एक दिन लाल हमारा चंदी,
पुछा हमसे बात एक चंगी,
पापा, हमको भी समझाओ,
कैसे करते है तुकबंदी ?
" सबसे पहले जोड़ी बनती,
एक जैसे शब्दों की फंदी,
जैसे की समझ लो बेटा,
चंदी, मंदी, बंदी, झंडी.
फिर है करतें कोशिशें हम,
चिपका दे उनको, जैसे की गम,
जुड़े ऐसे, की बात लगे दम,
मतलब निकले, गुदगुद हरदम,
चंदी ने देखे दिन मंदी,
सोचा की लगा ले बंदी,
राहत मिली, जब लेनदारों ने,
दिखा दी उसको, हरी झंडी,
ऐसे करतें है तुकबंदी ! "
" ये तो पापा बड़ा झमेला,
इतने सब शब्दों का मेला,
लगता मुझे बड़ा मुश्किल ये,
कैसे कर पाऊंगा अकेला ? "
" विचार भी होते थोड़े सनकी,
सोच न उठती जैसे नंदी,
तुम भी ज्यादा न अक्ल भिड़ना,
की गाय नंदी, या बैल नंदी !
धीरी धीरे आदत पड़ती,
चलना सीखे नंदी पगडंडी,
फिर न पीटना पड़े है इसको,
बस काफी, कि देखा दो डंडी,
खुद ही उठ चल पड़ती नंदी !
ऐसे बनती है तुकबंदी ! "
" अच्छा पापा मैंने समझी,
अब मैं कोशिश करता तुकबंदी,
चंदी, मंदी, झंडी जैसा,
एक और शब्द भी होता - गंदी ! "
" ना ना मेरे बच्चे चंदी,
न करते बातें गंदी गंदी !
ऐसे न करते तुकबंदी ! "
5 comments:
अच्छा पापा मैंने समझी,
अब मैं कोशिश करता तुकबंदी,
चंदी, मंदी, झंडी जैसा,
एक और शब्द भी होता - रंडी ! "
सही है आजकल ऐसी ही तुकबंदी हो रही है। क्या मजाल कि कोई कह दे ये अच्छी नही। शुभकामनायें
हास्य कविता हास्य की सहज उत्पत्ति में सफल है .....!
शुभकामनायें!
आजकल कवि सम्मलेन में तो तुकबन्दी और अश्लील चुटकुले ही चलते हैं |
बहुत अच्छी प्रस्तुति। भारतीय एकता के लक्ष्य का साधन हिंदी भाषा का प्रचार है!
मध्यकालीन भारत धार्मिक सहनशीलता का काल, मनोज कुमार,द्वारा राजभाषा पर पधारें
वाहह!हास्य हास्य में गंभीरता से दे दी अश्लीलता से परहेज़ की नसीहत ।
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