Monday, October 18, 2010

' काण्ड !' : हास्य-कविता ( Hasya Kavita - Majaal )

'आपकी रचना की तिथि अगस्त ,
और मेरी  वाली की,
महीना जुलाई है,
परवाना  होता है,
 शमा में भस्म,
ये बात मैंने आपसे,
पूरे एक महीना पहले,
पता लगाई है...'

मैंने देखा,
जनाब सामने खड़े थे,
सेहत सींकिया ,
पर तेवर पहलवानी,
चहरे पे छाया था,
मातम नाकामयाबी,
कारण भी साफ़ सा,
दीखता था आसानी,
की हुनर फुटपाथिया,
पर ख्वाब आसमानी !
लड़ने का मूड है,
जता चुके थे,
समझ कितनी रखते खुद की,
खबर कितनी दुनिया की,
परवाने का उदाहरण देकर,
बता चुके थे !
'ये  खूब रही की आपकी,
और हमारी सोच मिल पाई,
नहीं तो इसने कब,
किसी से लम्बी निभाई ?
कभी आपके पास गयी,
कभी हमारे पास आई,
सोच चीज़ ही तवायफ,
किसकी सच्ची लुगाई ?!
अब मिलें है किस्मत से हम,
तो खुशियाँ मनाइए,
लगिए गले,  कीजिये ख़त्म ,
बात क्यों आगे बढ़ाइए ? ..'

 'बात को यूँ,
 हलके में न लीजिये,
गर चोरी करने की,
 रखते है 'मजाल',
तो कबूल करने के,
हौसले भी साथ रखिये ,
आप तो बात से,
साफ़ मुकर जातें है,
ऊपर से सोच की,
खिल्ली उड़ातें   है,
नहीं सीखा क्या आपने,
कदर-ए-हुनर करना,
माँ-बाप से क्या,
यहीं संस्कार पातें है .. ?'

अब यूँ तो 'मजाल',
सीधा-सच्चा प्राणी,
न छुए शराब,
न ताके नारी,
पर जो बात पहुँच जाए खानदानी,
फिर तमीज गयी तेल लेने,
शरम भरने पानी !
भूल जाए मियाँ  'मजाल' तब सब कुछ,
और दिखा  दें फिर जात,
 शायराना अपनीवाली   !

' भाई हम तो बजा ही फरमा  रहे है,
तेवर तो आप ही  दिखा रहे है,
अब  खानदान का जिक्र,
कर दिया तो सुनिए,
'मजाल' आपको,
पूरी कहानी सुना रहे है'

'माँ-बाप ने तो बताया,
हमने बस इतना,
की बेटा 'मजाल',
आदमी चीज़ है अदना,
खुदा ने पूरी दुनिया,
चुपचाप बनाई,
बिना जिक्र छेड़े,
बिना दिए दुहाई,
पर आदमी की हजूर,
क्या कहिये तबीयत !
जरा कुछ हुआ नहीं,
की बात तेरे-मेरे पर आई !
जो ऊपर वाला किसी दिन,
आ गया हिसाब मांगने  पे,
तो लूट जाएगी पूरी सल्तनत
निभाने में,
रस्मों मूंह दिखाई !
इसलिए मेरे भाई,
छोड़ो  ये खांमखां  की लड़ाई,
बनाया उपरवाले ने सब कुछ ,
न लगी आपकी कुछ ,
न मेरी कमाई !'

'व्यर्थ की बातें न बनाइये,
ऊपर वाले को बीच में न लाइए,
इलज़ाम लगा है आप पर,
बात को उससे आगे न बदाइए
सीधे कबूलें चोरी तो बेहतर,
नहीं तो हमसे,
कानूनी नोटिस पाइए '


'हद करतें है साहब !
क्या कहना चाहतें है आप ?
क्या ब्रम्हा  ने ये रचना,
सबसे पहले क्या,
 कानों में आ कर सुनाई थी ?
आपको क्या लगता है,
पहले प्रेम की बाती,
क्या आपने जलाई थी ?
आपसे पहले किसी को सूझी नहीं ?
परवाने की शहादत परंपरा,
अपने घर से  शुरू करवाई थी ?!
सदियों से चल रही है ये बात,
हज़ारों बार हो चुका है ,
इस्तेमाल हर जज़्बात,
मौलिक तभी तक चीज़ कोई ,
जब तक की उसका,
स्रोत न हो ज्ञात !
अभी भी कोई भरम है,
तो मुगालातें दूर करवाता हूँ,
थोड़ी महोलत  दीजिये नाचीज़ को,
अभी दो मिनट में अंकल गूगल से ,
आपकी बाकी सारी रचनाओं की,
'प्रेरणाओं' का भी पता लगाता हूँ !'

' अरे अरे !
कहाँ चले ?!
कानूनी नोटिस तो देतें जाइए !
हमें  भी तो चले पता,
आखिर क्या होती है सख्ती !
सहीं कहते है आप जनाब,
चुराई  ही होगी,
क्यों आप जैसों से,
अपनी सोच तो,
यकीनन  नहीं मिल सकती .. ! '

4 comments:

उस्ताद जी said...

1.5/10


पूरी रचना पढने के लिए अपार झेलन-शक्ति चाहिए

Manish aka Manu Majaal said...

आपका ब्लॉग पर पधारने और टिपण्णी करने के लिए आभार. झेलन शक्ति के लिए अलग से आभार ....

उम्मतें said...

@ मजाल साहब,
ओह...लगता है कि मौलिकता को लेकर फिर से कोई कांड हो गया ! सन्दर्भ को जाने बगैर सिर्फ इतना ही कहूँगा कि ये मुई मौलिकता भी उस नाज़नीन सी है जिससे हर मर्द पहले पहले प्रेम का दावा करता आया है और...ये है कि शताब्दियों से सभी गुणीजनों को बस ऐसे ही छलती आ रही है :)
अब गुस्सा थूक भी दीजिए जनाब !

@ उस्ताद जी ,
उस्तादों को शागिर्दों के लिए बड़े सब्र वाला होना चाहिए !

Parul kanani said...

:)..hasy kavita padhte padhte..stithi hasyadpad ho gayi..par majaal hai jo bina khtm kiye jaoon... :)

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