Thursday, September 30, 2010

बुरे फँसें 'मजाल' आ कर जन्नत में - हास्य कविता

जो थोड़ा  हेर फेर हो जाए कागजों में,
सभी अपने कर्म दुरुस्त करवा रहे है,
की उनकी भी पक्की हो जाए जन्नत,
चित्रगुप्त  को सभी पटा रहे है !

अंदर इन्द्र देव भाईलोगों से अपने,
आज का चढ़ावा गिनवा रहे है,
हफ्ता न पहुंचे  जब तक  सेवकों  का,
प्रभु कहाँ  बारिश करवा रहे है ?!

आगे सब नेताओं की टोली इकट्ठी,
मानो परम बोधी ही पा  रहे है,
'की यूँ नहीं यूँ, ये दरअसल यूँ',
नारद मुनि सबको सुलगा रहे है !

नीचे सिखाते थे तो जो 'नेति, नेति',
अप्सराओं को देख कह रहे 'देती क्या ? देती ?'
आँखें गर करती है, हाल-ए-दिल बयाँ तो ,
सब संत बड़े खूँखार नजर आ रहे है !

ये भी खूब रहीं मियाँ 'मजाल',
हाल यहाँ के  तो है कमाल,
ऊपर से तुर्रा  ये, की जो भी मरें,
कमबख्त सब स्वर्ग  ही जा रहे है !

गौर  करें कोई हमारा भी तर्क,
कब तक बचा रह पाएगा ये स्वर्ग ?
की धुरंधर सारे, सभी महानुभावी,
तो यहीं का टिकट  कटवा रहे है !

दूर से देखने पर तो यही लगता था,
'वाह ! वहाँ क्या मज़ा होता होगा !'
बुरे फँसें 'मजाल', आ कर जन्नत में,
हमने तो सोचा था, कुछ नया  होता होगा !
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