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Tuesday, September 28, 2010

ग़ज़ल : ग़म को ही ओढ़ सो गए रजाई की तरह ! ( Shayari - Majaal )

बस इसलिए की, जयका-ए-जिंदगी  पता चले,
चखते  है  ग़म जरूर, पर हलवाई की तरह !
नहीं देतें है पनाह, ज्यादा देर हम ग़म को ,
वाकिफ है, ये  टिक जाता घरजमाई की तरह !

इक बार कर गया  जो घर, ये ग़म  अन्दर,
ताउम्र  सहना पड़ सकता, लुगाई की तरह !
कड़क वक़्त, कड़क जेब, कड़क ठण्ड थी 'मजाल',
ग़म को ही  ओढ़ सो गए रजाई की तरह !
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