspot.com/2010/09/blog-post_19.html

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  14. सबसे लिए मज़े,
    अपने अपने ढंग से,
    असल मुद्दा जाने कब,
    फरार हो गया,
    ढूँढने वाले ढूँढ़ते रह गए,
    ग़ालिब हिन्दू थे की नहीं,
    'मजाल' का दस लाख सालाना,
    करार हो गया

    असली मुद्दे इसी तरह खो जातें हैं...अच्छा व्यंग

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  15. पूरा कनफूजन है जैसे ही इस बात को मानने जा रहे थे की ग़ालिब हिन्दू थे तभी पता लगा की नहीं वो तो सरदार थे | पहले मिल कर निपटा ले की वो क्या थे फिर अपना निर्णय बता दे | वो इन्सान थे ये तो पक्की बात है |

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  16. :):) बहुत बढ़िया ...हास्य रंग जम गया ...

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  17. Is tarah bekhabr hone me bhi maza hai! Bahut badhiya rachana!

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  18. चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 22 - 9 - 2010 मंगलवार को ली गयी है ...
    कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया

    http://charchamanch.blogspot.com/

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  19. इस सुंदर से चिट्ठे के साथ हिंदी ब्‍लॉग जगत में आपका स्‍वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!

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  20. वाह वाह वाह वाह वाह...
    मैं तो पहली बार आई इस ब्लॉग पर
    और ढेर हो गयी...(हा.हा.हा.हा.)
    मजाल जी आपको दस लाख मिले
    या ना मिले...लेकिन हम तो आज
    आपके फेन हो गए...और हँसते हँसते
    पेट में दर्द हो रहे.
    :):):)

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  21. :) हँसी हँसी में बहुत कुछ बहुत सटीक कह डाला है जनाब .

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  22. उस संपादक का पता दे दीजिये ...!

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  23. मजाल साहब ,
    आप चेचा मंच पर आये शुक्रिया ..

    अलग विंडो खुलने की व्यवस्था तो नहीं हो सकती , लेकिन आप लिंक पर जा कर राइट क्लिक कर नयी विंडो खोल सकते हैं ...इस तरह की चर्चाओं से लिंक पर जाने के लिए मैं ऐसा ही करती हूँ तो लिंक दुसरे विंडो में खुलता है ...

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