ज्यादा खाने से तो,
थोड़ा कम बेहतर,
खाना कम बेहतर,
की हज़म बेहतर !
कभी कभी खाना,
भी ग़म बेहतर,
ग़म बेहतर पर,
न हरदम बेहतर!
है वो बेहतर,
या मैं बेहतर ?
वो भी अच्छा,
पर हम बेहतर !
पर हम बेहतर !
बेहतर-ए-बेहतरीन से,
भरी है महफ़िल,
तुकबंदी में मगर,
हम भी न कम बेहतर !
पहले अच्छा और,
फिर उससे बेहतर,
धीरे धीरे ही बनते,
सबसे बेहतर.
अब सबसे बेहतर भी,
यूँ तो क्या बेहतर (?)
की जो सोचने लगे,
'अब क्या इससे बेहतर ?!'
जो हम बेहतर,
तो है बेहतर,
जो वो बेहतर,
तो क्यूँ बेहतर ?!
तो क्यूँ बेहतर ?!
जिंदगी और शायरी की,
एक सी हालत 'मजाल',
नज़र पड़ी जो आज,
' कि यूँ बेहतर ! कि यूँ बेहतर ! '
7 comments:
बेहतर
मजेदार
बहुत खूब ! आपके इस बेहतरीन ब्लाग का अनुसरण कर रहा हूँ ...आपको हार्दिक शुभकामनायें
बहुत बेहतर
सब कुछ बेहत्तर हमारी क्या मजाल कि कहें नही बेहत्तर । हा हा हा बहुत बडिया । बधाई।
हम तो इस गफ़लत में हैं ऐ आशीष,
मजाल बेहतर या मजाल की मजाल बेहतर?
ज्यादा लिखनें से तो ,थोड़ा कम बेहतर !
कविता पर टिपियाना ना हरदम बेहतर !
ये भी बेहतर है.
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