!
ओं !
सुनो !
मजाल !
इसी तरह से,
बीच बीच में एंटर,
मार कर बन जाता है,
गद्य लेखन पद्य और फिर,
वो मुझे प्यार से कहती है की देखो,
ये है मेरी आधुनिक कविता !
ऊपर से नीचे तक देखता हूँ,
पढ़ता हुआ उसे, मगर,
समझ नहीं पाता ,
तो कह देता हूँ,
डिजाईन ,
अच्छा,
है !
!
वक़्त ही वक़्त कमबख्त है भाई, क्या कीजे गर न कीजे कविताई !
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Sunday, December 12, 2010
विशुद्ध हास्य - आधुनिक कविता ( Hasya Kavita - Majaal )
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हास्य कविता
Friday, December 10, 2010
"मैं तुम्हारे बच्चे की माँ बनाने वाली हूँ" - फुटकर हास्य-कविताएँ ( Hasya Kavitaen - Majaal )
कुछ फुटकर हास्य कविताएँ, थोड़े थोड़े दर्शन से साथ ;)
1. "मैं तुम्हारे बच्चे की माँ बनाने वाली हूँ",
अगर रिश्ता पति पत्नी,
तो खबर ख़ुशी की,
अगर लैला मजनू,
तो लग गयी वाट !
कभी कभी जिंदगी में,
घटनाओं से ज्यादा,
मायने रखते 'मजाल',
उनके हालत !
2. दुर्जनों की सौ सौ वाह वाही,
कर न पाएगी उम्रभर,
सज्जनों की दस दुहाई,
पर कर जाएगी काम,
सड़े फलों से बेहतर खाना ,
ताज़ा छिलके 'मजाल',
खुमानी की तो निकलेगी, गुठली भी बादाम !
...... और एक नज़्म :
* जिंदगी की आपाधापी,
गर्माते मिजाज़ के बीच,
कहीं से,
उड़ कर आया,
यादों का एक टुकड़ा,
और कर गया,
आँखों को.
जरा जरा सा नम,
अचानक हुई इस फुहार,
से हो गयी,
जस्बातों की,
तपती जमीन गीली,
और,
माहौल खुशनुमा हो गया !
1. "मैं तुम्हारे बच्चे की माँ बनाने वाली हूँ",
अगर रिश्ता पति पत्नी,
तो खबर ख़ुशी की,
अगर लैला मजनू,
तो लग गयी वाट !
कभी कभी जिंदगी में,
घटनाओं से ज्यादा,
मायने रखते 'मजाल',
उनके हालत !
2. दुर्जनों की सौ सौ वाह वाही,
कर न पाएगी उम्रभर,
सज्जनों की दस दुहाई,
पर कर जाएगी काम,
सड़े फलों से बेहतर खाना ,
ताज़ा छिलके 'मजाल',
खुमानी की तो निकलेगी, गुठली भी बादाम !
...... और एक नज़्म :
* जिंदगी की आपाधापी,
गर्माते मिजाज़ के बीच,
कहीं से,
उड़ कर आया,
यादों का एक टुकड़ा,
और कर गया,
आँखों को.
जरा जरा सा नम,
अचानक हुई इस फुहार,
से हो गयी,
जस्बातों की,
तपती जमीन गीली,
और,
माहौल खुशनुमा हो गया !
Tuesday, December 7, 2010
शुद्ध हास्य-कविता - बच के कहाँ जाओगी रानी ! ( Hasya Kavita - Majaal )
बच के कहाँ जाओगी रानी !
हमसा कहाँ पाओगी रानी !
इतने दिनों से नज़र है तुझपे,
रोच गच्चा दे जाती है !
आज तो मौका हाथ आया है !
बस तुम हो और,
बस मैं हूँ, बस !
बंद अकेला और कमरा है !
इतने दिनों से सोच रहा हूँ,
अपने अरमां उड़ेल दूँ,
सारे तुझ पर ,
आज तू अच्छी हाथ आई है !
करूँगा सारे मंसूबे पूरे !
आज तो चाहे जो हो जाए,
छोड़ूगा नहीं,
ऐ सोच !
तुझे,
कविता बनाए बिना !!!
हमसा कहाँ पाओगी रानी !
इतने दिनों से नज़र है तुझपे,
रोच गच्चा दे जाती है !
आज तो मौका हाथ आया है !
बस तुम हो और,
बस मैं हूँ, बस !
बंद अकेला और कमरा है !
इतने दिनों से सोच रहा हूँ,
अपने अरमां उड़ेल दूँ,
सारे तुझ पर ,
आज तू अच्छी हाथ आई है !
करूँगा सारे मंसूबे पूरे !
आज तो चाहे जो हो जाए,
छोड़ूगा नहीं,
ऐ सोच !
तुझे,
कविता बनाए बिना !!!
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हास्य कविता
Tuesday, November 23, 2010
हास्य-कविता - ' मजेदार पहेली ' ( Hasya Kavita - Majaal )
बच्चा सोचे, कब इस बचपन से छुटकारा पाऊँ,
बूढ़े की ख्वाहिश, फिर से जो, बच्चा मैं बन पाऊँ !
गरीब देख ठाट साहब के, अपनी किस्मत रोए,
साहब सोते देख गरीब को, 'चिंता गायब होवे !'
पौधा तरसे जाए, कोई उसको डाले पानी,
कैक्टस जो गलती से गीला, याद करे वो नानी !
औरत मुजरे सी सबको रिझाने वाली अदा चाहे,
मुजरे वाली से पूछो तो, बस एक मरद मिल जाए !
भोगी देख योगी को सोचे मन काबू हो जाए ,
योगी मन काबू करने में जीता जी मर जाए !
एक दूसरे को सब ताके, सोच के उनको पूरा ,
बिना ये जाने की दूसरा भी खुद को माने अधूरा !
मियाँ 'मजाल' देख के सबको जरा जरा मुस्काए,
मगर मामला, असल मसला उनके भी ऊपर जाए !
अनबूझी, अनसुलझी सी, लगे शाणी और कभी गेली,
जो भी हो पर है दिलचस्प - जिंदगी मजेदार पहेली !
बूढ़े की ख्वाहिश, फिर से जो, बच्चा मैं बन पाऊँ !
गरीब देख ठाट साहब के, अपनी किस्मत रोए,
साहब सोते देख गरीब को, 'चिंता गायब होवे !'
पौधा तरसे जाए, कोई उसको डाले पानी,
कैक्टस जो गलती से गीला, याद करे वो नानी !
औरत मुजरे सी सबको रिझाने वाली अदा चाहे,
मुजरे वाली से पूछो तो, बस एक मरद मिल जाए !
भोगी देख योगी को सोचे मन काबू हो जाए ,
योगी मन काबू करने में जीता जी मर जाए !
एक दूसरे को सब ताके, सोच के उनको पूरा ,
बिना ये जाने की दूसरा भी खुद को माने अधूरा !
मियाँ 'मजाल' देख के सबको जरा जरा मुस्काए,
मगर मामला, असल मसला उनके भी ऊपर जाए !
अनबूझी, अनसुलझी सी, लगे शाणी और कभी गेली,
जो भी हो पर है दिलचस्प - जिंदगी मजेदार पहेली !
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हास्य कविता
Wednesday, November 10, 2010
' कलाकारी !' : हास्य-कविता, ( Hasya Kavita - Majaal )
हमारे मित्र,
देखने प्रदर्शनी चित्र,
दिन रविवार,
सपरिवार.
सामने चित्र,
स्थिति विचित्र,
मित्र सोचे, 'वाह ! क्या चित्रकारी ! ',
उनकी बीवी सोचे, 'वाह ! क्या साड़ी ! '
छोटा बच्चा सोचे, ' वाह ! क्या गाड़ी ! '
बड़ा वाला सोचे, ' वाह ! क्या नारी !'
एक ही दुनिया में,
मौजूद रंग कितने,
है सबने पाई,
अपनी अलग नज़र,
अपनी अपनी समझदारी.
बनाने वाले ने खूब बनाई,
तस्वीर-ए-बेमिसाल,
दाद दीजिये 'मजाल',
ऊपरवाले की कलाकारी !
देखने प्रदर्शनी चित्र,
दिन रविवार,
सपरिवार.
सामने चित्र,
स्थिति विचित्र,
मित्र सोचे, 'वाह ! क्या चित्रकारी ! ',
उनकी बीवी सोचे, 'वाह ! क्या साड़ी ! '
छोटा बच्चा सोचे, ' वाह ! क्या गाड़ी ! '
बड़ा वाला सोचे, ' वाह ! क्या नारी !'
एक ही दुनिया में,
मौजूद रंग कितने,
है सबने पाई,
अपनी अलग नज़र,
अपनी अपनी समझदारी.
बनाने वाले ने खूब बनाई,
तस्वीर-ए-बेमिसाल,
दाद दीजिये 'मजाल',
ऊपरवाले की कलाकारी !
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हास्य कविता
Monday, November 8, 2010
हास्य-कविता : ' पगार ! ' ( Hasya Kavita - Majaal )
अरसे पहले मुंशी प्रेमचंद साहब के किसी उपन्यास (या शायद मानसरोवर) में पगार की ये परिभाषा पढ़ी थी. उसी को कुछ कवितानुमा कर दिया है :
महीने की,
पहली तारीख को,
कितनी अच्छी,
लगती थी तुम,
मेरे हाथ में,
पूरी की पूरी !
गोया,
तुम और मैं,
बने है,
सिर्फ,
एक दूसरे के लिए,
पूरे के पूरे !
एक अनकहा वादा था,
साथ निभाने का,
पूरे महीने भर का !
मगर तुम,
ऐ नाज़नीन !
निकली बेवफा,
उस पूनम के चाँद की तरह,
जो होता चला गया,
कम,
रोज़ ब रोज़,
और गायब हो गयी तुम,
बीच महीने में,
पूरी तरह से,
मेरा साथ छोड़ कर,
चाँद की तरह !
अब मैं बैठा हूँ,
तन्हा !
खाली मलते हुए,
अपने हाथ,
और,
मेरे सामने बचा है,
काटने को,
आधा महीना,
पूरा का पूरा !
महीने की,
पहली तारीख को,
कितनी अच्छी,
लगती थी तुम,
मेरे हाथ में,
पूरी की पूरी !
गोया,
तुम और मैं,
बने है,
सिर्फ,
एक दूसरे के लिए,
पूरे के पूरे !
एक अनकहा वादा था,
साथ निभाने का,
पूरे महीने भर का !
मगर तुम,
ऐ नाज़नीन !
निकली बेवफा,
उस पूनम के चाँद की तरह,
जो होता चला गया,
कम,
रोज़ ब रोज़,
और गायब हो गयी तुम,
बीच महीने में,
पूरी तरह से,
मेरा साथ छोड़ कर,
चाँद की तरह !
अब मैं बैठा हूँ,
तन्हा !
खाली मलते हुए,
अपने हाथ,
और,
मेरे सामने बचा है,
काटने को,
आधा महीना,
पूरा का पूरा !
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हास्य कविता
Friday, November 5, 2010
हास्य : कमेन्ट कर न कर पर कमबख्त, हाज़िरी तो लगाते जा !
अब जब आया ही गया है महफ़िल-ए-ब्लॉग में,
तो कोई निशानी तो छोड़ जा,
कमेन्ट न कर चाहे,
पर कमबख्त,
कम स कम,
हाज़िरी तो लगा !
पोस्ट-ए-ब्लॉग को,
सींचा है मेहनत से,
'मजाल' ये वो बाग़ है,
गुल-ए-कमेन्ट की महक से,
होता जो है रोशन ,
टिप्पणियाँ ही करती जिसे आबाद है !
चलेगी मजालिया तुकबंदी और,
सुमन का 'nice' भी चलेगा,तो कोई निशानी तो छोड़ जा,
कमेन्ट न कर चाहे,
पर कमबख्त,
कम स कम,
हाज़िरी तो लगा !
पोस्ट-ए-ब्लॉग को,
सींचा है मेहनत से,
'मजाल' ये वो बाग़ है,
गुल-ए-कमेन्ट की महक से,
होता जो है रोशन ,
टिप्पणियाँ ही करती जिसे आबाद है !
चलेगी मजालिया तुकबंदी और,
चलेगी तेरी मर्जी,
कुछ न सूझे तो मुस्कारा के यूँ ( ; )
हौसला अफसाई ही कर दे,
तादाद ही बढ़ा !
जश्न में शरीक न हो न सही,
मगर कमबख्त,
कम स कम,
ताली तो बजा !
पसंद आये न आए,
टिकट तो कटवा ही चुका है !
फिल्म तो देख ही ली है पूरी,
पैसे तो गँवा ही चुका है !
किस्सा तो ख़तम होना ही था,
ऐसे या वैसे,
इन्टरनेट में नहीं लगते तो ,
तो कहीं और खर्च होते पैसे !
अब मातम मानने से तो अच्छा है,
फीका ही मुस्कुरा !
फीकी हँसी भी असर करेगी कमबख्त !
तू एक बारी तबीयत तो बना !
अब जब आया ही गया है महफ़िल-ए-ब्लॉग में,
तो कोई निशानी तो छोड़ जा,
कमेन्ट न कर चाहे,
पर कमबख्त,
कम स कम,
हाज़िरी तो लगा !
तो कोई निशानी तो छोड़ जा,
कमेन्ट न कर चाहे,
पर कमबख्त,
कम स कम,
हाज़िरी तो लगा !
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हास्य कविता
Thursday, November 4, 2010
' कविताई ! ' : हास्य-कविता
वो, जिसे कहते है कविताई,
बनाने वाले ने, ऐसी बनाई,
की सीधे समझ आई तो आई,
और जो न आई, तो न आई !
जिसको ये न समझ में आई,
न समझा सकती उसे पूरी खुदाई,
चाहे भरकस जोर लो लगाईं,
हर प्रयास विफल हो जाई,
क्योकि वो कहेगा ' भाई,
हमको एक बात दो समझाई ,
हमरे पिताजी के बस छोटे भाई,
नहीं उनका कोई बड़ा भाई,
तो फिर इसको होना चाही,
कविचाची, और न की कविताई ! '
इसलिए हम कहते है पाई ,
खेल ये दिमागी नहीं है साईं,
इसलिए छोड़ो मगज खपाई,
न समय की करों यूँ गवाई,
अगर अब भी बात न समझ आई,
तो छोड़ो मुई को, आगे बढ़ो भाई,
है और भी ग़म, जमाने में भाई ,
उनको ही लो आजमाई !
जहां तक 'मजाल' का सवाल हाई ,
तो हम वापस देतें दोहराई ,
की वक़्त ही वक़्त कमबख्त है भाई,
क्या कीजे, गर न कीजे कविताई .... !
बनाने वाले ने, ऐसी बनाई,
की सीधे समझ आई तो आई,
और जो न आई, तो न आई !
जिसको ये न समझ में आई,
न समझा सकती उसे पूरी खुदाई,
चाहे भरकस जोर लो लगाईं,
हर प्रयास विफल हो जाई,
क्योकि वो कहेगा ' भाई,
हमको एक बात दो समझाई ,
हमरे पिताजी के बस छोटे भाई,
नहीं उनका कोई बड़ा भाई,
तो फिर इसको होना चाही,
कविचाची, और न की कविताई ! '
इसलिए हम कहते है पाई ,
खेल ये दिमागी नहीं है साईं,
इसलिए छोड़ो मगज खपाई,
न समय की करों यूँ गवाई,
अगर अब भी बात न समझ आई,
तो छोड़ो मुई को, आगे बढ़ो भाई,
है और भी ग़म, जमाने में भाई ,
उनको ही लो आजमाई !
जहां तक 'मजाल' का सवाल हाई ,
तो हम वापस देतें दोहराई ,
की वक़्त ही वक़्त कमबख्त है भाई,
क्या कीजे, गर न कीजे कविताई .... !
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Tuesday, November 2, 2010
हास्य-कविता : आप से तू, और फिर तू से गाली में, आ गए आखिर, साहब अपनीवाली में !
आप से तू और फिर,
तू से गाली में,
आ गए आखिर,
साहब अपनीवाली में !
भेद नहीं करते वो,
साली और घरवाली में,
कितनी ही बार पाए गए,
पी कर टुन्न नाली में !
सीखे है सारे ऐब,
उन्होंने उम्र बाली में,
छूटे है जेल से,
सरकार अभी हाली में !
समझ लीजिये लगे हुए है,
कोई काम जाली में,
इतनी जल्दी नहीं होता ,
सुधार हालत माली में !
क्या इल्म देंगे आप उन्हें,
हिंदी या बंगाली में,
फर्क ही नहीं जिन्हें,
ग़ज़ल और कव्वाली में !
काटें ही उगने है जनाब,
बबूल की डाली में,
माहौल चाहे श्राद्ध हो,
या फिर दिवाली में ?!
बस चट्टे बट्टे ही नहीं,
भरे है थाली में,
शरीफ भी है बचे हुए,
इस बस्ती मवाली में,
जिमेदारी को अपनी,
समझिए 'मजाल',
चुनाव नहीं होते है,
यूँ ही बस खाली में !
तू से गाली में,
आ गए आखिर,
साहब अपनीवाली में !
भेद नहीं करते वो,
साली और घरवाली में,
कितनी ही बार पाए गए,
पी कर टुन्न नाली में !
सीखे है सारे ऐब,
उन्होंने उम्र बाली में,
छूटे है जेल से,
सरकार अभी हाली में !
समझ लीजिये लगे हुए है,
कोई काम जाली में,
इतनी जल्दी नहीं होता ,
सुधार हालत माली में !
क्या इल्म देंगे आप उन्हें,
हिंदी या बंगाली में,
फर्क ही नहीं जिन्हें,
ग़ज़ल और कव्वाली में !
काटें ही उगने है जनाब,
बबूल की डाली में,
माहौल चाहे श्राद्ध हो,
या फिर दिवाली में ?!
बस चट्टे बट्टे ही नहीं,
भरे है थाली में,
शरीफ भी है बचे हुए,
इस बस्ती मवाली में,
जिमेदारी को अपनी,
समझिए 'मजाल',
चुनाव नहीं होते है,
यूँ ही बस खाली में !
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हास्य कविता
Sunday, October 31, 2010
हास्य विषय गंभीर !
जब ई मनवा विचलित,
चिंतन होवे अधीर,
पाना चाही सुकुनवा,
जइसन उड़ती चील !
मति ही मति का ठेंगा,
दिखाईने छोड़त सौ तीर,
उनमे से एक आदि,
निसाना लगत सटीक !
तब जाकर ई मगजवा,
आवे बाजन ढीठ !
आऊर लगाई ठाहाकवा,
भुलइके सारी टीस !
ईका न समझी तुम,
पका पकाया खीर,
कहत 'मजाल' ई ससुरा,
हास्य विसय गंभीर !
चिंतन होवे अधीर,
पाना चाही सुकुनवा,
जइसन उड़ती चील !
मति ही मति का ठेंगा,
दिखाईने छोड़त सौ तीर,
उनमे से एक आदि,
निसाना लगत सटीक !
तब जाकर ई मगजवा,
आवे बाजन ढीठ !
आऊर लगाई ठाहाकवा,
भुलइके सारी टीस !
ईका न समझी तुम,
पका पकाया खीर,
कहत 'मजाल' ई ससुरा,
हास्य विसय गंभीर !
राँझा मिलन न हीर ?
फुटवा गया तकदीर ?
काहे शोक मनावत,
जीवन की बाकन रील,
कभी सलमान दबंगवा,
कभी पीटत हई वीर !
जीवन जइसन अमवा,
चीजन ई खट मीठ !
जब ई आवत समझवा,
मज़ाक बनत पेचीद !
जब ई आवत समझवा,
मज़ाक बनत पेचीद !
तब जाकर ई मनवा,
छोड़त तनना फीर,
अऊर इस तरहवा,
तनाव पावत ढील !
कहत 'मजाल' ई ससुरा,
तनाव पावत ढील !
कहत 'मजाल' ई ससुरा,
हास्य विसय गंभीर !
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हास्य कविता
Wednesday, October 27, 2010
' इश्कियापन्ती ' : हास्य-कविता ( Hasya Kavita - Majaal )
तुझे पाने की हसरत लिए,
हमें एक जमाना हो गया !
नयी नयी शायरी,
करते तेरे पीछे,
देख मैं शायर कितना,
पुराना हो गया !
मुए इस दिल को,
संभालना पड़ता है,
हर वक़्त !
दिल न हुआ गोया,
बिन पजामे का,
नाड़ा हो गया !
मरज में न फरक,
तोहफों में खरच अलग !
इलाज में खाली सारा,
अपना खज़ाना हो गया !
दिल दर्द से भरा,
और जेबें खाली !
ग़म ही इन दिनों,
अपना खाना हो गया !
मुद्दतें हो गयी ,
रोग जाता नहीं दिखता,
अस्पताल ही अब अपना,
ठिकाना हो गया !
तू भी तो बाज़ आ कभी ,
इश्कियापन्ती से 'मजाल'
पागल भी देख तुझे,
कब का सयाना हो गया !
हमें एक जमाना हो गया !
नयी नयी शायरी,
करते तेरे पीछे,
देख मैं शायर कितना,
पुराना हो गया !
मुए इस दिल को,
संभालना पड़ता है,
हर वक़्त !
दिल न हुआ गोया,
बिन पजामे का,
नाड़ा हो गया !
मरज में न फरक,
तोहफों में खरच अलग !
इलाज में खाली सारा,
अपना खज़ाना हो गया !
दिल दर्द से भरा,
और जेबें खाली !
ग़म ही इन दिनों,
अपना खाना हो गया !
मुद्दतें हो गयी ,
रोग जाता नहीं दिखता,
अस्पताल ही अब अपना,
ठिकाना हो गया !
तू भी तो बाज़ आ कभी ,
इश्कियापन्ती से 'मजाल'
पागल भी देख तुझे,
कब का सयाना हो गया !
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Friday, October 22, 2010
' लंगोटिया यार ! ' : हास्य-कविता ( Hasya Kavita - Majaal )
एक थे लम्बूद्दीन 'लंब',
हम कहते नहीं है दंभ,
थे वो इस कदर लंबे,
पाँव जैसे खंबे !
हाथ जैसे कानून,
ये लंबे, ये ssss लंबे !
एक थे मोटूराम 'मोटी',
हम देतें नहीं गोटी,
तोंद उनकी ये मोटी,
ये ssss भयंकर मोटी,
की साक्षात 'मोटा' शब्द,
उनके समक्ष लगता था दुबला !
हर तबीयत, हर तंदरुस्ती,
उनके सामने थी खोटी !
'लंब' और 'मोटी' मिले जिस दिन,
ज्ञानी जन कहते है की उस दिन,
नक्षत्रों का बना विचित्र योग ,
ऐसा संयोग अत्यंत दूभर,
आंकड़े ऐसे , परे सब मति,
यदा कदा, सदियों में, होती ऐसी युति.
हुआ लंब और मोटी का मिलन जब ,
धरे के धरे रह गए, सारे तर्क विज्ञान, सब ज्योतिषी,
व्याकरण रह गया ताकता फटी आँख ,
संधि के नियमों को पहना दी गयी टोपी ,
'ब' और 'मो' मिलकर हुआ 'गो'
लंब 'धन' मोटी बन गया 'लंगोटी' !
यारी दोनों की चढ़ी वो परवान,
की नीचे रह गए सारे वेद कुरान ,
उठी इंसानियत, बन कर सरताज,
नयी दिशा, जीवन का नया आगाज़,
बस प्रेम बना सत्य अंतिम ,
बाकी सब बातें बेकार,
और शुरू प्रचलन नया मुहावरा,
तू है मेरा 'लंगोटिया यार' !
हम कहते नहीं है दंभ,
थे वो इस कदर लंबे,
पाँव जैसे खंबे !
हाथ जैसे कानून,
ये लंबे, ये ssss लंबे !
एक थे मोटूराम 'मोटी',
हम देतें नहीं गोटी,
तोंद उनकी ये मोटी,
ये ssss भयंकर मोटी,
की साक्षात 'मोटा' शब्द,
उनके समक्ष लगता था दुबला !
हर तबीयत, हर तंदरुस्ती,
उनके सामने थी खोटी !
'लंब' और 'मोटी' मिले जिस दिन,
ज्ञानी जन कहते है की उस दिन,
नक्षत्रों का बना विचित्र योग ,
ऐसा संयोग अत्यंत दूभर,
आंकड़े ऐसे , परे सब मति,
यदा कदा, सदियों में, होती ऐसी युति.
हुआ लंब और मोटी का मिलन जब ,
धरे के धरे रह गए, सारे तर्क विज्ञान, सब ज्योतिषी,
व्याकरण रह गया ताकता फटी आँख ,
संधि के नियमों को पहना दी गयी टोपी ,
'ब' और 'मो' मिलकर हुआ 'गो'
लंब 'धन' मोटी बन गया 'लंगोटी' !
यारी दोनों की चढ़ी वो परवान,
की नीचे रह गए सारे वेद कुरान ,
उठी इंसानियत, बन कर सरताज,
नयी दिशा, जीवन का नया आगाज़,
बस प्रेम बना सत्य अंतिम ,
बाकी सब बातें बेकार,
और शुरू प्रचलन नया मुहावरा,
तू है मेरा 'लंगोटिया यार' !
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Wednesday, October 20, 2010
हास्य-कविता : ' उर्दू शायरी की तरह तुम, प्रिय ! ' ( Hasya Kavita - Majaal )
क्लिष्ट !
गूढ़ !
उलझी हुई !
मुश्किल !
पेचीदा !
मगर दिलचस्प !
उर्दू शायरी की तरह तुम, प्रिय !
समझ में तो,
कम ही आती हो,
मगर,
पढ़ने में तुम्हें ,
मज़ा बहुत आता है !
कुल मिला कर,
कुछ खास,
पल्ले तो नहीं पड़ता,
मगर,
कोशिशों में,
समझने के,
प्रयासों में तुम्हें,
वक़्त तुम्हारे साथ,
अपना खूब कट जाता है !
उर्दू शायरी की तरह तुम,
प्रिय !
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Tuesday, October 19, 2010
' शोक न कर, खेद न कर ! ' : हास्य-कविता ( Hasya Kavita - Majaal )
जो हो गया, सो हो गया,
शोक न कर, खेद न कर,
क्या ?क्यों ? कैसे ? सोच कर,
दिमाग की संधि विच्छेद न कर !
टीना नहीं, मीना सहीं,
मीना नहीं, लीना सही,
जो मिल गया, वो मिल गया,
जो ना मिला, वो ना सहीं !
सम्मान कर तू रूप का,
यौवन में कोई भेद न कर !
शोक न कर, खेद न कर ...
जिंदगी में वैसे ही बहुत,
ग़मों का लगा अंबार है,
दुखों से पहले ही बहुत,
भरा हुआ संसार है,
पहले से फटी जिंदगी,
फटें में तू और छेद न कर !
शोक न कर, खेद न कर ...
ग़म को न दे तवज्जो तू ,
ख़ुशी से न तू फूल जा,
बस ले मज़ा हर पल का एक,
जीवन है झूला, झूल जा !
यादों को याद कर कर के,
क्या भला तू पाएगा ?
बढेगा बस दुख ही तेरा,
बस सोच कर थक जाएगा.
इसलिए मियां 'मजाल',
विचारों की परेड न कर !
शोक न कर खेद न कर ...
माना की हर कदम इसके,
मुसीबतें और आफत है,
मगर प्यारे, जहाँ जिन्दा,
अपनी जाँ जब तक सलामत है !
अभी सजी हुई बाज़ी,
अभी तो तू न हारा है,
बीच में यूँ छोड़ना,
'मजाल' न गवाँरा है,
बाकी अभी फिल्म बहुत,
'interval ' में ही 'the end ' न कर !
शोक न कर, खेद न कर ....
शोक न कर, खेद न कर,
क्या ?क्यों ? कैसे ? सोच कर,
दिमाग की संधि विच्छेद न कर !
टीना नहीं, मीना सहीं,
मीना नहीं, लीना सही,
जो मिल गया, वो मिल गया,
जो ना मिला, वो ना सहीं !
सम्मान कर तू रूप का,
यौवन में कोई भेद न कर !
शोक न कर, खेद न कर ...
जिंदगी में वैसे ही बहुत,
ग़मों का लगा अंबार है,
दुखों से पहले ही बहुत,
भरा हुआ संसार है,
पहले से फटी जिंदगी,
फटें में तू और छेद न कर !
शोक न कर, खेद न कर ...
ग़म को न दे तवज्जो तू ,
ख़ुशी से न तू फूल जा,
बस ले मज़ा हर पल का एक,
जीवन है झूला, झूल जा !
यादों को याद कर कर के,
क्या भला तू पाएगा ?
बढेगा बस दुख ही तेरा,
बस सोच कर थक जाएगा.
इसलिए मियां 'मजाल',
विचारों की परेड न कर !
शोक न कर खेद न कर ...
माना की हर कदम इसके,
मुसीबतें और आफत है,
मगर प्यारे, जहाँ जिन्दा,
अपनी जाँ जब तक सलामत है !
अभी सजी हुई बाज़ी,
अभी तो तू न हारा है,
बीच में यूँ छोड़ना,
'मजाल' न गवाँरा है,
बाकी अभी फिल्म बहुत,
'interval ' में ही 'the end ' न कर !
शोक न कर, खेद न कर ....
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हास्य-कविता
Monday, October 18, 2010
' काण्ड !' : हास्य-कविता ( Hasya Kavita - Majaal )
'आपकी रचना की तिथि अगस्त ,
और मेरी वाली की,
महीना जुलाई है,
महीना जुलाई है,
परवाना होता है,
शमा में भस्म,
शमा में भस्म,
ये बात मैंने आपसे,
पूरे एक महीना पहले,
पूरे एक महीना पहले,
पता लगाई है...'
मैंने देखा,
जनाब सामने खड़े थे,
जनाब सामने खड़े थे,
सेहत सींकिया ,
पर तेवर पहलवानी,
पर तेवर पहलवानी,
चहरे पे छाया था,
मातम नाकामयाबी,
मातम नाकामयाबी,
कारण भी साफ़ सा,
दीखता था आसानी,
दीखता था आसानी,
की हुनर फुटपाथिया,
पर ख्वाब आसमानी !
पर ख्वाब आसमानी !
लड़ने का मूड है,
जता चुके थे,
समझ कितनी रखते खुद की,जता चुके थे,
परवाने का उदाहरण देकर,
बता चुके थे !
'ये खूब रही की आपकी,
और हमारी सोच मिल पाई,
नहीं तो इसने कब,
किसी से लम्बी निभाई ?
किसी से लम्बी निभाई ?
कभी आपके पास गयी,
कभी हमारे पास आई,
कभी हमारे पास आई,
सोच चीज़ ही तवायफ,
किसकी सच्ची लुगाई ?!
किसकी सच्ची लुगाई ?!
अब मिलें है किस्मत से हम,
तो खुशियाँ मनाइए,
लगिए गले, कीजिये ख़त्म ,
लगिए गले, कीजिये ख़त्म ,
बात क्यों आगे बढ़ाइए ? ..'
'बात को यूँ,
हलके में न लीजिये,
गर चोरी करने की,
रखते है 'मजाल',
तो कबूल करने के,
हौसले भी साथ रखिये ,
आप तो बात से,
साफ़ मुकर जातें है,
ऊपर से सोच की,
खिल्ली उड़ातें है,
नहीं सीखा क्या आपने,
कदर-ए-हुनर करना,
माँ-बाप से क्या,
यहीं संस्कार पातें है .. ?'
अब यूँ तो 'मजाल',
सीधा-सच्चा प्राणी,
न छुए शराब,
न ताके नारी,
न ताके नारी,
पर जो बात पहुँच जाए खानदानी,
फिर तमीज गयी तेल लेने,
शरम भरने पानी !
भूल जाए मियाँ 'मजाल' तब सब कुछ,
और दिखा दें फिर जात,
शायराना अपनीवाली !
शायराना अपनीवाली !
' भाई हम तो बजा ही फरमा रहे है,
तेवर तो आप ही दिखा रहे है,
अब खानदान का जिक्र,
कर दिया तो सुनिए,
'मजाल' आपको,कर दिया तो सुनिए,
पूरी कहानी सुना रहे है'
'माँ-बाप ने तो बताया,
हमने बस इतना,
की बेटा 'मजाल',
आदमी चीज़ है अदना,
खुदा ने पूरी दुनिया,
चुपचाप बनाई,
बिना जिक्र छेड़े,
बिना दिए दुहाई,
पर आदमी की हजूर,
क्या कहिये तबीयत !
जरा कुछ हुआ नहीं,
की बात तेरे-मेरे पर आई !
जो ऊपर वाला किसी दिन,
आ गया हिसाब मांगने पे,
तो लूट जाएगी पूरी सल्तनत
निभाने में,
रस्मों मूंह दिखाई !
इसलिए मेरे भाई,
छोड़ो ये खांमखां की लड़ाई,
बनाया उपरवाले ने सब कुछ ,
न लगी आपकी कुछ ,
न मेरी कमाई !'
'व्यर्थ की बातें न बनाइये,
ऊपर वाले को बीच में न लाइए,
इलज़ाम लगा है आप पर,
बात को उससे आगे न बदाइए
सीधे कबूलें चोरी तो बेहतर,
नहीं तो हमसे,
कानूनी नोटिस पाइए '
'हद करतें है साहब !
क्या कहना चाहतें है आप ?
क्या ब्रम्हा ने ये रचना,
सबसे पहले क्या,
कानों में आ कर सुनाई थी ?
आपको क्या लगता है,
पहले प्रेम की बाती,
क्या आपने जलाई थी ?
आपसे पहले किसी को सूझी नहीं ?
परवाने की शहादत परंपरा,
अपने घर से शुरू करवाई थी ?!
सदियों से चल रही है ये बात,
हज़ारों बार हो चुका है ,
इस्तेमाल हर जज़्बात,
मौलिक तभी तक चीज़ कोई ,
जब तक की उसका,
स्रोत न हो ज्ञात !
अभी भी कोई भरम है,
तो मुगालातें दूर करवाता हूँ,
थोड़ी महोलत दीजिये नाचीज़ को,
अभी दो मिनट में अंकल गूगल से ,
आपकी बाकी सारी रचनाओं की,
'प्रेरणाओं' का भी पता लगाता हूँ !'
' अरे अरे !
कहाँ चले ?!
कानूनी नोटिस तो देतें जाइए !
हमें भी तो चले पता,
आखिर क्या होती है सख्ती !
सहीं कहते है आप जनाब,
चुराई ही होगी,
क्यों आप जैसों से,
अपनी सोच तो,
यकीनन नहीं मिल सकती .. ! '
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हास्य कविता
Saturday, October 16, 2010
' गुब्बारा ! ' : हास्य-कविता ! ( Hasya Kavita - Majaal )
टीवी पर क्रिकेट मैच,
बीच विज्ञापन आया,
सामने सुन्दर बाला,
'अरे वाह ! पटाखा !',
'गदगदा बदन,
जैसे गुदा हुआ आटा !
सूरत इसकी काफी,
मिलती जुलती 'ज्योति',
उन दिनों जो हम ,
दिखा देतें थोड़ी हिम्मत ,
कमबख्त आज,
वो शायाद अपनी होती !'
'अरे, ये किचन में,
आवाज़ कैसी आई ?
ओ तेरी ! फिर भूला,
लाना चूहा दवाई !
दवाइयों की कीमत,
है आसमान छूती,
पगार वहीँ पुरानी,
कैसे कटेगी रोटी ?!
और बेटी की भी शादी,
करनी है कुछ बरस में,
जिंदगी है बीती ,
खरच ही खरच में !
जिंदगी भी देखो,
क्या चीज़ ये अजब है,
कोई बिज़ी बिज़ी बस,
कोई जीता बेसबब है!
कोई साहिल किनारे,
कोई लगता गोता,
कौन क्या है पाता,
जाने कौन क्या है खोता ?
हम भी कर लेते कुछ तो,
जो मिल जाता एक मौका,
अरे हो गया मैच शुरू,
ये लगाया चौका !
एक मिनट की मौहलत ,
आधी दुनिया घूम आया यारा,
बची भी नाप देगा,
जो छोड़ दोगे उसे दोब्बारा ,
अंट संट जाएगा,
जो बिन बांधे छोड़ा,
मन कमबख्त 'मजाल' ,
है एक ऐसा गुब्बारा !
बीच विज्ञापन आया,
सामने सुन्दर बाला,
'अरे वाह ! पटाखा !',
'गदगदा बदन,
जैसे गुदा हुआ आटा !
सूरत इसकी काफी,
मिलती जुलती 'ज्योति',
उन दिनों जो हम ,
दिखा देतें थोड़ी हिम्मत ,
कमबख्त आज,
वो शायाद अपनी होती !'
'अरे, ये किचन में,
आवाज़ कैसी आई ?
ओ तेरी ! फिर भूला,
लाना चूहा दवाई !
दवाइयों की कीमत,
है आसमान छूती,
पगार वहीँ पुरानी,
कैसे कटेगी रोटी ?!
और बेटी की भी शादी,
करनी है कुछ बरस में,
जिंदगी है बीती ,
खरच ही खरच में !
जिंदगी भी देखो,
क्या चीज़ ये अजब है,
कोई बिज़ी बिज़ी बस,
कोई जीता बेसबब है!
कोई साहिल किनारे,
कोई लगता गोता,
कौन क्या है पाता,
जाने कौन क्या है खोता ?
हम भी कर लेते कुछ तो,
जो मिल जाता एक मौका,
अरे हो गया मैच शुरू,
ये लगाया चौका !
एक मिनट की मौहलत ,
आधी दुनिया घूम आया यारा,
बची भी नाप देगा,
जो छोड़ दोगे उसे दोब्बारा ,
अंट संट जाएगा,
जो बिन बांधे छोड़ा,
मन कमबख्त 'मजाल' ,
है एक ऐसा गुब्बारा !
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हास्य-कविता
हास्य-व्यंग्य कविता : 'अनूठे लाल' फकत, 'अजीब अली' हो गए ! ( Hasya Vyangya Kavita - Majaal )
अनूठे लाल नाम से ही नहीं,
काम से भी अनूठे,
सब कुछ चखें जीवन में,
ताज़ा या झूठे.
शराब, शबाब, कबाब,
मिला बेहिसाब,
फिर भी जितना खाए साहब,
रह जाए भूखे !
एक दिन एक बाह्ममन से,
पड़ गया पाला.
उसने लाल साहब पर,
मौका देख जाल डाला.
' यजमान, थोड़ा करिए संकोच,
कुछ तो शर्माइये,
इस उम्र में यह हरकते,
देती नहीं शोभा,
अंतिम पड़ाव निकट है,
अब तो सुधर जाइए.
थोड़ा दान पुण्य करें,
तो बात बने.
करम दुरुस्त हो आपके,
जो थोड़ा व्रत धरें.
नारी को एक ही द्रष्टि से,
देखना करेगा व्यथित,
मुंहबोली ही बना लें जो,
एक बहिन, तो उचित ...'
अनूठे लाल को पंडित की,
बात कुछ जमी.
सोचा ससुरा पण्डवा ,
बोलता तो बात सहीं.
इस जिंदगी के दिनों का तो ,
गिना चुना ही बचा दर्जा,
आगे की व्यवस्था भी, जो कर लें,
तो क्या हर्जा ?!
अनूठे लाल के मिजाज़,
अब कुछ यूँ पाए जातें है.
गुरूवार हनुमान जी के लिए निर्धारित है,
इसीलिए, बुधवार को थोड़ा,
ज्यादा कबाब खा जातें है !
' उपवास रखा है आज ! ' ,
आधी दुनिया को बतातें है.
रोजाना जितना अन्न,
नहीं खाते जनाब,
उपवास के दिन वो ,
उससे ज्यादा भाव खा जातें है !
मुहबोली बहिन से तो,
रखते है दूरी पर,
साथ साथ,
उसकी पड़ोसन से,
अनामी संबंध भी,
श्रद्धानुसार निभातें है !
पंडित दोष न निकले,
इसीलिए उन्हें भी,
उचित दक्षिणा दे,
अपना स्वर्ग सुनिश्चित करातें है !
कमबख्त तबीयत !
फिर वही कहानी दुहराती.
ढाक के निकलते ,
आखिर में वहीँ तीन पाती !
कुछ भी कर लो,
जुगाड़ मेरे यार,
पुरानी आदतें मगर,
'मजाल' नहीं जाती !
नीयत न हुई सही,
तबीयत वहीँ की वहीँ,
किस्से साहब के गली गली,
मशहूर हो गए.
लोग कहते है ,
क्या खूब बदले हजूर-ए-आला !
'अनूठे लाल' फकत,
'अजीब अली' हो गए !
काम से भी अनूठे,
सब कुछ चखें जीवन में,
ताज़ा या झूठे.
शराब, शबाब, कबाब,
मिला बेहिसाब,
फिर भी जितना खाए साहब,
रह जाए भूखे !
एक दिन एक बाह्ममन से,
पड़ गया पाला.
उसने लाल साहब पर,
मौका देख जाल डाला.
' यजमान, थोड़ा करिए संकोच,
कुछ तो शर्माइये,
इस उम्र में यह हरकते,
देती नहीं शोभा,
अंतिम पड़ाव निकट है,
अब तो सुधर जाइए.
थोड़ा दान पुण्य करें,
तो बात बने.
करम दुरुस्त हो आपके,
जो थोड़ा व्रत धरें.
नारी को एक ही द्रष्टि से,
देखना करेगा व्यथित,
मुंहबोली ही बना लें जो,
एक बहिन, तो उचित ...'
अनूठे लाल को पंडित की,
बात कुछ जमी.
सोचा ससुरा पण्डवा ,
बोलता तो बात सहीं.
इस जिंदगी के दिनों का तो ,
गिना चुना ही बचा दर्जा,
आगे की व्यवस्था भी, जो कर लें,
तो क्या हर्जा ?!
अनूठे लाल के मिजाज़,
अब कुछ यूँ पाए जातें है.
गुरूवार हनुमान जी के लिए निर्धारित है,
इसीलिए, बुधवार को थोड़ा,
ज्यादा कबाब खा जातें है !
' उपवास रखा है आज ! ' ,
आधी दुनिया को बतातें है.
रोजाना जितना अन्न,
नहीं खाते जनाब,
उपवास के दिन वो ,
उससे ज्यादा भाव खा जातें है !
मुहबोली बहिन से तो,
रखते है दूरी पर,
साथ साथ,
उसकी पड़ोसन से,
अनामी संबंध भी,
श्रद्धानुसार निभातें है !
पंडित दोष न निकले,
इसीलिए उन्हें भी,
उचित दक्षिणा दे,
अपना स्वर्ग सुनिश्चित करातें है !
कमबख्त तबीयत !
फिर वही कहानी दुहराती.
ढाक के निकलते ,
आखिर में वहीँ तीन पाती !
कुछ भी कर लो,
जुगाड़ मेरे यार,
पुरानी आदतें मगर,
'मजाल' नहीं जाती !
नीयत न हुई सही,
तबीयत वहीँ की वहीँ,
किस्से साहब के गली गली,
मशहूर हो गए.
लोग कहते है ,
क्या खूब बदले हजूर-ए-आला !
'अनूठे लाल' फकत,
'अजीब अली' हो गए !
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Thursday, October 14, 2010
' च न क ट ! ' - हास्य-कविता ( Hasya Kavita - Majaal )
उफ़ !
वह समय !
जब तवम,
यह जगत,
उपसथत !
तवम परम जड़ मत !
सब यतन-जतन,
सब गरह,
तवम समक्ष,
असफल !
' यह मम रच ?! '
सवयम भगवन अचरज !
यह बड़ कद कठ,
न कम धम करत ,
बस धन खरच,
खपत खपत फकत !
हमर नक दम,
जब तब !
कमबखत !
करम जल !
हम गय पक !
समझ यह हद !
अब जल सर चढ़ !
हमर सबर ख़तम !
अगर अब करत उलट पलट !
तवम पठ, हमर लठ !
बक बक न कर,
हम धर,
एक चनकट !
वह समय !
जब तवम,
यह जगत,
उपसथत !
तवम परम जड़ मत !
सब यतन-जतन,
सब गरह,
तवम समक्ष,
असफल !
' यह मम रच ?! '
सवयम भगवन अचरज !
यह बड़ कद कठ,
न कम धम करत ,
बस धन खरच,
खपत खपत फकत !
हमर नक दम,
जब तब !
कमबखत !
करम जल !
हम गय पक !
समझ यह हद !
अब जल सर चढ़ !
हमर सबर ख़तम !
अगर अब करत उलट पलट !
तवम पठ, हमर लठ !
बक बक न कर,
हम धर,
एक चनकट !
Tuesday, October 12, 2010
' माल-ए-मुफ्त, दिल-ए-बेरहम ! ' : हास्य-कविता ( Hasya Kavita - Majaal )
वाह साहिब !
क्या मुश्किल आपकी !
क्या विकट स्तिथि, क्या भरम ?!
शुरू करें मीठे से,
या चखे पहले खमण !
रसगुल्ला न गटका,
तो क्या दावत उड़ाई ?!
डाईबटीस जाए भाड़ में,
थोड़ी सी रसमलाई !
मियां 'मजाल' रह रह कर,
दिमागी अटकलों में उलझ जाएँ ,
शाही पनीर आजमाए,
या कोरमे पर शौक फरमाए !
न छोड़ी नान,
और तंदूरी रोटी भी खाई,
पेट ने डकार मार दिया संदेसा,
पर थे अपनी धुन में भाई !
इमरती नरम,
गुलाब जामुन,
गरमा गरम !
माल-ए-मुफ्त,
दिल-ए-बेरहम !
सूते जाईये 'मजाल',
समझ के, खुदा का करम !
कॉफ़ी की भी मारी चुस्कियाँ,
कोका कोला भी पेट में उड़ोला !
ठंडे , गरम का न किया लिहाज़,
भाई ने किसो को नहीं छोड़ा !
समापन समारोह में भी,
तबीयत कब शरमाई ?!
पान भी चबा गए कई,
शिकंगी भी खूब भराई !
सोचा था हजूर ने,
मौका है न गवाओं,
एक सौ एक का,
लिफ़ाफ़ा थमाया है,
कम से कम दौ सौ का तो,
माल उड़ाओ!
पर किस्मत ने करी चोट,
तबीवत ने दिखाई चतुराई !
अगले दिन सुबह सुबह ,
पेट ने दी दुहाई !
पार्टी में वसूली का,
नुस्खा न काम आया,
डाक्टर ने अलग से,
घुसेड़ा इंजेक्शन,
दवा ने अलग,
अपने वास्ते ,
पाँच सौ एक का,
शगुन लगवाया !
क्या मुश्किल आपकी !
क्या विकट स्तिथि, क्या भरम ?!
शुरू करें मीठे से,
या चखे पहले खमण !
रसगुल्ला न गटका,
तो क्या दावत उड़ाई ?!
डाईबटीस जाए भाड़ में,
थोड़ी सी रसमलाई !
मियां 'मजाल' रह रह कर,
दिमागी अटकलों में उलझ जाएँ ,
शाही पनीर आजमाए,
या कोरमे पर शौक फरमाए !
न छोड़ी नान,
और तंदूरी रोटी भी खाई,
पेट ने डकार मार दिया संदेसा,
पर थे अपनी धुन में भाई !
इमरती नरम,
गुलाब जामुन,
गरमा गरम !
माल-ए-मुफ्त,
दिल-ए-बेरहम !
सूते जाईये 'मजाल',
समझ के, खुदा का करम !
कॉफ़ी की भी मारी चुस्कियाँ,
कोका कोला भी पेट में उड़ोला !
ठंडे , गरम का न किया लिहाज़,
भाई ने किसो को नहीं छोड़ा !
समापन समारोह में भी,
तबीयत कब शरमाई ?!
पान भी चबा गए कई,
शिकंगी भी खूब भराई !
सोचा था हजूर ने,
मौका है न गवाओं,
एक सौ एक का,
लिफ़ाफ़ा थमाया है,
कम से कम दौ सौ का तो,
माल उड़ाओ!
पर किस्मत ने करी चोट,
तबीवत ने दिखाई चतुराई !
अगले दिन सुबह सुबह ,
पेट ने दी दुहाई !
पार्टी में वसूली का,
नुस्खा न काम आया,
डाक्टर ने अलग से,
घुसेड़ा इंजेक्शन,
दवा ने अलग,
अपने वास्ते ,
पाँच सौ एक का,
शगुन लगवाया !
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Monday, October 11, 2010
' परम !!! ' : हास्य-कविता ( Hasya Kavita - Majaal )
'मजाल' का ख़याल,
खुद के बारे में बेमिसाल !
हम में दम !
हम है बम !
कौन हम सम ?!
हम है हम !!
निकले मियाँ घर से,
सीना फूला अकड़ के,
अपनी ही धुन में,
हजूर-ए-दबंग !
सामने दिखा एक,
खेलता हुआ बच्चा,
उसी पे लगे,
उड़ेलने अपना रंग !
' सुन ऐ बच्चे,
अक्ल के कच्चे,
तू क्या समझेगा,
जिंदगी के माथा पच्चे !
बाकी सब है फर्जी,
बस हम है सच्चे !
हम रूस की तोप !
हम इटली के पोप !
हम कहते है गहरी,
हमारी बातें गोप !
हम हम,
हम हम,
बस,
हम ही हम !
क्या आख्ने तकता है ?
शायरी समझता है ?
हम है शायरे आज़म !
क्यों नहीं सलाम करता है ?! '
' इतने सारे हम,
फिर भी पड़ जाए कम ?!
अंकल, ऐसे हम से बेहतर ,
जितना बचे हम !
आपको बहुत मुबारक,
आपके रंग ढंग,
हमें खेलने दीजिये ,
न करिए तंग !'
' अरे नादान,
हमसे गुसाखी करता है ?
क्या पता नहीं तुझे,
कवि क्रान्ति गढ़ता है !
हमारी सोच जिस दिन ,
दुनिया अपनाएगी,
ये धरती जन्नत,
तब से बन जाएगी.
पर जैसे टुच्चे लोग,
वैसी ही सोच तुच्छ ,
क्या समझेंगे वो,
हमारे विचार उच्य !
हमारी सोच की क़द्र नहीं,
दुनिया पे गिरे गाज !
सुनाता कौन है आखिर,
नक्कारखाने में तूती की आवाज़ ! '
' समझ गए अंकल हम,
आप है महान !
क्यों खामखाँ यहाँ करते,
अपना अमूल्य ज्ञान कुर्बान ?!
हमारे है बस दो,
आपके चार कान !
फिर भी कम पड़ जाता,
जितना करो गुणगान !
हम आप के पाँव की जूती,
हम नक्कारखाना , आप तूती !
ढूंढें नहीं मिलेंगे, आप जैसे निराले,
आप अद्वितीय ! आप बिराले !
बखूबी समझ गए हम ,
की आप न है समझने वाले,
तूतिये है आप 'मजाल' ,
और वो भी बड़ेवाले !'
जो बच्चे ने दी सीख ,
तब हुए तेवर नरम,
सीख गए अब हजूर ,
खुद को करना हज़म !
मुगालतों से निकलिए,
छोड़िए पालना भरम,
वर्ना मियां 'मजाल',
कहलाइएगा ' परम !!! '
खुद के बारे में बेमिसाल !
हम में दम !
हम है बम !
कौन हम सम ?!
हम है हम !!
निकले मियाँ घर से,
सीना फूला अकड़ के,
अपनी ही धुन में,
हजूर-ए-दबंग !
सामने दिखा एक,
खेलता हुआ बच्चा,
उसी पे लगे,
उड़ेलने अपना रंग !
' सुन ऐ बच्चे,
अक्ल के कच्चे,
तू क्या समझेगा,
जिंदगी के माथा पच्चे !
बाकी सब है फर्जी,
बस हम है सच्चे !
हम रूस की तोप !
हम इटली के पोप !
हम कहते है गहरी,
हमारी बातें गोप !
हम हम,
हम हम,
बस,
हम ही हम !
क्या आख्ने तकता है ?
शायरी समझता है ?
हम है शायरे आज़म !
क्यों नहीं सलाम करता है ?! '
' इतने सारे हम,
फिर भी पड़ जाए कम ?!
अंकल, ऐसे हम से बेहतर ,
जितना बचे हम !
आपको बहुत मुबारक,
आपके रंग ढंग,
हमें खेलने दीजिये ,
न करिए तंग !'
' अरे नादान,
हमसे गुसाखी करता है ?
क्या पता नहीं तुझे,
कवि क्रान्ति गढ़ता है !
हमारी सोच जिस दिन ,
दुनिया अपनाएगी,
ये धरती जन्नत,
तब से बन जाएगी.
पर जैसे टुच्चे लोग,
वैसी ही सोच तुच्छ ,
क्या समझेंगे वो,
हमारे विचार उच्य !
हमारी सोच की क़द्र नहीं,
दुनिया पे गिरे गाज !
सुनाता कौन है आखिर,
नक्कारखाने में तूती की आवाज़ ! '
' समझ गए अंकल हम,
आप है महान !
क्यों खामखाँ यहाँ करते,
अपना अमूल्य ज्ञान कुर्बान ?!
हमारे है बस दो,
आपके चार कान !
फिर भी कम पड़ जाता,
जितना करो गुणगान !
हम आप के पाँव की जूती,
हम नक्कारखाना , आप तूती !
ढूंढें नहीं मिलेंगे, आप जैसे निराले,
आप अद्वितीय ! आप बिराले !
बखूबी समझ गए हम ,
की आप न है समझने वाले,
तूतिये है आप 'मजाल' ,
और वो भी बड़ेवाले !'
जो बच्चे ने दी सीख ,
तब हुए तेवर नरम,
सीख गए अब हजूर ,
खुद को करना हज़म !
मुगालतों से निकलिए,
छोड़िए पालना भरम,
वर्ना मियां 'मजाल',
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