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Saturday, November 27, 2010

सूरज दादा गुस्से में : बाल-कविता (हास्य),

सूरज दादा उखड़े से,
आज भरे है गुस्से से,
बोले न छिपूँगा आज,
इस बादल के टुकड़े से !

मेरी कोई कदर नहीं,
हो मेरा तेज अगर नहीं,
कब तक जी बहलाओगे,
इस मुए चाँद के मुखड़े से !

ये भी मुझ पर निर्भर रहता,
मैं ही इसको रोशन करता,
मेरी उधारी खा खा कर ये,
रहता अकड़े अकड़े से !

आज सबक सिखाऊँगा,
जलवा अपना दिखाऊँगा, 
ढलूँगा न मैं, रह जाएगा, 
तू सर अपना  पकड़े से ! 

चाँद बोला मुझे बचाओ,
बिजली दीदी इन्हें मनाओ,
सूरज जीजा कभी कभी,
हो जाते पगले पगले से !

बिजली रानी हुई बवाली,
मेरे भाई को देते गाली,
माफ़ी माँगो, और ढल जाओ,
वखत हुआ है तड़के से.

बादल मौसा भी अब आए ,
लिए सूरज को  वो लपटाए,
बिजली कौंधी घमासान सी,
सब ताके, आँखे जकड़े से !


सूरज ने भी ताप बढाया ,
पूरा माहौल गया गरमाया,
बादल को छूता पसीना,
बिन मौसम वो बरसे से !

थोड़ी देर तक चली लड़ाई,
सूरज को भी समझ फिर आई,
ठंडे पानी में रह कर,
अब सूरज दादा ठंडे से !

ठंडे हो कर सोचा ढंग से,,
ज्यादा गर्मी से सब तंग से,
गुस्सा नहीं है अब वो करते,
दिखते बदले बदले से !

सूरज दिन को , चाँद रात में ,
बिजली , बादल, बरसात में ,
सब  आते है बारी बारी,
बचते है वो झगड़े से ! 

मिल कर रहना अच्छा होता,
सब कुछ मिल जुल के ही होता,
गुस्से को पानी छप छप कर,
 देना भगा धड़ल्ले  से !

Monday, October 4, 2010

मोटूराम ! बाल कविता (हास्य) ( Bal Hasya Kavita - Majaal )

मोटूराम ! मोटूराम !
दिन भर खाते जाए जाम,
पेट को न दे जरा आराम,
मोटूराम ! मोटूराम !

स्कूल जो जाए मोटूराम,
दोस्त सताए खुलेआम,
मोटू, तू है तोंदूराम  !
हमारी  कमर, तेरा  गोदाम !

तैश में आएँ मोटूराम !
भागे पीछे सरेआम,
पर बाकी सब पतलूराम !
पीछे रह जाएँ मोटूराम !

रोते घर आएँ मोटूराम,
सर उठा लें पूरा धाम,
माँ पुचकारे छोटूराम,
मत रो बेटा , खा ले आम !

जब जब रोतें मोटूराम,
तब तब सूते जाए आम,
और करें कुछ, काम न धाम,
मुटियाते जाएँ मोटूराम !

एक दिन पेट में उठा संग्राम !
डाक्टर के पास मोटूराम,
सुई लगी, चिल्लाए ' राम' !
' राम, राम ! हाए राम !'

तब जाने  सेहत के दाम,
अब हर रोज़ करें व्यायाम,
धीरे धीरे घटा वज़न,
पतले हो गए मोटूराम !

Wednesday, September 29, 2010

ऐसे करतें है तुकबंदी - बाल कविता (हास्य), ( Bal Hasya Kavita - Majaal )

एक दिन लाल हमारा  चंदी,
पुछा हमसे बात एक चंगी,
पापा, हमको भी समझाओ,
कैसे करते है तुकबंदी ?

 " सबसे पहले जोड़ी बनती,
एक जैसे शब्दों की फंदी,
जैसे की समझ लो बेटा,
चंदी, मंदी, बंदी, झंडी.

फिर है करतें कोशिशें हम,
चिपका दे उनको, जैसे की गम,
जुड़े ऐसे, की बात लगे दम,
मतलब निकले, गुदगुद हरदम,

चंदी ने देखे दिन मंदी,
सोचा की लगा ले  बंदी,
राहत मिली, जब लेनदारों ने,
दिखा  दी उसको, हरी झंडी,
ऐसे करतें है तुकबंदी ! "

" ये तो पापा बड़ा झमेला,
इतने सब शब्दों का मेला,
लगता मुझे बड़ा मुश्किल ये,
कैसे कर पाऊंगा अकेला ? "

" विचार भी होते थोड़े सनकी,
सोच न उठती जैसे नंदी,
तुम भी ज्यादा न अक्ल  भिड़ना,
की गाय नंदी, या बैल नंदी !
धीरी धीरे आदत पड़ती,
चलना सीखे नंदी पगडंडी,
फिर न पीटना पड़े है इसको,
बस काफी, कि देखा दो डंडी,
खुद ही उठ चल पड़ती नंदी !
ऐसे बनती है तुकबंदी ! "

" अच्छा पापा मैंने समझी,
अब मैं कोशिश करता तुकबंदी,
चंदी, मंदी, झंडी जैसा,
एक और शब्द भी होता - गंदी ! "

" ना ना मेरे बच्चे  चंदी,
न करते बातें गंदी गंदी !
ऐसे न करते तुकबंदी ! "

Friday, September 24, 2010

'बंटी की बज गयी घंटी !' बाल कविता (हास्य) ( Bal Hasya Kavita - Majaal )

एक दिन बंटी,
खेल रहा था अंटी,
पिताजी ने देखा,
मार दी डंडी,
बंटी की बज गयी घंटी,
अब न खेलेगा अंटी !

एक दिन बंटी,
जाता था पगडंडी,
पगडंडी में बंटी को,
दिख गयी फंटी,
बंटी की बज गयी घंटी,
अब रोज जाता पगडंडी !

बंटी गया मंडी,
ख्यालों में थी फंटी,
चवन्नी की चीज़,
खरीद ली अठन्नी,
माताजी को बताया,
पड़ गयी चमटी,
बंटी की बज गयी घंटी,
अब न मंडी, न फंटी !

एक दिन बंटी,
लेने तेल अरंडी,
दाम न चुकाए,
दुकानदार बना  चंडी,
बंटी की बज गयी घंटी,
अब न करता बेमंटी  !

एक दिन बंटी,
पीने गया शिकंजी,
आईने में देखा,
समझा खुद को  तोप  तमंची,
पहलवान से भिड़  गया,
उसने दो तीन जड़ दी,
बंटी की बज गयी घंटी,
अब न बनता घमंडी !

एक दिन बंटी,
खेलता था धुलंडी,
रंग गया आँख  में,
दो दिन तक अंधी,
बंटी की बज गयी घंटी,
अब न रंग, न धुलंडी !

बड़ा हुआ बंटी,
अब रहा न सनकी,
सबका  प्यारा बंटी,
राज दुलारा बंटी,
समय रहते उसकी,
अब बज जाती है घंटी,
इसलिए अब बंटी,
न करता कुछ अंड बंडी !
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