फैलेगी धीरे धीरे,
खिलेगा पूरा चेहरा,
दिखा रहा होठों के,
एक कोने पे हँसीं आई ... !
किसलिए जिए या,
किसलिए मर जाएँ,
हर वजह की बेवजह,
होने पे हँसीं आई ... !
कम ही किया सचमुच,
बस सोच कर हुए खुश,
ख़यालों ख़्वाबों, गोया,
सोने में हँसीं आई .. !
तेज़ हाथ छटपटा के,
नथुने दोनों फुला के,
कुछ ऐसे रोया बच्चा की,
रोने पे हँसीं आई ...!
जो तबीयत हुई मनमौजी,
उसने तब हर जगह खोजी,
फिर तो सुई में धागा भी,
पिरोने में हँसी आई .. !
अक्ल लगा लगा के,
समझ आखिर में आया,
की दरअसल इस अक्ल के,
खोने पे हँसीं आई .. !
'मजाल' क्या मिट्टी थी,
जाने क्या माली था,
जो भी बोया उसने ,
हर बोने पे हँसीं आई ...
6 comments:
अच्छा है भाई, हँसी तो आई।
रोने से कौन सा ससुर गम कम हो जायेगा। आप कहा करते हैं लिखते रहिये, अब हम कह रहे हैं -
हँसते रहिये।
ये हंस पाना भी किस कदर दुश्वार काम है ?
बेहद मानीखेज !
तेज़ हाथ छटपटा के,
नथुने दोनों फुला के,
कुछ ऐसे रोया बच्चा की,
रोने पे हँसीं आई ...!
जी हा बिलकुल ऐसा ही होता है जब मेरी बेटी यु ही रोती है और मै हंस पड़ती हु |
हंसना मुश्किल नहीं है
बस सोच भर लीजिये की रोना नहीं है |
हँसना कभी कभी सहज नहीं होता....
और कभी अत्यंत सहज भी!
रुदन और हास के बीच झूलती है जिंदगी!
सुन्दर रचना!
आप सभी का ब्लॉग पर पधारने के लिए आभार ....
हंसना बहुत महंगा है जी...चलो आपको हंसी आई वो भी इत्ती छोटी छोटी बातो पे..लो हमें भी हंसी आई आपकी ये रचना पढ़ के.
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