अरसे पहले मुंशी प्रेमचंद साहब के किसी उपन्यास (या शायद मानसरोवर) में पगार की ये परिभाषा पढ़ी थी. उसी को कुछ कवितानुमा कर दिया है :
महीने की,
पहली तारीख को,
कितनी अच्छी,
लगती थी तुम,
मेरे हाथ में,
पूरी की पूरी !
गोया,
तुम और मैं,
बने है,
सिर्फ,
एक दूसरे के लिए,
पूरे के पूरे !
एक अनकहा वादा था,
साथ निभाने का,
पूरे महीने भर का !
मगर तुम,
ऐ नाज़नीन !
निकली बेवफा,
उस पूनम के चाँद की तरह,
जो होता चला गया,
कम,
रोज़ ब रोज़,
और गायब हो गयी तुम,
बीच महीने में,
पूरी तरह से,
मेरा साथ छोड़ कर,
चाँद की तरह !
अब मैं बैठा हूँ,
तन्हा !
खाली मलते हुए,
अपने हाथ,
और,
मेरे सामने बचा है,
काटने को,
आधा महीना,
पूरा का पूरा !
चलो कैसे भी सही उसकी अहमियत तो समझ आयी। शुभकामनायें।
ReplyDeleteअच्छी और सही परिभाषा है..
ReplyDelete:) :) आधा महीना ..पूरा का पूरा ...सही है ..
ReplyDeleteआप सभी का प्रतिक्रियाएँ देने के लिए आभार ....
ReplyDeleteचर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 09-11-2010 मंगलवार को ली गयी है ...
ReplyDeleteकृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया
कम से कम आधा महीना तो पार हो गया ... कहीं कहीं तो ये दो दिन भी नहीं ठहरती ....
ReplyDeleteअच्छा हास्य है ... .
कविता भले ही हास्य वाली हो लेकिन इसमें साहित्यिकता भी भरपूर है।
ReplyDelete:-)
ReplyDeleteबेहतरीन!
प्रेमरस.कॉम
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ReplyDeleteउधार के खुमार के उतार सी पगार !
ReplyDeleteसोलहवां चढ़े हुए बुखार सी पगार !!