Wednesday, November 17, 2010

बालगीत : ' पतंगबाजी ! '

जोत उसके बाँध के,
तराजू जैसे नाप के,
सर मोड़ काँफ के,
हवा बहाव नाप के,
एक दे उड़न छी,
एक गट्टा सँभाल के.
ये उड़ी अपनी पतंग,
हवा के साथ संग संग,
हवा तेज़ - साधो सनन ,
हवा कम - ठुमके ठन ठन !

कागज़ की अपनी पतंग,
हवा उड़े सर सर,
पन्नी की छोटी पतंग ,
शोर बड़ा 'सड़ सड़ !' 
डोर खीच हड  बड़ ,
कटे  हाथ घड़ धड़ !

उड़ते हुए खुले जोत,
तो गोते खाए तेज़ से,
फटे तो मरहम लगाओ ,
चावल आटे  लेप से !

कभी उड़े चील सी,
कभी गोतेबाज़ सी,
कभी पेड़ उलझे कभी,
डोर फांसे पक्षी !

बाजू छत मुन्ना,
धोंस दे लफंगा!
मेरे कन्ने डग्गा,
मेरेसे नई  पंगा !
मैंने है करवाया हेगा,
काँच वाला मंझा !

निकालेंगे हम इसकी हेंच,
आ बच्चू , लड़ा ले पेंच !

आसमां में निगाहें,
 जमी सबकी एक सी,
अब होगे फैसला,
जीतेगा बस एक ही,
एक तरफ सांकलतोड़ ,
एक तरफ बरेली !

कान बाज़ , चाँद बाज़
इक दूसरे के आस पास !
भिड़  जाए ऐसे दोनों ,
झपटा मारे जैसे बाज़,
मंझे उलझे मंझे से,
तेज़ हो साँसों के साज़ !
 
" ढील ! ढील ! ढील ! ढील ! "
" खेंच ! खेंच ! खेंच ! खेंच ! "
" ढील ! "
"खेंच ! "
"ढील ! " 
" खेंच ! "
" काटा sssssss है ......  !  "

5 comments:

देवेन्द्र पाण्डेय said...

..आपकी कविता पढ़कर तो मन करता है कि अभी छत पर चढ़ जाएं और खूब पतंग उड़ाएं।
..वो देखिए...आप मेरा कमेंट पढ़ रहे थे मैने आपकी पतंग काट दी...भक्काटे हौsssss

उम्मतें said...

बढ़िया ,देवेन्द्र जी से सहमत !

anshumala said...

जी हा बनारस में पतंग नहीं जी पतंग नहीं गुड्डी के कटने पर वही कहते है जो देवेन्द्र जी ने कहा है | हम भी अच्छी गुड्डी उड़ा लेते थे और चपकाने के लिए चावल के अलावा पकी सब्जी से आलू भी लाते थे | यहाँ मुंबई में छत ही नसीब नहीं है तो गुड्डी का ख्याल भी कैसे लाये | आप की कविता ने तो बस बचपन की याद दिला दी |

निर्मला कपिला said...

कमाल की पतंगबाजी करते हैं आप। हमने भी एक तेज धार डोर के कमेन्ट से उसे काट दिया। बधाई।

Majaal said...

आप सभी लोगों का ब्लॉग पर पधारने और प्रतिक्रियाएँ देने के लिए आभार ...

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