Showing posts with label काला हास्य (डार्क ह्यूमर / ब्लैक कॉमेडी ). Show all posts
Showing posts with label काला हास्य (डार्क ह्यूमर / ब्लैक कॉमेडी ). Show all posts

Wednesday, November 17, 2010

काला हास्य - ' म र ण '

बचपन, हमदम
हस, ग़म,
सब समरण,

एक एक कर,
मगर, न लय,
सब उलट  पलट,
सरपट  धड़ धड़  !
न जल हलक
मगर,
बदन,
तर ब तर !
  
सस कम पल पल,
कम दम क्षण क्षण,
च,
तत पशचत,  
ख़तम सब  !
धन, घर, यश,
सब रह गय धर !
मट दफ़न मट !
सब परशन  हल,
पर,
हर जन असफल, 
सकल !

Thursday, October 7, 2010

'ग़ोश्त' - काला हास्य (डार्क ह्यूमर / ब्लैक कॉमेडी )

'छिनाल है, पर माल है !',
ऐसा लोगों का, उसके बारे में,
ख्याल है.

हमने तो जितना देखा,
ठीक ही लगती है हमें,
लोगों को जाने क्यों,
उससे इतना ऐतराज है ?
  
'आपकी तो निकल पड़ी 'मजाल',
उसका संदेसा आया है,
हमें तो कमबख्त ने कभी,
दिन में भी नहीं पूछा,
आपको बड़ा रात को,
खाने में बुलाया है !
सुना है,
बहुतों को खुश कर चुकी है,
आप भी आजमाइए,
और अगले दिन, रात की कहानी,
हमें भी विस्तार से सुनाइए !'

रात का वक़्त था, उसका घर था,
हम थे अन्दर, बाहर अँधेरा,
एक छोटा सा, गोलमटोल बच्चा था उसका,
और निपट अकेली, वो थी बेवा.

बातें करते करते,
वो जरा कभी मुस्कुराए,
हमारा सोचना शुरू,
सोच कुलबुलाए, 
'क्या  मंसूबे बना रहीं है ?
पानी पिला रही  है,
तो क्यों पिला रही है ?!
चाहती क्या है आखिर ?
अन्दर क्या पका रही है ?'

उलझन भी यूँ बड़ी,
अजीब थी दोस्त,
एक तरफ कवि ह्रदय,
एक तरफ ग़ोश्त !
बदन में खरोच के निशाँ,
पर व्यवहार निर्दोष !
कमर में कुदरती लोच,
तो आँखों में भी संकोच !
'मजाल' बांधे मंसूबे,
या करें उन पर कोफ़्त !

पर अब 'मजाल' भी,
खोपड़ी शायराना,
कब तक आखिर सोच,
उधार की खाए ?
सामने थी वो,
हकीकत सी जाहिर,
कब तक फन्ने खाँ,
ख्याली घोड़े दौडाए ?

सोच चीज़ कुत्ती, वो भी पूरी पागल,
बच के रहिएगा,चोट कर जाएगी ,
खुद तो मरेगी ही काट कर आपको,
आपको भी मगर, पागल कर जाएगी !

जो जैसा है, वो है वैसा क्यों ?
छोड़िये जनाब, क्यों अक्ल  लड़ाइए ?
सामने बैठा था, गोलमटोल बच्चा,
चलिए, इसी से खेल कर,
अपना दिल बहलाइए !

जेब में रखी थी, हमने कुछ टॉफी,
उसको दी, और फिर दिल खो गया.
लगे फिर हम उसको कहानी सुनाने,
उसने सुनी ऐसे, की सुचमुच हो गया ! 
रखिये समझ को , बच्चो सा सरल 'मजाल',
टॉफी मिली, और बच्चा खुश हो गया !

अब हमने फिर से बेवा को देखा,
अब कुछ बैचनी न थी मगर,
अब बस करार था.
जिस्म में उसके, अब भी वही उभार था,
पर शायद नदारद,
अब हमारा विकार था ?!

अन्दर पनपी थी, एक सोच  कमीनी ,
खामखा वो हमें खा रही थी,
'ग़ोश्त' तल रहा था,
कोई हमारे ही अन्दर,
जो बदबू थी पकने की,
वहीँ से आ रही थी...

' तो मियां 'मजाल', कैसी रात बिताई ?
हुई कुछ वारदातें, कोई हाथापाई ?!
हमें भी किस्से रात के,
तबीयत से सुनाइये !'

'बोलने को तो जनाब, हमारे पास बहुत है,
पर क्यों इस तरह, वक़्त को गवाइएँ ? 
छोड़िये खुराफाती सोच को दौड़ाना,
लीजिये, खाइए टॉफी, और खुश हो जाइये   !'
Related Posts with Thumbnails