कुछ उन्मुक्त क्षणिकाएँ समझ लीजिये, या बे-बहरिया त्रिवेणी; या फिर फुरसतिया दिमाग की खुराफाती तबीयत का नतीजा मान कर ही झेल जाइए ....
1. दुनिया से बेखबर ,
कुत्ते की तरह सोता मजदूर,
मेहनत का ईनाम .... आराम !
2. उलझन, प्रश्न अनुत्तरित!
जगत सरल अथवा गूढ़ ?
किमकर्तव्यविमूढ़ !
3. लो हो गया ये भी !
अब क्या, अब क्या ?
वक़्त ही वक़्त कमबख्त !
4. पेट भूखा और दिल उदास,
ग़म को ही खा गए कच्चा चबा कर,
चाचा चौधरी का दिमाग कम्पूटर से भी तेज़ चलता है !
वक़्त ही वक़्त कमबख्त है भाई, क्या कीजे गर न कीजे कविताई !
Tuesday, November 30, 2010
चाचा चौधरी का दिमाग कम्पूटर से भी तेज़ चलता है !
Monday, November 29, 2010
शायरी - बिल तुम भरो, कभी हम भरें ! ( Shayari - Majaal )
कुछ तुमे भरो, कुछ हम भरे,
तब जा कर ये, जखम भरें !
हुआ लबालब, छलक जाएगा,
ये आँखें अश्क, कुछ कम भरें !
बच कर ही रहना उससे तुम,
अक्सर वफ़ा का वो दम भरे !
काम पीने के तक न आएगा,
क्यों समंदर-ए-ग़म भरे ?!
रहे दोस्ती ये कायम 'मजाल',
बिल तुम भरो, कभी हम भरें !
तब जा कर ये, जखम भरें !
हुआ लबालब, छलक जाएगा,
ये आँखें अश्क, कुछ कम भरें !
बच कर ही रहना उससे तुम,
अक्सर वफ़ा का वो दम भरे !
काम पीने के तक न आएगा,
क्यों समंदर-ए-ग़म भरे ?!
रहे दोस्ती ये कायम 'मजाल',
बिल तुम भरो, कभी हम भरें !
Sunday, November 28, 2010
लघुकथा - ग़ालिब आखिर पत्थर निकले काम के ... !
वो घोर नास्तिक था. ईश्वर के न होने के पक्ष ऐसे ऐसे तर्क प्रस्तुत करता था, की प्रसिद्ध था, की यदि साक्षात प्रभु भी उसके तर्क सुन लें, तो वे स्वयं भी अपने अस्तित्व के प्रति आशंकित हो जाए ! कट्टरपंथियों को उसका यह नजरिया पसंद नहीं आया. कुछ लोग उसे अगुआ कर दूर रेगिस्तान ले गए, और उस पर पत्थर बरसा कर अधमरी हालत में छोड़ आए, की बाकी सब प्रभु संभाल ही लेंगे !
वो कई घंटों तक अचेतन और अवचेतन के बीच की अवस्था में बड़बड़ाता रहा. कभी लोगों को कोसता, कभी अपने तर्कों को दोहराता, कभी खुद को कोसता, और कभी अपने ही तर्कों पर सवाल करने लगता ! घंटों तक यही सिलसिला चलता रहा. दिन से रात हो गयी. अब उसे भूख की याद आई, प्यास की भी याद आई ! रेगिस्तान में दिन में जितनी भयंकर गर्मी, रात में उतनी ही कातिलाना ठंड ! बड़बड़ाने से ध्यान बँटा , तब ठंड भी उसे अपने तर्कों की ही तरह भेदक मालूम हुई !
अब उसे ईश्वर के अस्तित्व से ज्यादा अपने अस्तित्व की चिंता हुई ! ठण्ड से बचने के लिए कोई सुरक्षित स्थान न दिखा. फिर नज़र उन पत्थरों के ढेर पर गयी जो लोगों ने उस पर फेकें थे. उन्हीं में से छाँट कर एक काम चलाऊ गुफानुमा ढाँचा बना कर जैसे तैसे रात गुजारी. भूख के बारे में सोचता हुआ बेहोश हो गया.
अगले दिन होश आया तो खुद को बीच सफ़र में एक गाड़ी के अंदर पाया. जाने कहाँ से उस वीरान जगह से गुजरते वक़्त, कुछ सैलानियों की नज़र उस पर पड़ गयी थी ! खाना भी नसीब हो गया, और पानी भी !रात को अपने प्राण बचाने में उसे कुछ योगदान उस जुगाडिया गुफा का भी लगा ! खाते खाते वो सोच रहा था, कमबख्त कुछ पत्थर तो बड़े काम के निकले !
वो कई घंटों तक अचेतन और अवचेतन के बीच की अवस्था में बड़बड़ाता रहा. कभी लोगों को कोसता, कभी अपने तर्कों को दोहराता, कभी खुद को कोसता, और कभी अपने ही तर्कों पर सवाल करने लगता ! घंटों तक यही सिलसिला चलता रहा. दिन से रात हो गयी. अब उसे भूख की याद आई, प्यास की भी याद आई ! रेगिस्तान में दिन में जितनी भयंकर गर्मी, रात में उतनी ही कातिलाना ठंड ! बड़बड़ाने से ध्यान बँटा , तब ठंड भी उसे अपने तर्कों की ही तरह भेदक मालूम हुई !
अब उसे ईश्वर के अस्तित्व से ज्यादा अपने अस्तित्व की चिंता हुई ! ठण्ड से बचने के लिए कोई सुरक्षित स्थान न दिखा. फिर नज़र उन पत्थरों के ढेर पर गयी जो लोगों ने उस पर फेकें थे. उन्हीं में से छाँट कर एक काम चलाऊ गुफानुमा ढाँचा बना कर जैसे तैसे रात गुजारी. भूख के बारे में सोचता हुआ बेहोश हो गया.
अगले दिन होश आया तो खुद को बीच सफ़र में एक गाड़ी के अंदर पाया. जाने कहाँ से उस वीरान जगह से गुजरते वक़्त, कुछ सैलानियों की नज़र उस पर पड़ गयी थी ! खाना भी नसीब हो गया, और पानी भी !रात को अपने प्राण बचाने में उसे कुछ योगदान उस जुगाडिया गुफा का भी लगा ! खाते खाते वो सोच रहा था, कमबख्त कुछ पत्थर तो बड़े काम के निकले !
Saturday, November 27, 2010
सूरज दादा गुस्से में : बाल-कविता (हास्य),
सूरज दादा उखड़े से,
आज भरे है गुस्से से,
बोले न छिपूँगा आज,
इस बादल के टुकड़े से !
मेरी कोई कदर नहीं,
हो मेरा तेज अगर नहीं,
कब तक जी बहलाओगे,
इस मुए चाँद के मुखड़े से !
ये भी मुझ पर निर्भर रहता,
मैं ही इसको रोशन करता,
मेरी उधारी खा खा कर ये,
रहता अकड़े अकड़े से !
आज सबक सिखाऊँगा,
जलवा अपना दिखाऊँगा,
ढलूँगा न मैं, रह जाएगा,
तू सर अपना पकड़े से !
चाँद बोला मुझे बचाओ,
बिजली दीदी इन्हें मनाओ,
सूरज जीजा कभी कभी,
हो जाते पगले पगले से !
बिजली रानी हुई बवाली,
मेरे भाई को देते गाली,
माफ़ी माँगो, और ढल जाओ,
वखत हुआ है तड़के से.
बादल मौसा भी अब आए ,
लिए सूरज को वो लपटाए,
बिजली कौंधी घमासान सी,
सब ताके, आँखे जकड़े से !
सूरज ने भी ताप बढाया ,
पूरा माहौल गया गरमाया,
बादल को छूता पसीना,
बिन मौसम वो बरसे से !
थोड़ी देर तक चली लड़ाई,
सूरज को भी समझ फिर आई,
ठंडे पानी में रह कर,
अब सूरज दादा ठंडे से !
ठंडे हो कर सोचा ढंग से,,
ज्यादा गर्मी से सब तंग से,
गुस्सा नहीं है अब वो करते,
दिखते बदले बदले से !
सूरज दिन को , चाँद रात में ,
बिजली , बादल, बरसात में ,
सब आते है बारी बारी,
बचते है वो झगड़े से !
मिल कर रहना अच्छा होता,
सब कुछ मिल जुल के ही होता,
गुस्से को पानी छप छप कर,
देना भगा धड़ल्ले से !
आज भरे है गुस्से से,
बोले न छिपूँगा आज,
इस बादल के टुकड़े से !
मेरी कोई कदर नहीं,
हो मेरा तेज अगर नहीं,
कब तक जी बहलाओगे,
इस मुए चाँद के मुखड़े से !
ये भी मुझ पर निर्भर रहता,
मैं ही इसको रोशन करता,
मेरी उधारी खा खा कर ये,
रहता अकड़े अकड़े से !
आज सबक सिखाऊँगा,
जलवा अपना दिखाऊँगा,
ढलूँगा न मैं, रह जाएगा,
तू सर अपना पकड़े से !
चाँद बोला मुझे बचाओ,
बिजली दीदी इन्हें मनाओ,
सूरज जीजा कभी कभी,
हो जाते पगले पगले से !
बिजली रानी हुई बवाली,
मेरे भाई को देते गाली,
माफ़ी माँगो, और ढल जाओ,
वखत हुआ है तड़के से.
बादल मौसा भी अब आए ,
लिए सूरज को वो लपटाए,
बिजली कौंधी घमासान सी,
सब ताके, आँखे जकड़े से !
सूरज ने भी ताप बढाया ,
पूरा माहौल गया गरमाया,
बादल को छूता पसीना,
बिन मौसम वो बरसे से !
थोड़ी देर तक चली लड़ाई,
सूरज को भी समझ फिर आई,
ठंडे पानी में रह कर,
अब सूरज दादा ठंडे से !
ठंडे हो कर सोचा ढंग से,,
ज्यादा गर्मी से सब तंग से,
गुस्सा नहीं है अब वो करते,
दिखते बदले बदले से !
सूरज दिन को , चाँद रात में ,
बिजली , बादल, बरसात में ,
सब आते है बारी बारी,
बचते है वो झगड़े से !
मिल कर रहना अच्छा होता,
सब कुछ मिल जुल के ही होता,
गुस्से को पानी छप छप कर,
देना भगा धड़ल्ले से !
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बाल कविता (हास्य)
Friday, November 26, 2010
शायरी : कुछ इस तरह से हम ये दुनिया समझे, समझा खुदी को, और पूरा जहाँ समझे ! ( Shayari - Majaal )
कुछ इस तरह से हम ये दुनिया समझे,
समझा खुदी को, और पूरा जहाँ समझे !
समझाने वाले समझ गए इशारों में,
जो न समझे, हज़ारों में भी ना समझे !
ना दोस्ती किसी से, ना की दुश्मनी ही,
सब अपनी तरफ से ना, कभी हाँ समझे !
एक पल में लगा यूँ, समझ लिया सबकुछ,
औए अगले पल लगा, अभी कहाँ समझे ?!
'मजाल' अपनी ख़ुशी अपने हाथों में,
खुदी से पा कर दाद जाँहपना समझे !
समझा खुदी को, और पूरा जहाँ समझे !
समझाने वाले समझ गए इशारों में,
जो न समझे, हज़ारों में भी ना समझे !
ना दोस्ती किसी से, ना की दुश्मनी ही,
सब अपनी तरफ से ना, कभी हाँ समझे !
एक पल में लगा यूँ, समझ लिया सबकुछ,
औए अगले पल लगा, अभी कहाँ समझे ?!
'मजाल' अपनी ख़ुशी अपने हाथों में,
खुदी से पा कर दाद जाँहपना समझे !
Thursday, November 25, 2010
कुछ फुटकर हास्य-कविताएँ ( Hasya Kavitaen - Majaal )
कुछ फुटकर हास्य कविताएँ, या फिर कुछ कुछ मजालिया किस्म की नज्में ही समझिये .....
1. जब,
पूरी ताकत लगाने पर,
झटके दे दे कर,
मुँह से गर्म करने पर,
और हजार बार रगड़ने ,
के बावजूद,
स्याही नहीं आती,
ठीक से,
कागज़ पर,
तब,
अन्दर जब्त,
वो अधपके से जस्बात,
बनके लफ्ज़,
चढ़ आतें है ऊपर,
और वो आवाज़,
वो आहट,
सुनने के बजाए,
दिखती है,
चेहरे पर,
बनके,
झल्लाहट ... !
2. मियाँ मजाल !
आपकी सोच में पाई गयी है अनियमता,
क्यों न उसे निरस्त कर दिया जाए,
और क्यों न बहाल कर लिया जाए,
सुकून को, जो है, मुल्तवी,
सूद के साथ.
जिंदगी अक्सर,
तन्हाइयों में,
भेजती रहती है मुझे,
कारण बताओ नोटिस !
3. जैसे,
किसी शायर ने,
जो जो,
जैसा जैसा,
जहाँ जहाँ,
सोच कर कहा था,
उसे,
वहाँ वहाँ,
उन उन,
जगहों में,
मिल जाए,
ठीक,
वैसी की वैसी,
दाद.....
मुराद !!!!!
1. जब,
पूरी ताकत लगाने पर,
झटके दे दे कर,
मुँह से गर्म करने पर,
और हजार बार रगड़ने ,
के बावजूद,
स्याही नहीं आती,
ठीक से,
कागज़ पर,
तब,
अन्दर जब्त,
वो अधपके से जस्बात,
बनके लफ्ज़,
चढ़ आतें है ऊपर,
और वो आवाज़,
वो आहट,
सुनने के बजाए,
दिखती है,
चेहरे पर,
बनके,
झल्लाहट ... !
2. मियाँ मजाल !
आपकी सोच में पाई गयी है अनियमता,
क्यों न उसे निरस्त कर दिया जाए,
और क्यों न बहाल कर लिया जाए,
सुकून को, जो है, मुल्तवी,
सूद के साथ.
जिंदगी अक्सर,
तन्हाइयों में,
भेजती रहती है मुझे,
कारण बताओ नोटिस !
3. जैसे,
किसी शायर ने,
जो जो,
जैसा जैसा,
जहाँ जहाँ,
सोच कर कहा था,
उसे,
वहाँ वहाँ,
उन उन,
जगहों में,
मिल जाए,
ठीक,
वैसी की वैसी,
दाद.....
मुराद !!!!!
Wednesday, November 24, 2010
शायरी ( Shayari - Majaal )
यकीनन असर हर एक दुआ निकलेगा,
नतीजा उम्दा हर इम्तिहा निकलेगा !
चुन ले एक जगह, खोदते रह जिंदगी,
कभी न कभी तो वहाँ कुआँ निकलेगा !
शर्मिंदा थोड़े से वो, थोड़े से बेयकीं,
सोचा नहीं था, पहुँचा हुआ निकलेगा !
शामिल न हो आग में, वो खुद ही बुझेगी,
अपने दम पे आखिर, कितना धुँआ निकलेगा ?!
परवरिश ही तूने ऐसी, पाई है 'मजाल',
निकलेगा भी तो, कितना मुआ निकलेगा ?!
नतीजा उम्दा हर इम्तिहा निकलेगा !
चुन ले एक जगह, खोदते रह जिंदगी,
कभी न कभी तो वहाँ कुआँ निकलेगा !
शर्मिंदा थोड़े से वो, थोड़े से बेयकीं,
सोचा नहीं था, पहुँचा हुआ निकलेगा !
शामिल न हो आग में, वो खुद ही बुझेगी,
अपने दम पे आखिर, कितना धुँआ निकलेगा ?!
परवरिश ही तूने ऐसी, पाई है 'मजाल',
निकलेगा भी तो, कितना मुआ निकलेगा ?!
Tuesday, November 23, 2010
हास्य-कविता - ' मजेदार पहेली ' ( Hasya Kavita - Majaal )
बच्चा सोचे, कब इस बचपन से छुटकारा पाऊँ,
बूढ़े की ख्वाहिश, फिर से जो, बच्चा मैं बन पाऊँ !
गरीब देख ठाट साहब के, अपनी किस्मत रोए,
साहब सोते देख गरीब को, 'चिंता गायब होवे !'
पौधा तरसे जाए, कोई उसको डाले पानी,
कैक्टस जो गलती से गीला, याद करे वो नानी !
औरत मुजरे सी सबको रिझाने वाली अदा चाहे,
मुजरे वाली से पूछो तो, बस एक मरद मिल जाए !
भोगी देख योगी को सोचे मन काबू हो जाए ,
योगी मन काबू करने में जीता जी मर जाए !
एक दूसरे को सब ताके, सोच के उनको पूरा ,
बिना ये जाने की दूसरा भी खुद को माने अधूरा !
मियाँ 'मजाल' देख के सबको जरा जरा मुस्काए,
मगर मामला, असल मसला उनके भी ऊपर जाए !
अनबूझी, अनसुलझी सी, लगे शाणी और कभी गेली,
जो भी हो पर है दिलचस्प - जिंदगी मजेदार पहेली !
बूढ़े की ख्वाहिश, फिर से जो, बच्चा मैं बन पाऊँ !
गरीब देख ठाट साहब के, अपनी किस्मत रोए,
साहब सोते देख गरीब को, 'चिंता गायब होवे !'
पौधा तरसे जाए, कोई उसको डाले पानी,
कैक्टस जो गलती से गीला, याद करे वो नानी !
औरत मुजरे सी सबको रिझाने वाली अदा चाहे,
मुजरे वाली से पूछो तो, बस एक मरद मिल जाए !
भोगी देख योगी को सोचे मन काबू हो जाए ,
योगी मन काबू करने में जीता जी मर जाए !
एक दूसरे को सब ताके, सोच के उनको पूरा ,
बिना ये जाने की दूसरा भी खुद को माने अधूरा !
मियाँ 'मजाल' देख के सबको जरा जरा मुस्काए,
मगर मामला, असल मसला उनके भी ऊपर जाए !
अनबूझी, अनसुलझी सी, लगे शाणी और कभी गेली,
जो भी हो पर है दिलचस्प - जिंदगी मजेदार पहेली !
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Monday, November 22, 2010
शायरी : अक्सर गुजरते है हम , तमन्ना-ए-बाज़ार से, हो नसीब तो खरीद के, वर्ना बस दीदार से ! ( Shayari - Majaal )
अक्सर गुजरते है हम , तमन्ना-ए-बाज़ार से,
हो नसीब तो खरीद के, वर्ना बस दीदार से !
या खुदा तेरी आबरू, फिर पड़ी खतरे में है,
दोनों तरफ लोग खड़े, दिखते है तैयार से !
दुनिया रोए तो रोए , गरीब तो खुश बेपनाह,
पक्का घर मिल ही गया, आखिर इस मजार से !
रखते स्वाद समंदर, आँसू को आजमाओं तो,
लेना चाहे तजुर्बा जो, कोई अपनी हार से !
'मजाल' को कबूल, चाहे जितनी लानत दीजिये ,
बस इतनी सी इल्तिजा , की कहिये जरा प्यार से !
हो नसीब तो खरीद के, वर्ना बस दीदार से !
या खुदा तेरी आबरू, फिर पड़ी खतरे में है,
दोनों तरफ लोग खड़े, दिखते है तैयार से !
दुनिया रोए तो रोए , गरीब तो खुश बेपनाह,
पक्का घर मिल ही गया, आखिर इस मजार से !
रखते स्वाद समंदर, आँसू को आजमाओं तो,
लेना चाहे तजुर्बा जो, कोई अपनी हार से !
'मजाल' को कबूल, चाहे जितनी लानत दीजिये ,
बस इतनी सी इल्तिजा , की कहिये जरा प्यार से !
Sunday, November 21, 2010
बाल-कविता (हास्य) : आँकड़ेबाजी ( Bal Hasya Kavita - Majaal )
थोड़ी आँकड़ेबाजी, थोडा हास्य, थोडा दर्शन, और थोड़ा बचपना ....
एक बार की है बात,
छोटू और सच, दोनों साथ.
झूठ ने आ कर किया कबाड़ा,
तीन तिगाड़ा, काम बिगाड़ा !
छोटू बोले झूठे भाई,
आओ बैठो चारपाई.
झूठ बोला नहीं रे यारा,
चाहूँ सुविधा पाँच सितारा !
छोटू सोचा इतना नखरा,
झूठ का अंदाज़ उसको अखरा.
पहले रह गया हक्का बक्का,
फिर छोटू ने मारा छक्का !
भाई तुम मेरा ७ निभाना,
माँ देती खर्चा बस आठ आना !
ये सुन झूठ ने किया बहाना,
और हो गया वो नौ दो ग्याहरह !
सच छोटू का सच्चा संगी,
झूठ तो निकला दस नंबरी !
सच और छोटू हमेशा यारा,
और जिंदगी के हुए पौ बारह !
एक बार की है बात,
छोटू और सच, दोनों साथ.
झूठ ने आ कर किया कबाड़ा,
तीन तिगाड़ा, काम बिगाड़ा !
छोटू बोले झूठे भाई,
आओ बैठो चारपाई.
झूठ बोला नहीं रे यारा,
चाहूँ सुविधा पाँच सितारा !
छोटू सोचा इतना नखरा,
झूठ का अंदाज़ उसको अखरा.
पहले रह गया हक्का बक्का,
फिर छोटू ने मारा छक्का !
भाई तुम मेरा ७ निभाना,
माँ देती खर्चा बस आठ आना !
ये सुन झूठ ने किया बहाना,
और हो गया वो नौ दो ग्याहरह !
सच छोटू का सच्चा संगी,
झूठ तो निकला दस नंबरी !
सच और छोटू हमेशा यारा,
और जिंदगी के हुए पौ बारह !
Saturday, November 20, 2010
कुछ तुकबंदी, कुछ शायरी, और कुछ फलसफे ...( Shayari - Majaal )
मिला एक, चाहे दो गया,
हँसता ही चला वो गया !
यादें कुरेद हासिल हो क्या ?
वापिस कब आया, जो गया ?!
मैला सा कुछ मलाल था,
आँसू बहा, और धो गया !
पूरी जिंदगी आगे बची,
ऐसा भी क्या है खो गया ?!
एक उम्र बाद पता चला,
क्या बीज था वो बो गया !
देखी जिंदगी, हुई हैरानगी,
सब खुद ब खुद ही हो गया !
ये सोच चीज़ कातिलाना,
समझ फँसा तू, तो गया !
इलाजे ग़म आसाँ 'मजाल',
भरपेट खाया, सो गया !
हँसता ही चला वो गया !
यादें कुरेद हासिल हो क्या ?
वापिस कब आया, जो गया ?!
मैला सा कुछ मलाल था,
आँसू बहा, और धो गया !
पूरी जिंदगी आगे बची,
ऐसा भी क्या है खो गया ?!
एक उम्र बाद पता चला,
क्या बीज था वो बो गया !
देखी जिंदगी, हुई हैरानगी,
सब खुद ब खुद ही हो गया !
ये सोच चीज़ कातिलाना,
समझ फँसा तू, तो गया !
इलाजे ग़म आसाँ 'मजाल',
भरपेट खाया, सो गया !
Friday, November 19, 2010
शायरी : रोने पे हँसीं आई ... ! ( Shayari - Majaal )
फैलेगी धीरे धीरे,
खिलेगा पूरा चेहरा,
दिखा रहा होठों के,
एक कोने पे हँसीं आई ... !
किसलिए जिए या,
किसलिए मर जाएँ,
हर वजह की बेवजह,
होने पे हँसीं आई ... !
कम ही किया सचमुच,
बस सोच कर हुए खुश,
ख़यालों ख़्वाबों, गोया,
सोने में हँसीं आई .. !
तेज़ हाथ छटपटा के,
नथुने दोनों फुला के,
कुछ ऐसे रोया बच्चा की,
रोने पे हँसीं आई ...!
जो तबीयत हुई मनमौजी,
उसने तब हर जगह खोजी,
फिर तो सुई में धागा भी,
पिरोने में हँसी आई .. !
अक्ल लगा लगा के,
समझ आखिर में आया,
की दरअसल इस अक्ल के,
खोने पे हँसीं आई .. !
'मजाल' क्या मिट्टी थी,
जाने क्या माली था,
जो भी बोया उसने ,
हर बोने पे हँसीं आई ...
खिलेगा पूरा चेहरा,
दिखा रहा होठों के,
एक कोने पे हँसीं आई ... !
किसलिए जिए या,
किसलिए मर जाएँ,
हर वजह की बेवजह,
होने पे हँसीं आई ... !
कम ही किया सचमुच,
बस सोच कर हुए खुश,
ख़यालों ख़्वाबों, गोया,
सोने में हँसीं आई .. !
तेज़ हाथ छटपटा के,
नथुने दोनों फुला के,
कुछ ऐसे रोया बच्चा की,
रोने पे हँसीं आई ...!
जो तबीयत हुई मनमौजी,
उसने तब हर जगह खोजी,
फिर तो सुई में धागा भी,
पिरोने में हँसी आई .. !
अक्ल लगा लगा के,
समझ आखिर में आया,
की दरअसल इस अक्ल के,
खोने पे हँसीं आई .. !
'मजाल' क्या मिट्टी थी,
जाने क्या माली था,
जो भी बोया उसने ,
हर बोने पे हँसीं आई ...
Wednesday, November 17, 2010
काला हास्य - ' म र ण '
बचपन, हमदम
हस, ग़म,
हस, ग़म,
सब समरण,
एक एक कर,
एक एक कर,
मगर, न लय,
सब उलट पलट,
सरपट धड़ धड़ !
सब उलट पलट,
सरपट धड़ धड़ !
न जल हलक
मगर,
बदन,
तर ब तर !
तर ब तर !
सस कम पल पल,
कम दम क्षण क्षण,
च,
तत पशचत,
कम दम क्षण क्षण,
च,
तत पशचत,
ख़तम सब !
धन, घर, यश,
सब रह गय धर !
मट दफ़न मट !
सब परशन हल,
पर,
हर जन असफल,
सकल !
सकल !
बालगीत : ' पतंगबाजी ! '
जोत उसके बाँध के,
तराजू जैसे नाप के,
सर मोड़ काँफ के,
हवा बहाव नाप के,
एक दे उड़न छी,
एक गट्टा सँभाल के.
ये उड़ी अपनी पतंग,
हवा के साथ संग संग,
हवा तेज़ - साधो सनन ,
हवा कम - ठुमके ठन ठन !
कागज़ की अपनी पतंग,
हवा उड़े सर सर,
पन्नी की छोटी पतंग ,
शोर बड़ा 'सड़ सड़ !'
डोर खीच हड बड़ ,
कटे हाथ घड़ धड़ !
उड़ते हुए खुले जोत,
तो गोते खाए तेज़ से,
फटे तो मरहम लगाओ ,
चावल आटे लेप से !
कभी उड़े चील सी,
कभी गोतेबाज़ सी,
कभी पेड़ उलझे कभी,
डोर फांसे पक्षी !
बाजू छत मुन्ना,
धोंस दे लफंगा!
मेरे कन्ने डग्गा,
मेरेसे नई पंगा !
मैंने है करवाया हेगा,
काँच वाला मंझा !
निकालेंगे हम इसकी हेंच,
आ बच्चू , लड़ा ले पेंच !
आसमां में निगाहें,
जमी सबकी एक सी,
अब होगे फैसला,
जीतेगा बस एक ही,
एक तरफ सांकलतोड़ ,
एक तरफ बरेली !
कान बाज़ , चाँद बाज़
इक दूसरे के आस पास !
भिड़ जाए ऐसे दोनों ,
झपटा मारे जैसे बाज़,
मंझे उलझे मंझे से,
तेज़ हो साँसों के साज़ !
" ढील ! ढील ! ढील ! ढील ! "
" खेंच ! खेंच ! खेंच ! खेंच ! "
" ढील ! "
"खेंच ! "
"ढील ! "
" खेंच ! "
" काटा sssssss है ...... ! "
तराजू जैसे नाप के,
सर मोड़ काँफ के,
हवा बहाव नाप के,
एक दे उड़न छी,
एक गट्टा सँभाल के.
ये उड़ी अपनी पतंग,
हवा के साथ संग संग,
हवा तेज़ - साधो सनन ,
हवा कम - ठुमके ठन ठन !
कागज़ की अपनी पतंग,
हवा उड़े सर सर,
पन्नी की छोटी पतंग ,
शोर बड़ा 'सड़ सड़ !'
डोर खीच हड बड़ ,
कटे हाथ घड़ धड़ !
उड़ते हुए खुले जोत,
तो गोते खाए तेज़ से,
फटे तो मरहम लगाओ ,
चावल आटे लेप से !
कभी उड़े चील सी,
कभी गोतेबाज़ सी,
कभी पेड़ उलझे कभी,
डोर फांसे पक्षी !
बाजू छत मुन्ना,
धोंस दे लफंगा!
मेरे कन्ने डग्गा,
मेरेसे नई पंगा !
मैंने है करवाया हेगा,
काँच वाला मंझा !
निकालेंगे हम इसकी हेंच,
आ बच्चू , लड़ा ले पेंच !
आसमां में निगाहें,
जमी सबकी एक सी,
अब होगे फैसला,
जीतेगा बस एक ही,
एक तरफ सांकलतोड़ ,
एक तरफ बरेली !
कान बाज़ , चाँद बाज़
इक दूसरे के आस पास !
भिड़ जाए ऐसे दोनों ,
झपटा मारे जैसे बाज़,
मंझे उलझे मंझे से,
तेज़ हो साँसों के साज़ !
" ढील ! ढील ! ढील ! ढील ! "
" खेंच ! खेंच ! खेंच ! खेंच ! "
" ढील ! "
"खेंच ! "
"ढील ! "
" खेंच ! "
" काटा sssssss है ...... ! "
Tuesday, November 16, 2010
शायरी : ' आखिर का आखिर क्या, इस सोच से शातिर क्या ' (Shayari - Majaal)
आखिर का आखिर क्या ?!
इस सोच से शातिर क्या ?!
खाँमखाँ ताउम्र फिकर की,
'जो हो गया, तो फिर क्या' ?!
तलवार या क़त्ल-ए-खंज़र,
अब करे आरज़ू जाहिर क्या ?!
ग़म भी हो ही गया रुख्सत,
उसकी भी करते खातिर क्या ?!
जिंदगी लतीफा है हँस लो,
क्या पैर 'मजाल' सिर क्या ?!
इस सोच से शातिर क्या ?!
खाँमखाँ ताउम्र फिकर की,
'जो हो गया, तो फिर क्या' ?!
तलवार या क़त्ल-ए-खंज़र,
अब करे आरज़ू जाहिर क्या ?!
ग़म भी हो ही गया रुख्सत,
उसकी भी करते खातिर क्या ?!
जिंदगी लतीफा है हँस लो,
क्या पैर 'मजाल' सिर क्या ?!
Monday, November 15, 2010
शुद्ध हास्य-कविता - एक बार हुआ यूँ ..( Hasya Kavita - Majaal )
एक बार हुआ यूँ,
की ग़ालिब सोचे,
कुछ यूँ,
क्या हो अगर,
हो यूँ,
और न यूँ !!
अब जब ग़ालिब,
सोचे यूँ,
तो हुआ यूँ,
की यूँ से मिला यूँ,
कुछ यूँ,
की पता न चला,
ये यूँ, यूँ,
या ये यूँ, यूँ !!
क्योंकिं,
ये यूँ,
ही है,
कुछ यूँ,
की जो सोचने लगो,
यूँ या यूँ,
तो,
यूँ ही यूँ में,
निकलते जाते,
यूँ पे यूँ !
यूँ पे यूँ !!
ग़ालिब पहले परेशान,
यूँ,
या,
यूँ !
अब नई परेशानी,
की ये यूँ, यूँ,
या ये यूँ, यूँ !!
चेहरा-ए-ग़ालिब,
कभी यूँ,
और,
कभी यूँ !!
इसलिए कहे 'मजाल',
ग़ालिब,
आप सोचे ही क्यूँ,
यूँ ? !!!
की ग़ालिब सोचे,
कुछ यूँ,
क्या हो अगर,
हो यूँ,
और न यूँ !!
अब जब ग़ालिब,
सोचे यूँ,
तो हुआ यूँ,
की यूँ से मिला यूँ,
कुछ यूँ,
की पता न चला,
ये यूँ, यूँ,
या ये यूँ, यूँ !!
क्योंकिं,
ये यूँ,
ही है,
कुछ यूँ,
की जो सोचने लगो,
यूँ या यूँ,
तो,
यूँ ही यूँ में,
निकलते जाते,
यूँ पे यूँ !
यूँ पे यूँ !!
ग़ालिब पहले परेशान,
यूँ,
या,
यूँ !
अब नई परेशानी,
की ये यूँ, यूँ,
या ये यूँ, यूँ !!
चेहरा-ए-ग़ालिब,
कभी यूँ,
और,
कभी यूँ !!
इसलिए कहे 'मजाल',
ग़ालिब,
आप सोचे ही क्यूँ,
यूँ ? !!!
Sunday, November 14, 2010
शायरी - ' यूँ ही रस्ते मिल जाए कोई, बेवजह रिश्ते निभाए कोई ! ' (Shayari - Majaal)
यूँ ही रस्ते मिल जाए कोई,
बेवजह रिश्ते निभाए कोई !
कईयों को देखा है रोते हुए,
बस इसलिए की हँसाए कोई !
नर्म बिस्तर पर नींद कहाँ ?
माँ जैसी लोरी सुनाए कोई !
इश्क, रश्क, अश्क, खर्च,
बीमारियों से बचाए कोई !
मस्जिद मंदिर में मिला नहीं,
अबके सही पता बताए कोई !
कैसे मना करोगे 'मजाल',
बच्चो सा मुस्कुराए कोई !
बेवजह रिश्ते निभाए कोई !
कईयों को देखा है रोते हुए,
बस इसलिए की हँसाए कोई !
नर्म बिस्तर पर नींद कहाँ ?
माँ जैसी लोरी सुनाए कोई !
इश्क, रश्क, अश्क, खर्च,
बीमारियों से बचाए कोई !
मस्जिद मंदिर में मिला नहीं,
अबके सही पता बताए कोई !
कैसे मना करोगे 'मजाल',
बच्चो सा मुस्कुराए कोई !
Saturday, November 13, 2010
व्यंग्य-कविता : ' सिद्धि.' ( Hasya Vyangya Kavita - Majaal )
एक पागल था,
कुछ कुछ दिमागी घायल था,
कोई घास न देता था उसे,
पर वो खुदी का कायल था !
एक दिन आ गया,
वो दुनिया से तंग,
सोचा काट दूँ अब,
जिंदगी की पतंग,
निकला चुपचाप घर से,
लेकर ये उमंग,
बाहर मूसधार बारिश,
पर साहब दबंग.
भगवान को भी शायद,
उस पर तरस आया,
उन्होंने भी उस पर,
कुछ नरमी बता दी,
इससे पहले वो कूद के,
दे दी अपनी जान,
प्रभु ने बीच रास्ते ही,
उस पर बिजली गिरा दी !
पर शायद ऊपरवाले के हिसाब में,
कुछ गड़बड़ी हो गयी,
बिजली तो गिराई थी,
काम तमाम करने के लिए,
पर पगले की उल्टे चाँदी हो गयी !
बिजली सर पर गिरी,
मगर बच गया पग्गल,
ऊपर से हो गया उसके,
सर पर प्रकट,
एक गोला, वृताकार,
शुद्ध दुग्ध धवल !
बावले को रातों रात,
चाँदी की गोदी मिल गयी,
जो देखे उसे बोले,
"आपको तो बोधि मिल गयी !!!'
अब सैया पहले ठेट बावरे,
ऊपर लोगों ने पिलादी भाँग !
निर्गुण के गुणों का बखान,
भूखे को जैसे मिल जाए पकवान !
" आप परम पूज्य, आप विद्वान,
आप सर्व श्रेष्ट, आप है महान ! "
अब पागलों के लिए तो होती,
ऐसी उलजहूल बातें,
साक्षात वरदान !!!
हौसले हो गए फितूरी,
अरमान खाके हिचगोले,
पहुँचे ऊफान !
बकने लगा वो अंट संट,
जो मन आए - अंड बंड,
" मै सर्व ज्ञाता,
मुझे भेजे स्वयं विधाता !
मेरी शरण आओ,
मैं तुम्हे मुक्ति दिलाता ! "
ऐसे पागलों से बचके रहना भाई,
इन्होनें जाने कितनो की दुर्गति करवाई,
बसी बसाई गृहस्तियों को दिया उजाड़,
अच्छे खासे समझदारों ने इनके पीछे,
अपनी मति गँवाई !
हाए, मन का जटिल विज्ञान !
पाले जाने कै अभिमान,
यथार्थ जगत अनदेखा कर,
पाना चाहे कौन सा ज्ञान ?!
कौन मूढ़, कौन चतुर,
कौन ऊँच , कौन नीच ?
मिटटी दफ़न मिटटी 'मजाल',
हिसाब बराबर, ख़तम दलील !
व्यवहार सरल,पर चिंतन गिद्ध,
सब स्वीकार , न कुछ निषिद्ध,
जो हर स्तिथि रखे संयम,
सुख हो दुःख, रहे वो सम,
निभाए सब रह इसी जगत,
'मजाल' माने उन्हीं को सिद्ध.
कुछ कुछ दिमागी घायल था,
कोई घास न देता था उसे,
पर वो खुदी का कायल था !
एक दिन आ गया,
वो दुनिया से तंग,
सोचा काट दूँ अब,
जिंदगी की पतंग,
निकला चुपचाप घर से,
लेकर ये उमंग,
बाहर मूसधार बारिश,
पर साहब दबंग.
भगवान को भी शायद,
उस पर तरस आया,
उन्होंने भी उस पर,
कुछ नरमी बता दी,
इससे पहले वो कूद के,
दे दी अपनी जान,
प्रभु ने बीच रास्ते ही,
उस पर बिजली गिरा दी !
पर शायद ऊपरवाले के हिसाब में,
कुछ गड़बड़ी हो गयी,
बिजली तो गिराई थी,
काम तमाम करने के लिए,
पर पगले की उल्टे चाँदी हो गयी !
बिजली सर पर गिरी,
मगर बच गया पग्गल,
ऊपर से हो गया उसके,
सर पर प्रकट,
एक गोला, वृताकार,
शुद्ध दुग्ध धवल !
बावले को रातों रात,
चाँदी की गोदी मिल गयी,
जो देखे उसे बोले,
"आपको तो बोधि मिल गयी !!!'
अब सैया पहले ठेट बावरे,
ऊपर लोगों ने पिलादी भाँग !
निर्गुण के गुणों का बखान,
भूखे को जैसे मिल जाए पकवान !
" आप परम पूज्य, आप विद्वान,
आप सर्व श्रेष्ट, आप है महान ! "
अब पागलों के लिए तो होती,
ऐसी उलजहूल बातें,
साक्षात वरदान !!!
हौसले हो गए फितूरी,
अरमान खाके हिचगोले,
पहुँचे ऊफान !
बकने लगा वो अंट संट,
जो मन आए - अंड बंड,
" मै सर्व ज्ञाता,
मुझे भेजे स्वयं विधाता !
मेरी शरण आओ,
मैं तुम्हे मुक्ति दिलाता ! "
ऐसे पागलों से बचके रहना भाई,
इन्होनें जाने कितनो की दुर्गति करवाई,
बसी बसाई गृहस्तियों को दिया उजाड़,
अच्छे खासे समझदारों ने इनके पीछे,
अपनी मति गँवाई !
हाए, मन का जटिल विज्ञान !
पाले जाने कै अभिमान,
यथार्थ जगत अनदेखा कर,
पाना चाहे कौन सा ज्ञान ?!
कौन मूढ़, कौन चतुर,
कौन ऊँच , कौन नीच ?
मिटटी दफ़न मिटटी 'मजाल',
हिसाब बराबर, ख़तम दलील !
व्यवहार सरल,पर चिंतन गिद्ध,
सब स्वीकार , न कुछ निषिद्ध,
जो हर स्तिथि रखे संयम,
सुख हो दुःख, रहे वो सम,
निभाए सब रह इसी जगत,
'मजाल' माने उन्हीं को सिद्ध.
Friday, November 12, 2010
हास्य-व्यंग्य कविता - ' Hindi ko likha jana chaahiye ' इस तरह ' और ना की ' yun ' ! ( Hasya Vyangya Kavita - Majaal )
भाई मेरे !
ये क्या सितम ढाते हो ?
क्यों हिंदी को अंग्रेजी बनाते हो ?
मीठे में क्यों नमकीन मिलाते हो ?
दोनों का स्वाद बर्बाद करके क्या पाते हो ?
हमारी बिनती, सनम्र निवेदन,
बस यही आरज़ू,
Hindi ko likha jana chaahiye,
' इस तरह '
और ना की ' yun ' !
मियाँ 'मजाल' जब दादा बन जाएंगे,
और पोता पूछेगा दददू से,
क्या होती है चवन्नी ?
क्योकि तब तक,
चलन के बाहरहो चुकी होगी,
सारी छोटी मोटी गिन्नी,
तब दददू एक सँभाला हुआ,
घिसा सिक्का उसे दिखाएंगे,
और नाती को वो अपने,
चवन्नी का मतलब समझाएंगे.
अब जो तुम लिखने लगोगे,
हिंदी को अंग्रेजी में बेवजह,
तो हिंदी भी चवन्नी की तरह,
धीरे धी .... re लुप्त हो जाaegee,
is tarah !
बार बार दोहराते इसी लिए 'मजाल',
की वक़्त रहते रेंग जाए,
तुम्हारे कानों में जूँ,
Hindi ko likha jana chaahiye,
' इस तरह '
और ना की ' yun ' !
Tum to kuch bhi ant sant likh jaate ho,
aur us अंट शंट ko samajhane mein,
हमारी बुद्धि खपवाते हो !
जब साधन मौजूद है,
तो क्यों आलस दिखाते हो ?
देवनागरी को क्यों खाँमखाँ,
tum Roman banaate ho ?
अगर हम तुमसे कहें,
जाओ Google ट्रांसलिटरेशन में,
बजाए कहने के 'transliteration',
तो असुविधा होगी की नहीं समझने में ?
इसीलिए तो मजाल है कहते,
क्या रखा भाषाओं की ऐसी तैसी करने में ?!
मेहंदी जचेगी न माथे पर,
और न हथेली में बिंदी,
अंग्रेजी रहे अंग्रेजी तो बेहतर,
और हिंदी, हिंदी !
बस इतना कहना चाह रहे हम,
जरिये इस गुफ्तगू,
Hindi ko likha jana chaahiye,
' इस तरह '
और ना की ' yun ' !
ये क्या सितम ढाते हो ?
क्यों हिंदी को अंग्रेजी बनाते हो ?
मीठे में क्यों नमकीन मिलाते हो ?
दोनों का स्वाद बर्बाद करके क्या पाते हो ?
हमारी बिनती, सनम्र निवेदन,
बस यही आरज़ू,
Hindi ko likha jana chaahiye,
' इस तरह '
और ना की ' yun ' !
मियाँ 'मजाल' जब दादा बन जाएंगे,
और पोता पूछेगा दददू से,
क्या होती है चवन्नी ?
क्योकि तब तक,
चलन के बाहरहो चुकी होगी,
सारी छोटी मोटी गिन्नी,
तब दददू एक सँभाला हुआ,
घिसा सिक्का उसे दिखाएंगे,
और नाती को वो अपने,
चवन्नी का मतलब समझाएंगे.
अब जो तुम लिखने लगोगे,
हिंदी को अंग्रेजी में बेवजह,
तो हिंदी भी चवन्नी की तरह,
धीरे धी .... re लुप्त हो जाaegee,
is tarah !
बार बार दोहराते इसी लिए 'मजाल',
की वक़्त रहते रेंग जाए,
तुम्हारे कानों में जूँ,
Hindi ko likha jana chaahiye,
' इस तरह '
और ना की ' yun ' !
Tum to kuch bhi ant sant likh jaate ho,
aur us अंट शंट ko samajhane mein,
हमारी बुद्धि खपवाते हो !
जब साधन मौजूद है,
तो क्यों आलस दिखाते हो ?
देवनागरी को क्यों खाँमखाँ,
tum Roman banaate ho ?
अगर हम तुमसे कहें,
जाओ Google ट्रांसलिटरेशन में,
बजाए कहने के 'transliteration',
तो असुविधा होगी की नहीं समझने में ?
इसीलिए तो मजाल है कहते,
क्या रखा भाषाओं की ऐसी तैसी करने में ?!
मेहंदी जचेगी न माथे पर,
और न हथेली में बिंदी,
अंग्रेजी रहे अंग्रेजी तो बेहतर,
और हिंदी, हिंदी !
बस इतना कहना चाह रहे हम,
जरिये इस गुफ्तगू,
Hindi ko likha jana chaahiye,
' इस तरह '
और ना की ' yun ' !
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Thursday, November 11, 2010
शायरी : वो हमसे कुछ ख़ास नहीं मिले, लगता है, अहसास नहीं मिले ! (Shayari - Majaal)
वो हमसे कुछ ख़ास नहीं मिले,
लगता है, अहसास नहीं मिले !
और दिनों मिलते थे जैसे,
वैसे हमसे आज नहीं मिलें !
इंसा और जानवर का फासला,
तबीयत, कभी हालात नहीं मिले !
कोई तलाशे, बादे मौत ज़िन्दगी,
किसी को, आगाज़ नहीं मिले !
सभी ने हाँकी अपने मन से फकत ,
किसी को पर, वो राज़ नहीं मिले !
कितनों में छुपे, मीर ग़ालिब 'मजाल',
बस सोच को, अल्फाज़ नहीं मिले !
लगता है, अहसास नहीं मिले !
और दिनों मिलते थे जैसे,
वैसे हमसे आज नहीं मिलें !
इंसा और जानवर का फासला,
तबीयत, कभी हालात नहीं मिले !
कोई तलाशे, बादे मौत ज़िन्दगी,
किसी को, आगाज़ नहीं मिले !
सभी ने हाँकी अपने मन से फकत ,
किसी को पर, वो राज़ नहीं मिले !
कितनों में छुपे, मीर ग़ालिब 'मजाल',
बस सोच को, अल्फाज़ नहीं मिले !
Wednesday, November 10, 2010
' कलाकारी !' : हास्य-कविता, ( Hasya Kavita - Majaal )
हमारे मित्र,
देखने प्रदर्शनी चित्र,
दिन रविवार,
सपरिवार.
सामने चित्र,
स्थिति विचित्र,
मित्र सोचे, 'वाह ! क्या चित्रकारी ! ',
उनकी बीवी सोचे, 'वाह ! क्या साड़ी ! '
छोटा बच्चा सोचे, ' वाह ! क्या गाड़ी ! '
बड़ा वाला सोचे, ' वाह ! क्या नारी !'
एक ही दुनिया में,
मौजूद रंग कितने,
है सबने पाई,
अपनी अलग नज़र,
अपनी अपनी समझदारी.
बनाने वाले ने खूब बनाई,
तस्वीर-ए-बेमिसाल,
दाद दीजिये 'मजाल',
ऊपरवाले की कलाकारी !
देखने प्रदर्शनी चित्र,
दिन रविवार,
सपरिवार.
सामने चित्र,
स्थिति विचित्र,
मित्र सोचे, 'वाह ! क्या चित्रकारी ! ',
उनकी बीवी सोचे, 'वाह ! क्या साड़ी ! '
छोटा बच्चा सोचे, ' वाह ! क्या गाड़ी ! '
बड़ा वाला सोचे, ' वाह ! क्या नारी !'
एक ही दुनिया में,
मौजूद रंग कितने,
है सबने पाई,
अपनी अलग नज़र,
अपनी अपनी समझदारी.
बनाने वाले ने खूब बनाई,
तस्वीर-ए-बेमिसाल,
दाद दीजिये 'मजाल',
ऊपरवाले की कलाकारी !
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Tuesday, November 9, 2010
शायरी : ' जाने कैसा गुज़रना है साल ये ? अभी से है हजूर के जब हाल ये ! ' (Shayari - Majaal)
जाने कैसा गुज़रना है साल ये ?
अभी से है हजूर के जब हाल ये !
क्या, क्यों, किसलिए, सुलझे तो कैसे ?
जवाबों से ही निकलते सवाल ये !
दो पागल, और दोनों बराबर !
ख़त्म नहीं होता दिखे बवाल ये !
बात तब बने, जब मकम्मल हो वर्ना,
पल में गायब हो जाते ख़याल ये !
चार दिन हुए नहीं महफ़िल सजाए,
इनके तेवर तो देखिये, मजाल ये !
अभी से है हजूर के जब हाल ये !
क्या, क्यों, किसलिए, सुलझे तो कैसे ?
जवाबों से ही निकलते सवाल ये !
दो पागल, और दोनों बराबर !
ख़त्म नहीं होता दिखे बवाल ये !
बात तब बने, जब मकम्मल हो वर्ना,
पल में गायब हो जाते ख़याल ये !
चार दिन हुए नहीं महफ़िल सजाए,
इनके तेवर तो देखिये, मजाल ये !
Monday, November 8, 2010
हास्य-कविता : ' पगार ! ' ( Hasya Kavita - Majaal )
अरसे पहले मुंशी प्रेमचंद साहब के किसी उपन्यास (या शायद मानसरोवर) में पगार की ये परिभाषा पढ़ी थी. उसी को कुछ कवितानुमा कर दिया है :
महीने की,
पहली तारीख को,
कितनी अच्छी,
लगती थी तुम,
मेरे हाथ में,
पूरी की पूरी !
गोया,
तुम और मैं,
बने है,
सिर्फ,
एक दूसरे के लिए,
पूरे के पूरे !
एक अनकहा वादा था,
साथ निभाने का,
पूरे महीने भर का !
मगर तुम,
ऐ नाज़नीन !
निकली बेवफा,
उस पूनम के चाँद की तरह,
जो होता चला गया,
कम,
रोज़ ब रोज़,
और गायब हो गयी तुम,
बीच महीने में,
पूरी तरह से,
मेरा साथ छोड़ कर,
चाँद की तरह !
अब मैं बैठा हूँ,
तन्हा !
खाली मलते हुए,
अपने हाथ,
और,
मेरे सामने बचा है,
काटने को,
आधा महीना,
पूरा का पूरा !
महीने की,
पहली तारीख को,
कितनी अच्छी,
लगती थी तुम,
मेरे हाथ में,
पूरी की पूरी !
गोया,
तुम और मैं,
बने है,
सिर्फ,
एक दूसरे के लिए,
पूरे के पूरे !
एक अनकहा वादा था,
साथ निभाने का,
पूरे महीने भर का !
मगर तुम,
ऐ नाज़नीन !
निकली बेवफा,
उस पूनम के चाँद की तरह,
जो होता चला गया,
कम,
रोज़ ब रोज़,
और गायब हो गयी तुम,
बीच महीने में,
पूरी तरह से,
मेरा साथ छोड़ कर,
चाँद की तरह !
अब मैं बैठा हूँ,
तन्हा !
खाली मलते हुए,
अपने हाथ,
और,
मेरे सामने बचा है,
काटने को,
आधा महीना,
पूरा का पूरा !
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Sunday, November 7, 2010
थोड़ा शायराना हुआ जाए ...(Shayari - Majaal)
कमज़ोर हो के ढह जा,
गुरूर उस ज गह जा !
बदजुबानी से तो अच्छा,
चुप रहके थोड़ा सह जा !
तुझसे बहुत पटती है,
फुर्सत तू संग ही रह जा !
मरज़ करता रुका पानी,
आँसू तू बेहतर बह जा !
तेरा क्या बुरा मानें ?
उम्दा नीयत है, कह जा !
ख़ुशी और ग़म बराबर,
अरमानों की जो तह जा !
'मजाल' सच कब कड़वा ?
कड़वा होता बस लह जा !
गुरूर उस ज गह जा !
बदजुबानी से तो अच्छा,
चुप रहके थोड़ा सह जा !
तुझसे बहुत पटती है,
फुर्सत तू संग ही रह जा !
मरज़ करता रुका पानी,
आँसू तू बेहतर बह जा !
तेरा क्या बुरा मानें ?
उम्दा नीयत है, कह जा !
ख़ुशी और ग़म बराबर,
अरमानों की जो तह जा !
'मजाल' सच कब कड़वा ?
कड़वा होता बस लह जा !
Saturday, November 6, 2010
दर्शन हास्य - " प र व च न ! "
भगवन !
यह जगत भगदड़ !
सब तरफ भगमभग !
" हम परथम ! हम परथम !" सब बस यह रट !
मन व्यथत !
यह जगत,
लगत असत मम !
बस उलझन उलझन !
यह प्रशन, मम समझ पर !
मदद !!!
हल ! भगवन ! हल !
वत्स 'भरम मल' !
जगत सरल !
न प्रशन , न उत्तर, न लक्ष्य !
यह बस यह ; जस तस !
यह सब भरम, दरअसल, मन उपज !
जब मन भरमन सतत ,
तब हरदय धक धक !
धड़कन बढ़त - न वजह !
अतह, मत मचल !
धर सबर !
जब जब मन असमनजस,
तब नयन बन्द,
कर स्मरण मम !
हम सत्य !
हम अटल !
चरम, हम परम !
हम ब्रह्म !
कर श्रवण वचन मम !
जब मन व्यथत,
कर गरहण, अन्न जल,
हलक भर भर !
ढक तन,
कर शयन - गहन !
तज सब मम पर !
तवम सब असमनजस, सब भय,
हम लय हर!
रह मस्त,रह मगन !
बस यह - यह बस !
फकत !
जगत सरल !
यह जगत भगदड़ !
सब तरफ भगमभग !
" हम परथम ! हम परथम !" सब बस यह रट !
मन व्यथत !
यह जगत,
लगत असत मम !
बस उलझन उलझन !
यह प्रशन, मम समझ पर !
मदद !!!
हल ! भगवन ! हल !
वत्स 'भरम मल' !
जगत सरल !
न प्रशन , न उत्तर, न लक्ष्य !
यह बस यह ; जस तस !
यह सब भरम, दरअसल, मन उपज !
जब मन भरमन सतत ,
तब हरदय धक धक !
धड़कन बढ़त - न वजह !
अतह, मत मचल !
धर सबर !
जब जब मन असमनजस,
तब नयन बन्द,
कर स्मरण मम !
हम सत्य !
हम अटल !
चरम, हम परम !
हम ब्रह्म !
कर श्रवण वचन मम !
जब मन व्यथत,
कर गरहण, अन्न जल,
हलक भर भर !
ढक तन,
कर शयन - गहन !
तज सब मम पर !
तवम सब असमनजस, सब भय,
हम लय हर!
रह मस्त,रह मगन !
बस यह - यह बस !
फकत !
जगत सरल !
Friday, November 5, 2010
हास्य : कमेन्ट कर न कर पर कमबख्त, हाज़िरी तो लगाते जा !
अब जब आया ही गया है महफ़िल-ए-ब्लॉग में,
तो कोई निशानी तो छोड़ जा,
कमेन्ट न कर चाहे,
पर कमबख्त,
कम स कम,
हाज़िरी तो लगा !
पोस्ट-ए-ब्लॉग को,
सींचा है मेहनत से,
'मजाल' ये वो बाग़ है,
गुल-ए-कमेन्ट की महक से,
होता जो है रोशन ,
टिप्पणियाँ ही करती जिसे आबाद है !
चलेगी मजालिया तुकबंदी और,
सुमन का 'nice' भी चलेगा,तो कोई निशानी तो छोड़ जा,
कमेन्ट न कर चाहे,
पर कमबख्त,
कम स कम,
हाज़िरी तो लगा !
पोस्ट-ए-ब्लॉग को,
सींचा है मेहनत से,
'मजाल' ये वो बाग़ है,
गुल-ए-कमेन्ट की महक से,
होता जो है रोशन ,
टिप्पणियाँ ही करती जिसे आबाद है !
चलेगी मजालिया तुकबंदी और,
चलेगी तेरी मर्जी,
कुछ न सूझे तो मुस्कारा के यूँ ( ; )
हौसला अफसाई ही कर दे,
तादाद ही बढ़ा !
जश्न में शरीक न हो न सही,
मगर कमबख्त,
कम स कम,
ताली तो बजा !
पसंद आये न आए,
टिकट तो कटवा ही चुका है !
फिल्म तो देख ही ली है पूरी,
पैसे तो गँवा ही चुका है !
किस्सा तो ख़तम होना ही था,
ऐसे या वैसे,
इन्टरनेट में नहीं लगते तो ,
तो कहीं और खर्च होते पैसे !
अब मातम मानने से तो अच्छा है,
फीका ही मुस्कुरा !
फीकी हँसी भी असर करेगी कमबख्त !
तू एक बारी तबीयत तो बना !
अब जब आया ही गया है महफ़िल-ए-ब्लॉग में,
तो कोई निशानी तो छोड़ जा,
कमेन्ट न कर चाहे,
पर कमबख्त,
कम स कम,
हाज़िरी तो लगा !
तो कोई निशानी तो छोड़ जा,
कमेन्ट न कर चाहे,
पर कमबख्त,
कम स कम,
हाज़िरी तो लगा !
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हास्य कविता
Thursday, November 4, 2010
' कविताई ! ' : हास्य-कविता
वो, जिसे कहते है कविताई,
बनाने वाले ने, ऐसी बनाई,
की सीधे समझ आई तो आई,
और जो न आई, तो न आई !
जिसको ये न समझ में आई,
न समझा सकती उसे पूरी खुदाई,
चाहे भरकस जोर लो लगाईं,
हर प्रयास विफल हो जाई,
क्योकि वो कहेगा ' भाई,
हमको एक बात दो समझाई ,
हमरे पिताजी के बस छोटे भाई,
नहीं उनका कोई बड़ा भाई,
तो फिर इसको होना चाही,
कविचाची, और न की कविताई ! '
इसलिए हम कहते है पाई ,
खेल ये दिमागी नहीं है साईं,
इसलिए छोड़ो मगज खपाई,
न समय की करों यूँ गवाई,
अगर अब भी बात न समझ आई,
तो छोड़ो मुई को, आगे बढ़ो भाई,
है और भी ग़म, जमाने में भाई ,
उनको ही लो आजमाई !
जहां तक 'मजाल' का सवाल हाई ,
तो हम वापस देतें दोहराई ,
की वक़्त ही वक़्त कमबख्त है भाई,
क्या कीजे, गर न कीजे कविताई .... !
बनाने वाले ने, ऐसी बनाई,
की सीधे समझ आई तो आई,
और जो न आई, तो न आई !
जिसको ये न समझ में आई,
न समझा सकती उसे पूरी खुदाई,
चाहे भरकस जोर लो लगाईं,
हर प्रयास विफल हो जाई,
क्योकि वो कहेगा ' भाई,
हमको एक बात दो समझाई ,
हमरे पिताजी के बस छोटे भाई,
नहीं उनका कोई बड़ा भाई,
तो फिर इसको होना चाही,
कविचाची, और न की कविताई ! '
इसलिए हम कहते है पाई ,
खेल ये दिमागी नहीं है साईं,
इसलिए छोड़ो मगज खपाई,
न समय की करों यूँ गवाई,
अगर अब भी बात न समझ आई,
तो छोड़ो मुई को, आगे बढ़ो भाई,
है और भी ग़म, जमाने में भाई ,
उनको ही लो आजमाई !
जहां तक 'मजाल' का सवाल हाई ,
तो हम वापस देतें दोहराई ,
की वक़्त ही वक़्त कमबख्त है भाई,
क्या कीजे, गर न कीजे कविताई .... !
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हास्य कविता
Wednesday, November 3, 2010
एक ग़ज़ल : किसी ने तेरा बुरा भला कब किया ? किया खुदी का अपना, तूने जब किया ! Shayri - Majaal)
किसी ने तेरा बुरा भला कब किया ?
किया खुदी का अपना, तूने जब किया !
बस थोड़े से में सीखी पूरी जिंदगी,
पूरा किया पर उसे, जो भी जब किया !
जो टालते गए, वो टालते गए,
उसी ने किया, जिसने अब किया !
हसीं, प्यार, रश्क, अश्क एक में,
या खुदा ! ये तूने क्या गज़ब किया !
हमको तो कभी मिला जवाब ना,
ताउम्र जिंदगी से है तलब किया !
'मजाल' हँसने की वजह कोई नहीं,
पर रोने का भी बताएँ, सबब किया ?!
किया खुदी का अपना, तूने जब किया !
बस थोड़े से में सीखी पूरी जिंदगी,
पूरा किया पर उसे, जो भी जब किया !
जो टालते गए, वो टालते गए,
उसी ने किया, जिसने अब किया !
हसीं, प्यार, रश्क, अश्क एक में,
या खुदा ! ये तूने क्या गज़ब किया !
हमको तो कभी मिला जवाब ना,
ताउम्र जिंदगी से है तलब किया !
'मजाल' हँसने की वजह कोई नहीं,
पर रोने का भी बताएँ, सबब किया ?!
Tuesday, November 2, 2010
हास्य-कविता : आप से तू, और फिर तू से गाली में, आ गए आखिर, साहब अपनीवाली में !
आप से तू और फिर,
तू से गाली में,
आ गए आखिर,
साहब अपनीवाली में !
भेद नहीं करते वो,
साली और घरवाली में,
कितनी ही बार पाए गए,
पी कर टुन्न नाली में !
सीखे है सारे ऐब,
उन्होंने उम्र बाली में,
छूटे है जेल से,
सरकार अभी हाली में !
समझ लीजिये लगे हुए है,
कोई काम जाली में,
इतनी जल्दी नहीं होता ,
सुधार हालत माली में !
क्या इल्म देंगे आप उन्हें,
हिंदी या बंगाली में,
फर्क ही नहीं जिन्हें,
ग़ज़ल और कव्वाली में !
काटें ही उगने है जनाब,
बबूल की डाली में,
माहौल चाहे श्राद्ध हो,
या फिर दिवाली में ?!
बस चट्टे बट्टे ही नहीं,
भरे है थाली में,
शरीफ भी है बचे हुए,
इस बस्ती मवाली में,
जिमेदारी को अपनी,
समझिए 'मजाल',
चुनाव नहीं होते है,
यूँ ही बस खाली में !
तू से गाली में,
आ गए आखिर,
साहब अपनीवाली में !
भेद नहीं करते वो,
साली और घरवाली में,
कितनी ही बार पाए गए,
पी कर टुन्न नाली में !
सीखे है सारे ऐब,
उन्होंने उम्र बाली में,
छूटे है जेल से,
सरकार अभी हाली में !
समझ लीजिये लगे हुए है,
कोई काम जाली में,
इतनी जल्दी नहीं होता ,
सुधार हालत माली में !
क्या इल्म देंगे आप उन्हें,
हिंदी या बंगाली में,
फर्क ही नहीं जिन्हें,
ग़ज़ल और कव्वाली में !
काटें ही उगने है जनाब,
बबूल की डाली में,
माहौल चाहे श्राद्ध हो,
या फिर दिवाली में ?!
बस चट्टे बट्टे ही नहीं,
भरे है थाली में,
शरीफ भी है बचे हुए,
इस बस्ती मवाली में,
जिमेदारी को अपनी,
समझिए 'मजाल',
चुनाव नहीं होते है,
यूँ ही बस खाली में !
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हास्य कविता
Monday, November 1, 2010
हास्य गीत : अरे ! आज तो पड़ी बड़ी, कड़ाके की ठंड है !
कुछ दिनों से मौसम खुशनुमा हो गया है. सुबह की हवाएँ ठंडक लिए हुई है. एक आद हफ्ते में ठण्ड पूरी तरह से शबाब में आ जानी चाहिए... बहरहाल, एक हास्य गीत ठण्ड पर ....
अरे ! आज तो पड़ी बड़ी,
कड़ाके की ठंड है !
ठिठुर ठिठुर के भर रही,
दिल में उमंग है !
इनदिनों है काँपता,
फिरे सारा बदन,
बचाते फिर रहें है हम ,
अपना पूरा तन,
ऊपर से बाहर छाया है ,
कोहरा घुप घन,
घर से बाहर जाने का,
बिलकुल करे न मन !
दुनिया में सबसे हसीं जगह,
आज ये पलंग है !
दुबके रहना रजाई में ही,
आज तो पसंद है !
अरे ! आज तो पड़ी बड़ी,
कड़ाके की ठंड है ! ....
शून्य के करीब,
डोलता है तापमान,
बाल्टी का पानी,
बरफ होने को मेरी जान !
हमाम जाने में,
निकलते है मेरे प्राण !
गीज़र न हो तो,
गैस पर गरम करो श्रीमान!
की मिज़ाज आजकल ,
मौसम का अंड बंड है !
ठंडे पानी की छुअन से ही,
तबीयत होती झंड है !
अरे ! आज तो पड़ी बड़ी,
कड़ाके की ठंड है ! ....
कंपकंपाती आवाज में,
गुनगुनाते मौसम आया !
जेब हाथ सीटी ,
बजाते मौसम आया !
सूत सूत खूब,
खाने का मौसम आया,
फिर से एक बार ,
है हमने ये पाया की ,
पकौड़े ये जन्दगी के,
बहुत अहम् से अंग है !
स्वर्ग है यहीं पे जो,
चटनी भी अगर संग है !
अरे ! आज तो पड़ी बड़ी,
कड़ाके की ठंड है ! ....
नाक बहती यूँ की,
समंदर कोई उफान !
खाँस खाँस आ गए,
हलक में मेरे प्राण !
टोपी, मफलर, दस्तानों का,
सब तरफ बखान,
स्वेटर, जैकट, जो भी गरम,
है इनदिनों महान !
उफ़! इस ठंड का प्रकोप,
हमें लगे अनंत है !
धैर्य धरो पार्थ !
की आगे आता वसंत है !
अरे ! आज तो पड़ी बड़ी,
कड़ाके की ठंड है ! ....
अरे ! आज तो पड़ी बड़ी,
कड़ाके की ठंड है !
ठिठुर ठिठुर के भर रही,
दिल में उमंग है !
इनदिनों है काँपता,
फिरे सारा बदन,
बचाते फिर रहें है हम ,
अपना पूरा तन,
ऊपर से बाहर छाया है ,
कोहरा घुप घन,
घर से बाहर जाने का,
बिलकुल करे न मन !
दुनिया में सबसे हसीं जगह,
आज ये पलंग है !
दुबके रहना रजाई में ही,
आज तो पसंद है !
अरे ! आज तो पड़ी बड़ी,
कड़ाके की ठंड है ! ....
शून्य के करीब,
डोलता है तापमान,
बाल्टी का पानी,
बरफ होने को मेरी जान !
हमाम जाने में,
निकलते है मेरे प्राण !
गीज़र न हो तो,
गैस पर गरम करो श्रीमान!
की मिज़ाज आजकल ,
मौसम का अंड बंड है !
ठंडे पानी की छुअन से ही,
तबीयत होती झंड है !
अरे ! आज तो पड़ी बड़ी,
कड़ाके की ठंड है ! ....
कंपकंपाती आवाज में,
गुनगुनाते मौसम आया !
जेब हाथ सीटी ,
बजाते मौसम आया !
सूत सूत खूब,
खाने का मौसम आया,
फिर से एक बार ,
है हमने ये पाया की ,
पकौड़े ये जन्दगी के,
बहुत अहम् से अंग है !
स्वर्ग है यहीं पे जो,
चटनी भी अगर संग है !
अरे ! आज तो पड़ी बड़ी,
कड़ाके की ठंड है ! ....
नाक बहती यूँ की,
समंदर कोई उफान !
खाँस खाँस आ गए,
हलक में मेरे प्राण !
टोपी, मफलर, दस्तानों का,
सब तरफ बखान,
स्वेटर, जैकट, जो भी गरम,
है इनदिनों महान !
उफ़! इस ठंड का प्रकोप,
हमें लगे अनंत है !
धैर्य धरो पार्थ !
की आगे आता वसंत है !
अरे ! आज तो पड़ी बड़ी,
कड़ाके की ठंड है ! ....
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