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Sunday, July 7, 2024

कविता - यह 'कुछ', ही 'सब-कुछ' है .. !

जीवन की राह में मेरे प्रिय,,
 लम्हा ऐसा भी आता है,
अंतिम लगता है सबकुछ जब,
किन्तु फिर कुछ बच जाता है.

जीवित है की मृत मरा नहीं,
प्रमाण यही तो अवगत है,
जीवन जीने का इच्छुक है,
बाकी बचा कहीं कुछ है,
(और ) सच जान इसे तू मेरे प्रिय !
यह 'कुछ', ही 'सब-कुछ' है .. !

निराशा-बादल के भीतर ,
आशा-बूँदें भी शामिल है,
हर पल,हर घड़ी , हर एक लम्हा,
मौका बनने के काबिल है.

गहरी बदरी जितनी उतनी,
मूसला-बारिश के लक्षण है,
हर अनुभव बन कर नसीहत,
कुछ  सिखलाने में सक्षम है !

हर ख्व्वाब, हर एक तेरा सपना,
पूरा जीने के लायक है,
सच जान इसे तू, मेरे प्रिय !
(ये) सपने ही असल हकीकत है !

ये स्वप्न यहीं दर्शाते की,
जीवन जीने का इच्छुक है,
बाकी बचा कहीं कुछ है,
(और) सच  जान इसे तू , मेरे प्रिय !
यह 'कुछ', ही 'सब-कुछ' है .. !

(रूचि अग्रवाल जी के सौजन्य से) 

Friday, October 29, 2010

सारांश

"बिकी हुई दवाई,
नहीं होगी वापस भाई,
न कोई अदल-बदल,
और ना ही,
कोई और दखल !
कृपया दवाई उतनी ही लें,
जिंतनी की चाहिए,
इस तरह अपना मूल्य,
और समय अमूल्य,
दोनों को बचाइये ! "

कहने को एक तख्ती थी लकड़ी की,
जिस पर टंगा था एक विचार,
पर जो इस विचार पर किया जाए विचार,
तो पाइएगा मियाँ 'मजाल',
की छुपा हुआ है इसमें,
कितनें ही सालों का अनुभव,
किसी की जिंदगी का,
पूरा सार !

Wednesday, October 13, 2010

एक कविता मौत पर - ' मृत्यु दर्शन'

खुद से, दूसरों से, 
कभी जिंदगी से लड़ते है,
जाने या अनजाने, 

अन्दर इक तैयारी करते है.
जानते की अंजाम बुरा, 

सुनते मगर कब है?
कोई जल्दी, कोई देर से, 

थकते मगर सब है.
दमा, दिल का दौरा, 

लकवा, गुर्दे ख़राब,
लफ्ज लगते है जुदा, 

सबका मगर एक हिसाब.
सुझानी हकीम को कोई वजह,

तो कहता, 'की इसलिए',
बात दरअसल ये थी,

'जियें तो जियें किसलिए ?!'
अपने अपने ढंग से सब,

मौत की ओर सरकते है,
कौन मरता कुदरतन 'मजाल',

सब खुदखुशी ही करते है!

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