बस इसलिए की, जयका-ए-जिंदगी पता चले,
चखते है ग़म जरूर, पर हलवाई की तरह !
नहीं देतें है पनाह, ज्यादा देर हम ग़म को ,
वाकिफ है, ये टिक जाता घरजमाई की तरह !
इक बार कर गया जो घर, ये ग़म अन्दर,
ताउम्र सहना पड़ सकता, लुगाई की तरह !
कड़क वक़्त, कड़क जेब, कड़क ठण्ड थी 'मजाल',
ग़म को ही ओढ़ सो गए रजाई की तरह !