Sunday, November 28, 2010

लघुकथा - ग़ालिब आखिर पत्थर निकले काम के ... !

वो घोर नास्तिक था. ईश्वर के न होने के पक्ष ऐसे ऐसे तर्क प्रस्तुत करता था, की प्रसिद्ध था, की यदि साक्षात प्रभु भी उसके तर्क सुन लें, तो वे  स्वयं भी अपने अस्तित्व के प्रति आशंकित हो जाए ! कट्टरपंथियों को उसका यह नजरिया पसंद नहीं आया. कुछ लोग उसे अगुआ  कर दूर रेगिस्तान ले गए, और उस पर पत्थर बरसा कर अधमरी हालत में छोड़ आए, की बाकी सब प्रभु संभाल ही लेंगे !

वो कई घंटों तक अचेतन और अवचेतन के बीच की अवस्था में बड़बड़ाता रहा. कभी लोगों को कोसता, कभी अपने तर्कों को दोहराता, कभी खुद को कोसता, और कभी अपने ही तर्कों पर सवाल करने लगता ! घंटों तक यही सिलसिला चलता रहा. दिन से रात हो गयी. अब उसे भूख की याद आई, प्यास की भी याद आई ! रेगिस्तान में दिन में जितनी भयंकर गर्मी, रात में उतनी ही कातिलाना ठंड ! बड़बड़ाने से ध्यान बँटा , तब ठंड भी उसे अपने तर्कों की ही तरह भेदक मालूम हुई !

अब उसे ईश्वर के अस्तित्व से ज्यादा अपने अस्तित्व की चिंता हुई ! ठण्ड से बचने के लिए कोई सुरक्षित स्थान न दिखा. फिर नज़र उन पत्थरों के ढेर पर गयी जो लोगों ने उस पर फेकें थे. उन्हीं  में से छाँट कर एक काम चलाऊ गुफानुमा ढाँचा बना कर जैसे तैसे रात गुजारी. भूख के बारे में सोचता हुआ बेहोश हो गया.

अगले दिन होश आया तो  खुद को बीच सफ़र में एक गाड़ी के अंदर पाया. जाने कहाँ से उस वीरान जगह से गुजरते वक़्त, कुछ सैलानियों की नज़र उस पर पड़ गयी थी ! खाना भी नसीब हो गया, और पानी भी !रात को अपने प्राण बचाने में उसे कुछ योगदान उस जुगाडिया गुफा का भी लगा ! खाते खाते वो सोच रहा था, कमबख्त कुछ पत्थर तो बड़े काम के निकले ! 

16 comments:

चुंनिंदा शायरी said...

पर ग़ालिब तो निकम्मे हो गए थे !

चुंनिंदा शायरी said...

अच्छी लघु कथा.

उस्ताद जी said...

6.5/10

उत्कृष्ट मौलिक लघु-कथा
क्या बात है बरखुदार .. बहुत खूब
"कमबख्त कुछ पत्थर तो बड़े काम के निकले"
लघु-कथा के भीतर की बात पाठक तक पहुँच रही है.

दीपक बाबा said...

शायद उसे इश्वर के अस्तित्व पर विश्वास हो गया होगा......
या फिर पत्थर को पूजने लग गया हो... क्या कहा जा सकता है.

चुंनिंदा शायरी said...
This comment has been removed by the author.
Majaal said...

दीपक साहब, बातों का मतलब तो वही होता है जो समझने वाला निकाल ले ;)

आप सभी लोगों का ब्लॉग पर पधारने के लिए आभार ....

Administrator said...

बढ़िया है सर जी, मेरे ब्लॉग पर भी नज़र डालें

संजय @ मो सम कौन... said...

जैसे ’दाग अच्छे हैं’

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

पत्थर वाकई काम के निकले..

vandana gupta said...

आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (29/11/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com

अनुपमा पाठक said...

भेंके हुए पत्थर से राह बना ले ... यह इंसान की आशावादिता का सुन्दर परिणाम है!

उम्मतें said...

आखिर ये जान बचाऊ गुफा बनाने लायक पत्थर फेंके किस कमबख्त ने ?



[ आज आपका अंदाज़ नया है पढते ही ख्याल आया कि पत्थर किसी ने भी फेंके हों सैलानियों में से एक ज़रूर हम रहे होंगे :) ]

समयचक्र said...

लघु कथा तो बड़ी रोचक लगी.....

Unknown said...

patthar hi kaam aaye.

दीपक 'मशाल' said...

लघुकथा बहुत अच्छा सन्देश दे रही है, बोध कथाओं की तरह.. पर फिर भी जाने क्यों लगा कि इसमें लघुकथा वाला शिल्प थोड़ा कमज़ोर सा है. शिल्प बेशक अच्छा है पर लघुकथा वाला नहीं.. मेरा उद्देश्य आलोचना करना नहीं इसलिए कृपया बुरा ना मानें.. :) और हाँ वो 'अगुआ' को भी 'अगवा' कर लीजियेगा.

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" said...

बहुत सुन्दर लघुकथा !
औरों को क्या सन्देश मिला ये मुझे नहीं पाता पर मुझे तो पुरुषार्थ का सन्देश मिला है ...

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