बिना मात्रा की कविता - २
वह कहत,
वह कहत,
अधरम बढ़त जब-जब,
हम परकट !
अखयन कम ?
नयन ख़तम ?
यह वकत सखत,
तवम न अवगत ?!
चल हट!
तवम असत!
न करत,
बस कहत,
फकत !
हरपल, हरदम,
ग़म बस गम !
हर जगह छल कपट,
लगत यह - सब जन,
मत गय मरत !
मत गय मरत !
धन कम पर,
न कम खपत !
समधन, हमदम,
सब गयत भग!
सब गयत भग!
नयन बनत जल तट !
सनशय, सनशय, सब तरफ !
मन भय - परलय कब ?!
कम यह सबब ?
भगवन !
अब यह हद !
अगर,
अब न परकट,
तब कब ?
वद ! वद !
Wah...ye bhi khoob rahi...kalpnashaktiki mazedaar udaan!
ReplyDeleteधन कम पर,
ReplyDeleteन कम खपत !
समधन, हमदम,
सब गयत भग!
नयन बनत जल तट !
सनशय, सनशय, सब तरफ !
मन भय - परलय कब ?!
भई मजा आ गया पढ़कर-वद...वद.....वाकई
कभी यहां भी आइए और रचनाएं पसंद आएं तो फॉलोकर उत्साह बढ़ाइए
http://veenakesur.blogspot.com/
सबद लखत मन संशय भागत !
ReplyDeleteअजब
ReplyDeleteगज़ब
सरस सरस रस सर सर बरसत
पढ़त पढ़त तन मन सब हरषत
आप की रचना 24 सितम्बर, शुक्रवार के चर्चा मंच के लिए ली जा रही है, कृप्या नीचे दिए लिंक पर आ कर अपनी टिप्पणियाँ और सुझाव देकर हमें अनुगृहीत करें.
ReplyDeletehttp://charchamanch.blogspot.com
आभार
अनामिका
यह प्रयोग अच्छा लगा
ReplyDeleteबेहतरीन तरीका ईज़ाद किया है।
ReplyDeleteबढ़िया प्रयोग ...
ReplyDeleteWah! Wah! Wah! Great
ReplyDelete...anokhaa andaaj hai, badhaai !!!
ReplyDelete