वो हमसे कुछ ख़ास नहीं मिले,
लगता है, अहसास नहीं मिले !
और दिनों मिलते थे जैसे,
वैसे हमसे आज नहीं मिलें !
इंसा और जानवर का फासला,
तबीयत, कभी हालात नहीं मिले !
कोई तलाशे, बादे मौत ज़िन्दगी,
किसी को, आगाज़ नहीं मिले !
सभी ने हाँकी अपने मन से फकत ,
किसी को पर, वो राज़ नहीं मिले !
कितनों में छुपे, मीर ग़ालिब 'मजाल',
बस सोच को, अल्फाज़ नहीं मिले !
6 comments:
कितनों में छुपे, मीर ग़ालिब 'मजाल',
बस सोच को, अल्फाज़ नहीं मिले !
बिल्कुल हमें भी नहीं मिलते...
jab soch ko alfaj mil jaate hain..majaal ban jaataa hai...bahut badhiya.
कितनों में छुपे, मीर ग़ालिब 'मजाल',
बस सोच को, अल्फाज़ नहीं मिले !
..क्या अल्फाज पाया है..वाह! बिलकुल यही बात!
....सोच को अल्फाज नहीं मिले गालिब
वरना हम भी आदमी थे काम के।
बहुत सुन्दर, आपकी रचनाओं में एक अलग अंदाज है!
"कोई तलाशे, बादे मौत ज़िन्दगी,
किसी को, आगाज़ नहीं मिले ! "
भाई, रजा मुराद याद आ रहे हैं हमें.....
जीने की आरज़ू में रोज........
............जिये जा रहा हूँ मैं।
Am I right?
आप सभी का प्रतिक्रियाओं के लिए आभार ....
राजा मुराद साहब का तो बस चेहरा ही याद है संदीप भाई, बाकी मजालिया खोपड़ी भिड़ा कर dialogue (monologue rather ! ) पढ़े तो चीज़ तो बड़ी जोरदार मालूम होती है ... ;)
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